Tuesday, December 30, 2014

नया साल......आफताब बेगम














साल 2015 की
पहली सुबह की
पहली किरण
हमारे दरवाजे पर
दस्तक देने को
बेकरार है
और....हम भी
इसके स्वागत में
पूरे जोश के साथ
तैय्यार हैं
पर क्या सिर्फ
ज़श्न मना लेना और
मस्ती में झूम लेना ही
इन नए पलों का स्वागत है ?
शायद नहीं.
साल दर साल
हम यही तो करते आ रहे हैं,
इस बार कुछ ऐसा करते हैं
कि इस साल का हर पल
ज़िन्दामिसाल बन जाए.
अमन की राह पर चलें.
कुछ इस तरह जियें
और जीने दें कि
आने वाला साल
खुद प्यार की सौगात बन जाए.


-आफ़ताब बेगम
कलमकार....नवभारत

Monday, December 22, 2014

‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’ ......................अटल बिहारी वाजपेयी













कर्तव्य के पुनीत पथ को
हमने स्वेद से सींचा है,
कभी-कभी अपने अश्रु और—
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है।

किंतु, अपनी ध्येय-यात्रा में—
हम कभी रुके नहीं हैं।
किसी चुनौती के सम्मुख
कभी झुके नहीं हैं।

आज,
जब कि राष्ट्र-जीवन की
समस्त निधियाँ,
दाँव पर लगी हैं,
और,
एक घनीभूत अंधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
निगल लेना चाहता है;

हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है।

आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें :
‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’ 


-अटल बिहारी वाजपेयी


 प्राप्ति स्रोतः रसरंग

माननीय अटल बिहारी वाजपेयी
(पूर्व प्रधान मंत्री, कवि) 

जन्मः 25 दिसम्बर 1926
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
प्रमुख कृतियाँ
मेरी इंक्यावन कविताएँ, न दैन्यं न पलायनम्, 
मृत्यु और हत्या, अमर बलिदान.
भाषाः हिन्दी 


Saturday, December 13, 2014

आख़िर जो भी होना होगा..............'मीराजी'



हंसो तो साथ हंसेगी दुनिया बैठे अकेले रोना होगा
चुपके-चुपके बहा कर आंसू दिल के दुख को धोना होगा ।

बैरन रात बड़ी दुनिया की आंख से जो भी टपका मोती
पलकों से ही उठाना होगा पलकों ही से पिरोना होगा ।

खोने और पाने का जीवन नाम रखा है हर कोई जाने
उस का भेद कोई न देखा क्या पाना, क्या खोना होगा ।

बिन चाहे, बिन बोले पल में टूट-फूट कर फिर बन जाए
बालक सोच रहा है अब भी ऐसा कोई खिलौना होगा ।

प्यारों से मिल जाए प्यारे अनहोनी कब होगी
कांटे फूल बनेंगे कैसे,कब सुख सेज बिछौना होगा ।

बहते-बहते काम न आए लाख भंवर तूफानी-सागर
अब मंझधार में अपने हाथों जीवन नाव डुबोना होगा ।

जो भी दिल ने भूल से चाहा भूल में जाना हो के रहेगा
सोच-सोच कर हुआ न कुछ भी आओ अब तो खोना होगा ।

क्यूं जीते-जी हिम्मत हारें क्यूं फ़रियादें क्यूं ये पुकारे
होते-होते हो जाएगा आख़िर जो भी होना होगा

'मीरा' जी क्यूं सोच सताए पलक-पलक डोरी लहराए
किस्मत जो भी रंग दिखाए अपने दिल में समाना होगा

-मोहम्मद सनाउल्लाह सानी 'मीराजी' 

चित्र प्राप्तः गूगल इमेज


मीराजी (२५ मई १९१२ - ४ नवम्बर १९४९ ) का असली नाम मोहम्मद सनाउल्लाह सानी था। फितरत से आवारा और हद दर्जे के बोहेमियन मीराजी ने यह उपनाम अपने एक असफल प्रेम की नायिका मीरा सेन के गम से प्रेरित हो कर रखा
 

Sunday, December 7, 2014

मुसीबत में......... पंकज चतुर्वेदी



 








अचानक आई बीमारी
दुर्घटना
या ऐसे ही किसी हादसे में
हताहत हुए लोगों को देखने
उनसे मिलने
उनके घर जाओ
या अस्पताल

उन्हें खून दो
और पैसा, यदि दे सको
नही तो जरूरत पड़ने पर कर्ज ही
उनके इलाज में मदद करो
जितनी और जैसी भी
मुमकिन हो या मांगी जाए

तुम भी जब कभी
हालात से मजबूर होकर
दुखों से गुजरोगे
तब तुम्हारा साथ देने
जो आगे आएंगे
वे वही नहीं होंगे
जिनकी तीमारदारी में
तुम हाजिर रहे थे

वे दूसरे ही लोग होंगे
मगर वे भी शायद
इसीलिए आगे आएंगे
कि उनके जैसे लोगों की
मुसीबत में मदद करने
तुम गए थे..

