Tuesday, May 29, 2012

जी रहे हैं हम कफ़न ओढ़े हुए !!.............राहुल गुप्ता स्पर्शी

जिन्दगी की हर ख़ुशी छोड़े हुए !
जी रहे हैं हम, कफ़न ओढ़े हुए !!
०००००००००००
जान से अपनी जुड़े गम ही रहे !
कभी हुए ज्यादा, कभी थोड़े हुए !!
.....जी रहे हैं हम कफ़न ओढ़े हुए !!
०००००००००
रिश्ता बनता ही गया वीराने से !
बरसों हो गए ..चमन छोड़े हुए !!
.....जी रहे हैं हम कफ़न ओढ़े हुए !!
०००००००००
जिसके क़दमों पे झुकी नज़रें रहीं !
चलते रहे हैं वो, कदम मोड़े हुए !!
.......जी रहे हैं हम कफ़न ओढ़े हुए !!
०००००००००
दिल को तेरे प्यार में तोड़े हुए !
यादों से इस जान को जोड़े हुए !!

.....जी रहे हैं हम कफ़न ओढ़े हुए !!
--राहुल गुप्ता स्पर्शी, 
--ग्वालियर 
-09826347016
-प्रस्तुति करणः राजीव थेपड़ा

Tuesday, May 22, 2012

साथ में चले वो क़ाफ़िला रहा..........स्व. पण्डित कृष्णानन्द चौबे


हमको शिकायतें रहीं, उनको गिला रहा,
मुद्दत से बहरहाल यही सिलसिला रहा !

मेरे खुतूत कैसे रकीबों ने पढ़ लिये,

लगता है नामावर मेरा उनसे मिला रहा !

जूड़े में गुल को जैसे नई ज़िन्दगी मिली,
वो ज़िन्दगी बाद भी कैसा खिला रहा !

दिल मेरा अपने वास्ते भी सोचता नगर,
वो तो बस उनकी याद में ही मुब्तिला रहा !

तुम जिसके साथ हो लिये वो एक भीड़ थी,
हम जिसके साथ में चले वो क़ाफ़िला रहा !

 
----स्व. पण्डित कृष्णानन्द चौबे
प्रस्तुतिकरणः ज़नाब अन्सार काम्बरी

Monday, May 21, 2012

तआक़ुब में गई सारी जवानी.......अमजद इस्लाम 'अमजद'

मैं भींगती आँखों से उसे कैसे हटाऊँ
मुश्किल है बहुत अब्र में दीवार उठानी
अब्र = घटा,

निकला था तुझे ढूंढने इक हिज्र का तारा
फिर उसके तआक़ुब में गई सारी जवानी
 हिज़्र = जुदाई, तआक़ुब = पीछा,

कहने को नई बात कोई हो तो सुनाएं
सौ बार ज़माने ने सुनी है ये कहानी

किस तरह मुझे होता गुमां तर्के-वफ़ा का
आवाज़ में ठहराव था, लहजे में रवानी
गुमां = अंदाजा

अब मैं उसे कातिल कहूं 'अमजद' कि मसीहा
क्या जख्मे-हुनर छोड़ गया अपनी निशानी


---अमजद इस्लाम  'अमजद'

Sunday, May 20, 2012

बोझिल आहें देती हैं दुहाई...............दीप्ति शर्मा

अथाह मन की गहराई
और मन में उठी वो बातें
हर तरफ है सन्नाटा
और ख़ामोश लफ़्ज़ों में
कही मेरी कोई बात
किसी ने भी समझ नहीं पायी
कानों में गूँज रही उस
इक अजीब सी आवाज़ से
तू हो गयी है कितनी पराई ।

अब शहनाई की वो गूँज
देती है हर वक्त सुनाई
तभी तो दुल्हन बनी तेरी
वो धुँधली परछाईं
अब हर जगह मुझे
देने लगी है दिखाई
कानों में गूँज रही उस
इक अजीब सी आवाज़ से
तू हो गयी है कितनी पराई ।

पर दिल में इक कसर
उभर कर है आई
इंतज़ार में अब भी तेरे
मेरी ये आँखें हैं पथराई
बाट तकते तेरी अब
बोझिल आहें देती हैं दुहाई
पर तुझे नहीं दी अब तक
मेरी धड़कनें भी सुनाई
कानों में गूँज रही उस
इक अजीब सी आवाज़ से
तू हो गयी है कितनी पराई ।


© दीप्ति शर्मा

Saturday, May 5, 2012

मिज़ाज पत्थर का.......डॉ. मोईनुद्दीन ‘शाहीन’

हर तरफ है रिवाज पत्थर का
रिश्ते-नाते, समाज पत्थर का
 
नाव काग़ज़ की चल न पाई तो
कीजिए काम-काज पत्थर का
पूछते हैं तबीब आ आकर
रोज़ हमसे इलाज पत्थर का
 
आज फूलों की हुक्मरानी है
कल जहां पर था राज पत्थर का
 
ख़ून से लाल हो गई धरती
देखिए एहतेजाज पत्थर का
 
बादशाहे-ज़मां ने बिलआखि़र
रख लिया सर पे ताज पत्थर का
 
हम ना कहते थे होशियार रहो
अब चुकाओ खि़राज पत्थर का
 
मोम जैसी सिफ़ात वाले भी
काम करते हैं आज पत्थर का
 
पानी-पानी में हो गया ‘शाही’
जूं ही बदला मिज़ाज पत्थर का

-----डॉ. मोईनुद्दीन ‘शाहीन’
https://www.facebook.com/www.naighazal.in
प्रस्तुतिः अमितेश जैन