Wednesday, October 22, 2014

उम्मीदों के शहर में............जितेन्द्र "सुकुमार"

 


उम्मीदें लेकर आया था, ना उम्मीदों के शहर में
मौत ने पीछा किया बहोत, ज़िन्दगी के शहर में

सारे लोग परोशां मायूस थे, न जाने क्यों
बड़ा अजीब हो रहा था, खुशी के शहर में

दुश्मनों की मुहब्बत, दोस्तों का सितम था
ये भी देखना पड़ा, हमें दोस्ती के शहर में

अश्कों ने रुलाया, ख़्वाबों ने जगाया बहुत
उस रोज हंसी भूल गया, हंसी के शहर में

ये सन्नाटे बहुत शोर करते थे, वक्त बेवक्त
मैं चैन से सो नहीं पाया, खामोशी के शहर में

दिल को पत्थर बना के रखेगा तो जी लेगा
ए-दिल मत धड़कना, दिल्लगी के शहर में

-जितेन्द्र "सुकुमार"  

चौबे बांधा, राजिम, छत्तीसगढ़

प्राप्ति स्रोत : रविवारीय नवभारत


Tuesday, October 21, 2014

अक्स तुम्हारा............राजेन्द्र जोशी





 










मैं उस रात
तम्हारे इन्तजार में
घर की छत पर
आधे चाँद को देखता रहा
तुम्हारी तलाश में
देखता रहा
उस आधे में भी
पूरा अक्स तुम्हारा..


-राजेन्द्र जोशी


.... हेल्थ, पत्रिका से





Monday, October 20, 2014

हम ऐसी भी इक हार संभाले हुए हैं..........नवनीत शर्मा

 


 मुस्‍कराहट को जो रुख़सार संभाले हुए हैं
दिल में लगता है कि आज़ार संभाले हुए हैं

दिल के खण्डरात के सब्ज़े में हैं इतनी यादें
कितना कुछ हम भी न बेकार संभाले हुए हैं

धूप, बरसात, हवाओं से बचाती है हमें
हम तेरी याद की दीवार संभाले हुए हैं

क्‍यों भला ग़ैर लगायेगा निशाना मुझपर
काम ये मेरे तरफ़दार संभाले हुए हैं

उठ गये लोग थियेटर हुआ ख़ाली लेकिन
आप अब तक वही किरदार संभाले हुए हैं

बाद जिसके न कोई जीत हमें जीत सकी
ख़ुद में हम ऐसी भी इक हार संभाले हुए हैं

आप अख़लाक़ के पहलू को भी देखें साहब
इससे क्‍या होगा कि दस्‍तार संभाले हुए हैं

मुल्‍क की, कौ़म की क्‍या बात करूं मैं इनसे
ये भले लोग तो घर-बार संभाले हुए हैं

रेगज़ारों की कोई बात न कुछ छालों की
"आप ज़ंजीर की झंकार संभाले हुए हैं"

तीरगी हमको है
"नवनीत" ज़िया से बेहतर
रोशनी, सुनते हैं बाज़ार संभाले हुए हैं

नवनीत शर्मा 09418040160

http://wp.me/p2hxFs-1Pi

Friday, October 17, 2014

अंदाज......................राजेन्द्र जोशी



















किया था एक समझौता
तुम्हारे साथ
नजदीक रहने भर का
तुम्हीं से
लेकिन तुम ते
समेट ले गई मुझे ही
आहिस्ता से
हंसती हुई बाहों में
अकेली,
अलहदा अंदाज में
मेरा गहरी सोच के बिना
मेरे रक्त के समंदर में
तैरने लगी
मेरी हर इच्छा
पूरी करती हुई
मछली की तरह।


-राजेन्द्र जोशी
.... हेल्थ, पत्रिका से




Wednesday, October 15, 2014

तन्हा यहाँ हर शहर हुआ.............जितेन्द्र 'सुकुमार'

 