-पंकज चतुर्वेदी
...... तरंग, नई दुनिया

Saturday, December 6, 2014

मील का पत्थर........ दिनेश विजयवर्गीय










कदमों की प्रगति की पहचान है
मील का पत्थर
वह अलसाए कदमों में
जान डालकर
उन्हें कर देता है गतिमय
जल्द मंजिल की ओर
बढ़ने के लिये।

वह केवल पत्थर नहीं
हमारी यात्रा का प्रगति सूचक है
आगे बढ़ते रहने के लिए
प्रोत्साहन भी देता है वह।

जेठ की तपती धूप हो या
पौष की कड़कती ठण्ड या हो
सावन-भादो की वर्षा
वह हर मौसम झेलकर भी
सड़क के किनारे खड़ा रहकर
हमें जोड़े रखता है।
अपनी यात्रा की प्रगति से।

वह करता नहीं कभी
कोई शिकायत
अपने बदरंग करते
वाहनों की
छोड़ी गई कालिख का
उड़ाई गई धूल और
चिंघाड़ती आवाजों का
वह तो सदा एक ही मुद्रा में
चुप-चुप सहता है
अपने भाग्य में आई
प्रतिकूलताओं को।

अपने गुणों के खातिर ही
उसे देश-दुनिया में मिली है
सम्मान से भरी पहचान
मील का पत्थर साबित होने की
वाह...! मील के पत्थर,
तुम्हें जन-जन का सलाम।

-दिनेश विजयवर्गीय
.....पत्रिका से

Friday, December 5, 2014

हवाओं के मुक़ाबिल हूँ......पूजा भाटिया



हवाओं के मुक़ाबिल हूँ
चराग़ों की वो महफ़िल हूँ

ख़ुदा जाने कहाँ हूँ मैं
न बाहर हूँ न शामिल हूँ

मिरे कांधे पे वो बिखरे
हैं मौज इक वो मैं साहिल हूँ

ये चादर, सलवटें, तकिया
बताते हैं, मैं ग़ाफ़िल हूँ

मैं जो चाहे वो पा लूं, पर
अभी ख़ुद ही से ग़ाफ़िल हूँ

यहां सच बेसहारा है
सहारा दूँ? मैं बातिल हूँ

उमीदें तुम से रखती हूँ
कहो तो कितनी जाहिल हूँ

जुआ है ज़िन्दगी जैसे
जो जीते उसको हासिल हूँ

रहे ज़द में जुनूँ जिसके
उसी को फिर मैं हासिल हूँ

पूजा भाटिया 08425848550


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Wednesday, December 3, 2014

क़दम इंसान का राह-ए-दहर...........जोश मलीहाबादी

क़दम इंसान का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है

नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है

ख़िलाफ़-ए-मसलेहत मैं भी समझता हूँ मगर नासेह
वो आते हैं तो चेहरे पर तहय्युर आ ही जाता है

हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बनकर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है

शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसान की
मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है

समझती हैं म'अल-ए-गुल मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है

-जोश मलीहाबादी


   
राह-ए-दहर - जीवन की राह
   
हक़ाइक़-आश्ना - सच्चाई को चाहने वाला
   
हुजूम-ए-कशमकश - मु्श्किलों की भीड़
  
ख़िलाफ़-ए-मसलेहत - समझदारी के उलट
   
तहय्युर - बदलाव
   
ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता - खुशनुमा गुज़रे वक्त का ख्याल
   
म'अल-ए-गुल - नतीज़ा
......मधुरिमा से

Saturday, November 29, 2014

जाने क्यूँ !!!...................सदा

 










शब्दों की चहलकदमी से
आहटें आती रहीं
सन्नाटे को चीरता
एक शोर
कह जाता कितना कुछ
मौन ही !
बिल्कुल वैसे ही
मेरी खामोशियाँ आज भी
तुमसे बाते करती हैं
पर ज़बां ने खा रखा है
चुप्पी का नमक
कुछ भी कहने से
इंकार है इसे
जाने क्यूँ !!! 

-सदा
......फेसबुक से

अबला नहीं ये है सबला.........जयश्री कुदाल





यूं तो आई तूफान-सी बाधाएं
आई सुनामी-सी मुश्किलें

तोड़ने को मेरे सपनों का घरौंदा

पर मैं न हारी न टूटी

न मैं किस्मत से रूठी


न मैं रोई न बेबस हुई

न छोड़ी मैंनें लेका-सच्चाई

अब बस आगे बढ़ना है

न हारना है न रुकना है

क्यूंकि जब मैंनें हिम्मत करी
मेरे सपनों ने उड़ान भरी..

-जयश्री कुदाल..

.............पत्रिका से



इस कविता को पढ़कर ऐसा लगा कि ये नई कलम है
आपकी राय इनको प्रोत्साहित करेगी.....सादर





Friday, November 28, 2014

मैं अनाथ हूँ तो क्या.........वन्दना गुप्ता

 












मैं अनाथ हूँ तो क्या
मुझे न मिलेगा प्यार कभी
किसी की आँख का तारा कभी
क्या कभी बन पाऊँगा
किसी के घर के आँगन में
फूल बनकर महकूंगा कभी

ओ दुनिया वालों
मैं भी तो इक बच्चा हूँ
माना कि तुम्हारा खून नहीं हूँ
न ही संस्कार तुम्हारे हैं
फिर भी हर बाल सुलभ
चेष्टाएं हैं तो मेरी भी वही
क्या संस्कार ही बच्चे को
माँ की गोद दिलाते हैं
क्या खून ही बच्चे को
पिता का नाम दिलाता है
क्या हर रिश्ता केवल
खून और संस्कार बनाता है

तुम तो सभ्य समाज के
सभ्य इंसान हो
फिर क्यूं नही
मेरी पीड़ा समझ पाते हो
मैं भी तरसता हूँ
माँ की लोरी सुनने को
मैं भी मचलना चाहता हूँ
पिता की उँगली पकड़
मैं भी चलना चाहता हूँ

क्या दूसरे का बच्चा हूँ
इसीलिए मैं बच्चा नहीं
यदि खून की बात है तो
ईश्वर ने तो न फर्क किया
फिर क्यूँ तुम फर्क दिखाते हो
लाल रंग है लहू का मेरे भी
फिर भी मुझे न अपनाते हो
अगर
खून और संस्कार तुम्हारे हैं
फिर क्यूँ आतंकियों का बोलबाला है

हर ओर देश में देखो
आतंक का ही साम्राज्य
है
अब कहो दुनिया के कर्णधारों
क्या वो खून तुम्हारा अपना नहीं

एक बार मेरी ओर निहारो तो सही
मुझे अपना बनाओ तो सही
फिर देखना तुम्हारी परवरिश से
ये फूल भी खिल जाएगा
तुम्हारे ही संस्कारों से
दुनिया को जन्नत बनाएगा
बस इक बार
हाथ बढ़ाओ तो सही
हाथ बढ़ाओ तो सही


-वन्दना गुप्ता
.....सुरुचि, नवभारत से


प्रेम और स्पर्श..............अमिता प्रजापति





प्रेम और स्पर्श
मेरे दो बच्चे हैं
स्पर्श कुछ अधिक चंचल है
दौड़ता है दूर-दूर तक
पूछ-पूछ कर
परेशान रखता है

दूसरा- प्रेम, जरा
गम्भीर है
बहुत संकट में ही मां
पुकारता
है
और अधिकतर समय
खुद ही अपनी
मां बना रहता है।

-अमि
ता प्रजापति

...... नायिका से

Thursday, November 27, 2014

आग ठंडी हुई इक ज़माने के बाद..........खुमार बाराबंकवी




वो सवा याद आये भुलाने के बाद
जिंदगी बढ़ गई ज़हर खाने के बाद

दिल सुलगता रहा आशियाने के बाद
आग ठंडी हुई इक ज़माने के बाद

रौशनी के लिए घर जलाना पडा
कैसी ज़ुल्मत बढ़ी तेरे जाने के बाद

जब न कुछ बन पड़ा अर्जे-ग़म का जबाब
वो खफ़ा हो गए मुस्कुराने के बाद

दुश्मनों से पशेमान होना पड़ा है
दोस्तों का खुलूस आज़माने के बाद

बख़्श दे या रब अहले-हवस को बहिश्त
मुझ को क्या चाहिए तुम को पाने के बाद

कैसे-कैसे गिले याद आए "खुमार"
उन के आने से क़ब्ल उन के जाने के बाद

-खुमार बाराबंकवी

Wednesday, November 26, 2014

सब जीवन बीत जाता है....जयशंकर प्रसाद

 