गाँव हुआ न मेरा शहर हुआ
क्‍यूं हर शय बेखबर हुआ

महफिल हो न सकी हमारी
अपना तो बस ये दोपहर हुआ

मुसाफिर की तरह चल रहें
चलना इधर - उधर हुआ

आफ़ताबे तब्जूम कैसे करे
खामोश हर सफर हुआ

मंजिल की तलाश रही पर
न बसेरा, न कोई घर हुआ

भीड़ ही दिखायी देती रही मुझे
तन्हा यहाँ हर शहर हुआ

-जितेन्द्र 'सुकुमार' 
' उदय आशियाना ' चौबेबांधा 
राजिम जिला- गरियाबंद, (छग.) - 493 885 

प्राप्ति स्रोत : विचार वीथी

 

उसकी लम्बी उम्र का दिया....हरकीरत हीर

 












वह फिर जलाती है
दिल के फ़ासलों के दरम्यां
उसकी लम्बी उम्र का दिया....

कुछ खूबसूरती के मीठे शब्द
निकालती है झोली से
टांक लेती है माथे पे,
कलाइयों पे, बदन पे...
घर के हर हिस्सों को
करीने से सजाती है
फिर.....गौर से देखती है
शायद कोई और जगह मिल जाए
जहाँ बीज सके कुछ मोहब्बत के
फूल
पर सोफे की गर्द में
सारे हर्फ बिखर जाते हैं
झनझना कर फेंके गए लफ़्जों में
दिया डगमगाने लगता है
हवा दर्द और अपमान से
काँपने लगती है
आसमां फिर
दो टुकड़ों में बंट जाता है...

वह जला देती है सारे ख़्वाब
रोटी के साथ जलते तवे पर
छौंक देती है सारे ज़ज़्बात
कढ़ाई के गर्म तेल में
मोहब्बत जब दरवाजे पे
दस्तक देती है
वह चढ़ा देती है सांकल...

दिन भर की कशमकश के बाद
रात जब कमरे में कदम रखती है
वह बिस्तर पर औंधी पड़ी
मन की तहों को
कुरेदने लगती है.....

बहुत गहरे में छिपी
इक पुरानी तस्वीर
उभर कर सामने आती है
वह उसे बड़े जतन से
झाड़ती है, पोंछती है
धीरे-धीरे नक्श उभरते हैं
रोमानियत के कई हंसी पल
बदन में सांस लेने लगते हैं...

वह धीमे से..
रख देती है अपने तप्त होंठ
उसके लबों पे और कहती है
आज करवा चौथ है जान
खिड़की से झांकता चौथ ता चाँद
हौले-हौले मुस्कुराने लगता है......!!
-हरकीरत हीर
......सुरुचि से

Tuesday, October 14, 2014

दुआओं में असर भी न मिला..........आले अहमद सरूर



वो जिएँ क्या जिन्हें जीने का हुनर भी न मिला
दश्त में ख़ाक उड़ाते रहे घर भी न मिला

ख़स ओ ख़ाशाक से निस्बत थी तो होना था यही
ढूँढने निकले थे शोले को शरर भी न मिला

न पुरानों से निभी और न नए साथ चले
दिल उधर भी न मिला और इधर भी न मिला

धूप सी धूप में इक उम्र कटी है अपनी
दश्त ऐसा के जहाँ कोई शजर भी न मिला

कोई दोनों में कहीं रब्त निहाँ है शायद
बुत-कदा छूटा तो अल्लाह का घर भी न मिला

हाथ उट्ठे थे क़दम फिर भी बढ़ाया न गया
क्या तअज्जुब जो दुआओं में असर भी न मिला

बज़्म की बज़्म हुई रात के जादू का शिकार
कोई दिल-दादा-ए-अफ़सून-ए-सहर भी न मिला.



 दश्त : मरुस्थल, ख़ाशाक : सूखी घांस  , निस्बत : नाता  ,शरर चमक,  शजर: पेड़, रब्त: रिश्ता,  निहाँ: छिपा,  तअज्जुब: आश्चर्य, बज़्म: सभा ,


 आले अहमद सरूर
जन्म : 09 सितम्बर 1911,बदायूं उ.प्र.
मृत्यु : 08 फरवरी 2002, दिल्ली




 