सब जीवन बीत जाता है
धूप छांह को खेल सदृश
सब जीवन बीत जाता है

समय भागता प्रतिक्षण में
नव-अतीत के तुषार कण में
हमें लगाकर भविष्य-रण में
आप कहां छिप जाता है
सब जीवन बीत जाता है

बुल्ले, नहर, हवा के झोंके
मेघ और बिजली के टोंके
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीत जाता है

वंशी को बज जाने दो
मीठी मीड़ों को आने दो
आंख बंद करके गाने दै
जो कुछ हमको आता है

सब जीवन बीत जाता है

-जयशंकर प्रसाद
....मधुरिमा से

Tuesday, November 25, 2014

पाँच क्षणिकाएँ............. डॉ. रमा द्विवेदी

















1. अनुभूति बोध

सदियाँ गुज़र जाती हैं
अनुभूति का बोध उगने के लिए
शताब्दियाँ गुज़र जाती हैं
अनुभूति को पगने के लिए
अनुभूति माँगती है दिल की सच्चाई
सच्चाई में तप कर खरा उतरना
बहुत दुर्लभ प्रक्रिया है
क्षण-क्षण बदलते मन के भाव
अनुभूति की नींव
बारम्बार हिला देते हैं।

2. अहसास

अलग होकर भी
हम अलग कब होते हैं ?
हमारे बीच हमेशा
पसरा रहता है
एक साथ गुज़ारे
हर लम्हे का अहसास।

3. अलगाव

रिश्तों में
भौतिक रूप से
अलगाव हो सकता है, पर
दिल में कोमल भाव
फूलों-सा महकते भी हैं
और त्रासद पल
नासूर की तरह
दहकते भी हैं।

4. ज़िन्दगी की मंज़िल

ज़िन्दगी की मंज़िलों के
रास्ते हैं अनगिनत,
शर्त है कि रास्ते,
ख़ुद ही तलाशने पड़ते हैं।

5. एक ही सूरज

एक ही सूरज यहाँ भी,
एक ही सूरज वहाँ भी,
पर, एक साथ हर जगह,
सुबह नहीं होती।

- डॉ. रमा द्विवेदी

Wednesday, November 19, 2014

छोटी सी मुलाकात काफी है...............जितेन्द्र "सुकुमार"


सोचने के लिए इक रात काफी है
जीने, चंद शाद-ए-हयात काफी है

यारो उनके दीदार के लिए देखना
बस इक छोटी सी मुलाकात काफी है

उनकी उलझन की शक्‍ल क्या है
कहने के लिए जज्‍ब़ात काफी है

बदलते इंसान की नियति में
यहॉ छोटा सा हालात काफी है

न दिखाओं आसमां अपना दिल
तुम्हारे अश्कों की बरसात काफी है

खुद को छुपाने के लिए 'सुकुमार'
चश्म की कायनात काफी है

-जितेन्द्र "सुकुमार"


' उदय आशियाना ' चौबेबांधा राजिम जिला- गरियाबंद, (छग.) - 493 885

Tuesday, November 18, 2014

भाषा..............सुधीर कुमार सोनी




 








मजबूरी
भाषा बदल देती है
अभिमान
बहुत सी परिभाषा बदल देते हैं.... 


-सुधीर कुमार सोनी

Friday, November 7, 2014

नजर आता नहीं इंसान बाबा...........चाँद शेरी



नहीं तू इस कदर धनवान बाबा
खरीदे जो मेरा ईमान बाबा

न तू बन इस कदर शैतान बाबा
कि हो सब बस्तियां वीरान बाबा

ये छोड़ अब मंदिर-मस्ज़िद के झगड़े
अरे छेड़ एकता की शान बाबा

न बांट इनको ज़बानों-मज़हबों में
सभी भारत की है संतान बाबा

गरीबों को मिले दो वक़्त की रोटी
कोई तो इतना रखे ध्यान बाबा

मुखौटे ही मुखौटे हर तरफ हैं
नजर आता नहीं इंसान बाबा

नई कुछ बात कह शेरों में 'शेरी'
गजल को दे नया उनवान बाबा

-चाँद शेरी

... पत्रिका से

Thursday, November 6, 2014

मधुर स्मृतियां..............डॉ. सुरेन्द्र मीणा














 
बवण्डर उठ गया यादों का,
वक़्त के फ़ासलों से धरती पर
अंकुरित होते अतीत के बीज
और हरियाली के साथ लहलहातीं
मधुर स्मृतियां चादर फैला रही है
होठों पर मुस्कुराहट की...
बहने लगी बयार फिर से आज,
शांत दरिया में लहरें फिर से उठने लगी हैं
हिलोरे लेने लगती है
यादों के कंकड़ गिरते ही....।

-डॉ. सुरेन्द्र मीणा

... मधुरिमा से

Wednesday, October 22, 2014

उम्मीदों के शहर में............जितेन्द्र "सुकुमार"

 


उम्मीदें लेकर आया था, ना उम्मीदों के शहर में
मौत ने पीछा किया बहोत, ज़िन्दगी के शहर में

सारे लोग परोशां मायूस थे, न जाने क्यों
बड़ा अजीब हो रहा था, खुशी के शहर में

दुश्मनों की मुहब्बत, दोस्तों का सितम था
ये भी देखना पड़ा, हमें दोस्ती के शहर में

अश्कों ने रुलाया, ख़्वाबों ने जगाया बहुत
उस रोज हंसी भूल गया, हंसी के शहर में

ये सन्नाटे बहुत शोर करते थे, वक्त बेवक्त
मैं चैन से सो नहीं पाया, खामोशी के शहर में

दिल को पत्थर बना के रखेगा तो जी लेगा
ए-दिल मत धड़कना, दिल्लगी के शहर में

-जितेन्द्र "सुकुमार"  

चौबे बांधा, राजिम, छत्तीसगढ़

प्राप्ति स्रोत : रविवारीय नवभारत


Tuesday, October 21, 2014

अक्स तुम्हारा............राजेन्द्र जोशी





 










मैं उस रात
तम्हारे इन्तजार में
घर की छत पर
आधे चाँद को देखता रहा
तुम्हारी तलाश में
देखता रहा
उस आधे में भी
पूरा अक्स तुम्हारा..


-राजेन्द्र जोशी


.... हेल्थ, पत्रिका से





Monday, October 20, 2014

हम ऐसी भी इक हार संभाले हुए हैं..........नवनीत शर्मा

 


 मुस्‍कराहट को जो रुख़सार संभाले हुए हैं
दिल में लगता है कि आज़ार संभाले हुए हैं

दिल के खण्डरात के सब्ज़े में हैं इतनी यादें
कितना कुछ हम भी न बेकार संभाले हुए हैं

धूप, बरसात, हवाओं से बचाती है हमें
हम तेरी याद की दीवार संभाले हुए हैं

क्‍यों भला ग़ैर लगायेगा निशाना मुझपर
काम ये मेरे तरफ़दार संभाले हुए हैं

उठ गये लोग थियेटर हुआ ख़ाली लेकिन
आप अब तक वही किरदार संभाले हुए हैं

बाद जिसके न कोई जीत हमें जीत सकी
ख़ुद में हम ऐसी भी इक हार संभाले हुए हैं

आप अख़लाक़ के पहलू को भी देखें साहब
इससे क्‍या होगा कि दस्‍तार संभाले हुए हैं

मुल्‍क की, कौ़म की क्‍या बात करूं मैं इनसे
ये भले लोग तो घर-बार संभाले हुए हैं

रेगज़ारों की कोई बात न कुछ छालों की
"आप ज़ंजीर की झंकार संभाले हुए हैं"

तीरगी हमको है
"नवनीत" ज़िया से बेहतर
रोशनी, सुनते हैं बाज़ार संभाले हुए हैं

नवनीत शर्मा 09418040160

http://wp.me/p2hxFs-1Pi

Friday, October 17, 2014

अंदाज......................राजेन्द्र जोशी



















किया था एक समझौता
तुम्हारे साथ
नजदीक रहने भर का
तुम्हीं से
लेकिन तुम ते
समेट ले गई मुझे ही
आहिस्ता से
हंसती हुई बाहों में
अकेली,
अलहदा अंदाज में
मेरा गहरी सोच के बिना
मेरे रक्त के समंदर में
तैरने लगी
मेरी हर इच्छा
पूरी करती हुई
मछली की तरह।


-राजेन्द्र जोशी
.... हेल्थ, पत्रिका से




Wednesday, October 15, 2014

तन्हा यहाँ हर शहर हुआ.............जितेन्द्र 'सुकुमार'

 

गाँव हुआ न मेरा शहर हुआ
क्‍यूं हर शय बेखबर हुआ

महफिल हो न सकी हमारी
अपना तो बस ये दोपहर हुआ

मुसाफिर की तरह चल रहें
चलना इधर - उधर हुआ

आफ़ताबे तब्जूम कैसे करे
खामोश हर सफर हुआ

मंजिल की तलाश रही पर
न बसेरा, न कोई घर हुआ

भीड़ ही दिखायी देती रही मुझे
तन्हा यहाँ हर शहर हुआ

-जितेन्द्र 'सुकुमार' 
' उदय आशियाना ' चौबेबांधा 
राजिम जिला- गरियाबंद, (छग.) - 493 885 

प्राप्ति स्रोत : विचार वीथी

 

उसकी लम्बी उम्र का दिया....हरकीरत हीर

 












वह फिर जलाती है
दिल के फ़ासलों के दरम्यां
उसकी लम्बी उम्र का दिया....