Tuesday, October 7, 2014

खनकता फिर भी रहेगा..............मृदुल पंडित











आदमी और सिक्के में
कोई अन्तर नहीं
एक पैसे का हो
या रुपए भर का
सिक्के के मानिन्द झुकता है
दुआ-सलाम के लिए
और गिर जाता है
औंधे मुंह.
सिक्का ही होता है
हथियार उसके लिए
कभी हेड, कभी टेल
दोनों में वह तलाश लेता है
अपना स्वार्थ.
सिक्के की तरह
चाल-चलन में रमते हुए
आदमी हो जाता है
खुद खोटा सिक्का
वह उलटा गिरे या सीधा
खनकता फिर भी रहेगा

-मृदुल पंडित
... पत्रिका से

Sunday, October 5, 2014

अब क़ातिल ख़ुद ही मसीहा है.........मलिकज़ादा 'मंजूर'



मामूल पर साहिल रहता है फ़ितरत पे समंदर होता है
तूफ़ाँ जो डुबो दे कश्‍ती को कश्‍ती ही के अंदर होता है

जो फ़स्ल-ए-ख़िजाँ में काँटों पर रक़्साँ व ग़ज़ल-ख़्वाँ गुज़रे थे
वो मौसम-ए-गुल में भूल गए फूलों में भी ख़ंजर होता है

हर शाम चराग़ाँ होता है अश्‍कों से हमारी पलकों पर
हर सुब्ह हमारी बस्ती में जलता हुआ मंज़र होता है

अब देख के अपनी सूरत को इक चोट सी दिल पर लगती है
गुज़रे हुए लम्हे कहते हैं आईना भी पत्थर होता है

इस शहर-ए-सितम में पहले तो ‘मंजूर’ बहुत से क़ातिल थे
अब क़ातिल ख़ुद ही मसीहा है ये ज़िक्र बराबर होता है

-मलिकज़ादा 'मंजूर'

डॉ. मालिकजादा मंजूर अहमद

जन्मः 17 अक्टूबर 1929 भिदनूपुर

....रसरंग से



Saturday, October 4, 2014

ताने..............पवन करण





 






जिसे मैंनें अधूरा रख दिया पढ़कर
मैं उस किताब के पन्ने पलटता हूँ
मुझे उसमें तुम्हारा दिया एक ताना रखा मिलता है
मेरी सभी किताबों का यही हाल है
तुम्हारे दिये तानों से भरी है वे.

मैंनें जिसे पहना नहीं कई दिनों से
उस शर्ट को अलमारी से निकालता हूँ
देखता हूँ कि उसकी जेब में तुम्हारा दिया
एक ताना मुस्करा रहा है
पहनने के जितने कपड़े मेरे पास
उनकी एक भी जेब ऐसी नहीं
जिसमें तुम्हारा दिया ताना मौजूद न हो.

तुझसे बहुत दूर जाकर भी देख लिया
तुम्हारे तानों में कभी एक भी नही हुआ कम
जहां रुका मैं तुमसे दूर उस कमरे
या फिर यात्रा में बस या सीट पर ट्रेन की
एक भी नहीं छूटा कभी.

तुमसे प्रेम करना आसान नहीं रहा
तुम्हारे साथ-साथ तुम्हारे तानों से भी
करना पड़ा मुझे बराबर प्रेम.

-पवन करण

pawankaran64@gmail.com

जन्म : 18 जून, 1964, ग्वालियर मध्यप्रदेश

......रसरंग से

Friday, October 3, 2014

साठ बरस........ केदारनाथ सिंह

 













पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है मां
हालांकि वह खुद एक
करघा है
जिस पर साठ बरस बुने
गए हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और
खुरदरे
साठ बरस

-केदारनाथ सिंह
.... नायिका से


Thursday, October 2, 2014

भरोसा.............पवन करण
















भरोसा
अब भी मौजूद है दुनिया में
नमक की तरह

अब भी

पेड़ों के भरोसे पक्षी
सब कुछ छेड़ जाते हैं

बसंत के भरोसे वृक्ष
बिलकुल रीत जाते हैं

पतवारों के भरोसे नांव
संकट लांघ जाती है

बरसात के भरोसे बीज
धरती में समा जाते हैं

अनजान पुरुष के पीछे
सदा के लिये स्त्री चल देती है

-पवन करण
जन्मः 18 जून,1964
ग्वालियर म.प्र.