कुछ खूबसूरती के मीठे शब्द
निकालती है झोली से
टांक लेती है माथे पे,
कलाइयों पे, बदन पे...
घर के हर हिस्सों को
करीने से सजाती है
फिर.....गौर से देखती है
शायद कोई और जगह मिल जाए
जहाँ बीज सके कुछ मोहब्बत के
फूल
पर सोफे की गर्द में
सारे हर्फ बिखर जाते हैं
झनझना कर फेंके गए लफ़्जों में
दिया डगमगाने लगता है
हवा दर्द और अपमान से
काँपने लगती है
आसमां फिर
दो टुकड़ों में बंट जाता है...

वह जला देती है सारे ख़्वाब
रोटी के साथ जलते तवे पर
छौंक देती है सारे ज़ज़्बात
कढ़ाई के गर्म तेल में
मोहब्बत जब दरवाजे पे
दस्तक देती है
वह चढ़ा देती है सांकल...

दिन भर की कशमकश के बाद
रात जब कमरे में कदम रखती है
वह बिस्तर पर औंधी पड़ी
मन की तहों को
कुरेदने लगती है.....

बहुत गहरे में छिपी
इक पुरानी तस्वीर
उभर कर सामने आती है
वह उसे बड़े जतन से
झाड़ती है, पोंछती है
धीरे-धीरे नक्श उभरते हैं
रोमानियत के कई हंसी पल
बदन में सांस लेने लगते हैं...

वह धीमे से..
रख देती है अपने तप्त होंठ
उसके लबों पे और कहती है
आज करवा चौथ है जान
खिड़की से झांकता चौथ ता चाँद
हौले-हौले मुस्कुराने लगता है......!!
-हरकीरत हीर
......सुरुचि से

Tuesday, October 14, 2014

दुआओं में असर भी न मिला..........आले अहमद सरूर



वो जिएँ क्या जिन्हें जीने का हुनर भी न मिला
दश्त में ख़ाक उड़ाते रहे घर भी न मिला

ख़स ओ ख़ाशाक से निस्बत थी तो होना था यही
ढूँढने निकले थे शोले को शरर भी न मिला

न पुरानों से निभी और न नए साथ चले
दिल उधर भी न मिला और इधर भी न मिला

धूप सी धूप में इक उम्र कटी है अपनी
दश्त ऐसा के जहाँ कोई शजर भी न मिला

कोई दोनों में कहीं रब्त निहाँ है शायद
बुत-कदा छूटा तो अल्लाह का घर भी न मिला

हाथ उट्ठे थे क़दम फिर भी बढ़ाया न गया
क्या तअज्जुब जो दुआओं में असर भी न मिला

बज़्म की बज़्म हुई रात के जादू का शिकार
कोई दिल-दादा-ए-अफ़सून-ए-सहर भी न मिला.



 दश्त : मरुस्थल, ख़ाशाक : सूखी घांस  , निस्बत : नाता  ,शरर चमक,  शजर: पेड़, रब्त: रिश्ता,  निहाँ: छिपा,  तअज्जुब: आश्चर्य, बज़्म: सभा ,


 आले अहमद सरूर
जन्म : 09 सितम्बर 1911,बदायूं उ.प्र.
मृत्यु : 08 फरवरी 2002, दिल्ली




 

Tuesday, October 7, 2014

खनकता फिर भी रहेगा..............मृदुल पंडित











आदमी और सिक्के में
कोई अन्तर नहीं
एक पैसे का हो
या रुपए भर का
सिक्के के मानिन्द झुकता है
दुआ-सलाम के लिए
और गिर जाता है
औंधे मुंह.
सिक्का ही होता है
हथियार उसके लिए
कभी हेड, कभी टेल
दोनों में वह तलाश लेता है
अपना स्वार्थ.
सिक्के की तरह
चाल-चलन में रमते हुए
आदमी हो जाता है
खुद खोटा सिक्का
वह उलटा गिरे या सीधा
खनकता फिर भी रहेगा

-मृदुल पंडित
... पत्रिका से

Sunday, October 5, 2014

अब क़ातिल ख़ुद ही मसीहा है.........मलिकज़ादा 'मंजूर'



मामूल पर साहिल रहता है फ़ितरत पे समंदर होता है
तूफ़ाँ जो डुबो दे कश्‍ती को कश्‍ती ही के अंदर होता है

जो फ़स्ल-ए-ख़िजाँ में काँटों पर रक़्साँ व ग़ज़ल-ख़्वाँ गुज़रे थे
वो मौसम-ए-गुल में भूल गए फूलों में भी ख़ंजर होता है

हर शाम चराग़ाँ होता है अश्‍कों से हमारी पलकों पर
हर सुब्ह हमारी बस्ती में जलता हुआ मंज़र होता है

अब देख के अपनी सूरत को इक चोट सी दिल पर लगती है
गुज़रे हुए लम्हे कहते हैं आईना भी पत्थर होता है

इस शहर-ए-सितम में पहले तो ‘मंजूर’ बहुत से क़ातिल थे
अब क़ातिल ख़ुद ही मसीहा है ये ज़िक्र बराबर होता है

-मलिकज़ादा 'मंजूर'

डॉ. मालिकजादा मंजूर अहमद

जन्मः 17 अक्टूबर 1929 भिदनूपुर

....रसरंग से



Saturday, October 4, 2014

ताने..............पवन करण





 






जिसे मैंनें अधूरा रख दिया पढ़कर
मैं उस किताब के पन्ने पलटता हूँ
मुझे उसमें तुम्हारा दिया एक ताना रखा मिलता है
मेरी सभी किताबों का यही हाल है
तुम्हारे दिये तानों से भरी है वे.

मैंनें जिसे पहना नहीं कई दिनों से
उस शर्ट को अलमारी से निकालता हूँ
देखता हूँ कि उसकी जेब में तुम्हारा दिया
एक ताना मुस्करा रहा है
पहनने के जितने कपड़े मेरे पास
उनकी एक भी जेब ऐसी नहीं
जिसमें तुम्हारा दिया ताना मौजूद न हो.

तुझसे बहुत दूर जाकर भी देख लिया
तुम्हारे तानों में कभी एक भी नही हुआ कम
जहां रुका मैं तुमसे दूर उस कमरे
या फिर यात्रा में बस या सीट पर ट्रेन की
एक भी नहीं छूटा कभी.

तुमसे प्रेम करना आसान नहीं रहा
तुम्हारे साथ-साथ तुम्हारे तानों से भी
करना पड़ा मुझे बराबर प्रेम.

-पवन करण

pawankaran64@gmail.com

जन्म : 18 जून, 1964, ग्वालियर मध्यप्रदेश

......रसरंग से

Friday, October 3, 2014

साठ बरस........ केदारनाथ सिंह

 













पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है मां
हालांकि वह खुद एक
करघा है
जिस पर साठ बरस बुने
गए हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और
खुरदरे
साठ बरस

-केदारनाथ सिंह
.... नायिका से


Thursday, October 2, 2014

भरोसा.............पवन करण
















भरोसा
अब भी मौजूद है दुनिया में
नमक की तरह

अब भी

पेड़ों के भरोसे पक्षी
सब कुछ छेड़ जाते हैं

बसंत के भरोसे वृक्ष
बिलकुल रीत जाते हैं

पतवारों के भरोसे नांव
संकट लांघ जाती है

बरसात के भरोसे बीज
धरती में समा जाते हैं

अनजान पुरुष के पीछे
सदा के लिये स्त्री चल देती है

-पवन करण
जन्मः 18 जून,1964
ग्वालियर म.प्र.

Tuesday, September 30, 2014

कुएं की तलाश में.............ललिता परमार



 













पूछ रहा था पता
भटक रहा था
मेंढक कुएं की
तलाश में
यहां से वहां
नदी, तालाबों में
सुरक्षित नहीं था
वह कुआं जो आज
किंवदंती वन
गुम हो गया
दे दी अपनी
जगह नलकूपों को
कुआं जहां पहले
राहगीरों की प्यास
के लिये राह में
खड़े रहते थे,
इन्तजार में
किसी प्यासे के लिये
आज उसी कुएं की
तलाश में भटक रहा है
मेंढ़क
बड़े फख्र से कहलाने के
लिए
कुएं का मेंढ़क

-ललिता परमार
....पत्रिका से

Monday, September 29, 2014

अस्तित्व.............अनुप्रिया



 


















तुम उड़ती हो
उड़ जाता है मेरा
मन आकाश की
खुली बाहों में
बेफिक्री से

तुम टूटती हो
टूट जाता है
अस्तित्व
भड़भड़ाकर

तुम प्रेम करती हो
भर जाती हूँ मैं
गमकते फूलों
की क्यारियों से

तुम बनाती हो
अपनी पहचान
लगता है
मैं फिर से जानी
जा रही हूँ

तुम लिखती हो
कविताएं
लगता है
सुलग उठे हैं
मेरे शब्द तुम्हारी
कलम की आंच में


-अनुप्रिया
..... नायिका से

Sunday, September 28, 2014

अहिल्या को नहीं भुगतना पड़ेगा..........यशोदा



















विडम्बना
यही है की
स्वतंत्र भारत में
नारी का
बाजारीकरण किया जा रहा है,

प्रसाधन की गुलामी,
कामुक समप्रेषण
और विज्ञापनों के जरिये
उसका..........
व्यावसायिक उपयोग
किया जा रहा है.

कभी अंग भंगिमाओं से,
कभी स्पर्श से,
कभी योवन से तो
कभी सहवास से
कितने भयंकर परिणाम
विकृतियों के रूप में
सामने आए हैं,

यही नही
अनाचार के बाद
जिन्दा जला देने
जैसी निर्ममता से
किसी की रूह
तक नहीं कांपती

क्यों....क्यों..
आज भी
पुरुषों के लिये
खुले दरवाजे

और....और..
स्त्रियों के लिये
उफ.......
कोई रोशनदान तक नहीं?

मैं कहती हूँ....
स्त्री नारी होती नहीं
बनाई जाती है.

हम सबको
अब यह संकल्प लेना होगा
कि अब और नहीं..
कतई नहीं,
अब किसी इन्द्र के
पाप का दण्ड
अब किसी भी
अहिल्या को
नहीं भुगतना पड़ेगा

मन की उपज
-यशोदा

Saturday, September 27, 2014

जो मेहँदी से कट गयी.........सचिन अग्रवाल


मेहनतकशों की सख्त हथेली से कट गयी
दीवार जो कुंए की थी रस्सी से कट गयी 

क्या ज़ायका है खून का अपने को क्या पता
अपनी तो सूखी रोटी से चटनी से कट गयी 

अंदाजा है तुम्हे कि किसी का थी वो नसीब
हाथों की एक लक़ीर जो मेहँदी से कट गयी

तन्हाई,जख्म माज़ी के और कोई धुंधली याद
एक सर्द रात गीली अंगीठी से कट गयी

मर्ज़ी से अपनी मरने का मौका भी कब मिला
और ज़िन्दगी भी औरों की मर्ज़ी से कट गयी

( नए मरासिम में प्रकाशित)

-सचिन अग्रवाल

Friday, September 26, 2014

तेरे बगैर.............निकेत मलिक



उम्रेदराज़ काट रहा हूँ तेरे बगैर
गुलों से खार छांट रहा हूँ तेरे बगैर

हंसने को जी करे है न, रोने को जी करे
मुर्दा शबाब काट रहा हूँ तेरे बगैर

क्या जुर्म किया था जो, हिज़्र की सजा मिली
नाकरदा गुनाह को छांट रहा हूँ तेरे बगैर

ज़ख़्मों को सी लिया है, होंठों को सी लिया,
फिर भी खुद को डांट रहा हूँ तेरे बगैर

चंद लम्हें फुरसत के अब नसीब हुए हैं
गैरों के बीच बांट रहा हूँ तेरे बगैर

-निकेत मलिक
.....परिवार, पत्रिका

Thursday, September 25, 2014

कैसा-कैसा दर्द रिसता है..........यशोदा

 











विचित्र है..
और सत्य भी तो है,
कि हजारों वर्ष के
इतिहास नें कभी भी,
किसी ने भी
नारी की आर्थिक स्थिति की
ओर ध्यान ही नहीं दिया

और .......
इसी के चलते
देश की बेटियां,
बहनें और माताओं को
इसी अर्थव्यवस्था
के चलते समाज में
हीन भावनाओं और
दासत्व से ग्रषित ही रही.

दासप्रथा के मूल में
नारी के प्रति
असहिष्णुता ही है
और यह
सामाजिक सोच है
जो स्त्रियों और पुरुषों को
अलग अलग नियमों के
खाकों में जकड़ देती है
और पुरुष कभी
देख और सुन ही नहीं पाता

और..........
वहीं स्त्री भीतर
कितना और
कैसा-कैसा दर्द रिसता है,
इसकी भावनात्मक वेदना
तो दूर मानवता के नाते
गहरी संवेदना भी
नहीं उपजती
जो की.....
उपजनी चाहिये

मन की उपज
-यशोदा