Thursday, October 24, 2013

कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया.............मोहम्मद शेख इब्राहिम ‘ज़ौक़’


उसे हमने बहुत ढूंढा न पाया
अगर पाया तो खोज अपना न पाया

जिस इन्सां को सगे-दुनिया न पाया
फ़रिश्ता उसका हमपाया न पाया

मुक़द्दर से ही गर सूदो-ज़िया है
तो हमने यां न कुछ खोया न पाया

अहाते से फ़लक के हम तो कब के
निकल जाते मगर रस्ता न पाया

जहां देखा किसी के साथ देखा
कहीं हमने तुझे तन्हा न पाया

किये हमने सलामे-इश्क तुझको!
कि अपना हौसला इतना न पाया

न मारा तूने पूरा हाथ क़ातिल!
सितम में भी तुझे पूरा न पाया

लहद में भी तेरे मुज़तर ने आराम
ख़ुदा जाने कि पाया या न पाया

कहे क्या हाय ज़ख्में-दिल हमारा
ज़ेहन पाया लबे-गोया न पाया
...............
हमपायाः बराबर का, सूदो-ज़ियाः लाभ-हानि
लहदः कब्र, मुज़तरः प्रेम-रोगी, लबे-गोयाः वाक शक्ति

-श़ायर ज़नाब मोहम्मद शेख इब्राहिम ‘ज़ौक़’
सौजन्यः रसरंग, दैनिक भास्कर, 20 अक्टूबर, 2013

Wednesday, October 23, 2013

चांदी-सा पानी सोना हो जाता है..............आलोक मिश्रा


तन्हा रह कर हासिल क्या हो जाता है
बस, ख़ुद से मिलना-जुलना हो जाता है

नींद को बेदारी का बोसा मिलते ही
हरा-भरा सपना पीला हो जाता है

अक्स उभरता है इक पहले आँखों में
फिर सारा मंज़र धुँधला हो जाता है

नाचने लगती हैं जब किरनों की परियाँ
चांदी-सा पानी सोना हो जाता है

…तो पलकों से ओस टपकने लगती है
शाम का सुरमा जब तीखा हो जाता है

चुभने लगता है सूरज की आँख में जो
वो दरिया इक दिन सहरा हो जाता है

अब तो ये नुस्ख़ा भी काम नहीं करता-
रो लेने से जी हल्का हो जाता है

दीवारों से बातें करने लगता हूँ
बैठे-बैठे मुझको क्या हो जाता है

ठीक कहा था उस मस्ताने जोगी ने
“ धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है “

आलोक मिश्रा 09876789610

Tuesday, October 22, 2013

हमनें हर ताक पर सपनों को जला रखा है..............प्रखर मालवीय ‘कान्हा’



आज भी तेरी तस्वीर मैंनें आंगन में लगा रखा है
हर एक सांस पर तेरा नाम सजा रखा है

देख ना ले मेरे अश्कों मे तुझको कोई
हमने हर अश्क को पलकों में छुपा रखा है

गीले पलकों पर अब ख्वाब नहीं टिकता "कान्हा"
इस लिये हर ख्वाब तेरी राहों में बिछा रखा है

एक पल को भी ना वीरान हुआ कूचा मेरा
गम-ए तनहाई को जबसे हमने अपना बना रखा है

तुम चले गये तुम्हारी याद ना जाने दी हमने
आज अभी हर याद को सीने से लगा रखा है

आ जाना गर धुंधला जाए तेरी आँखों का काज़ल
हमनें हर ताक पर सपनों को जला रखा है

अच्छे लगते हैं अब तो गालों पे बहते आँसू
आँसुओं को पीने में भी अपना मज़ा रखा है


प्रखर मालवीय ‘कान्हा’ 08057575552
गृहलक्ष्मी में प्रकाशित रचना

तुम इक दिन लौट आओगे.......................प्रखर मालवीय 'कान्हा'



वही भीगा सा मौसम है, बरस के चल दिये बादल,
वही ठण्डी हवाओँ से लिपट के सो रहा हूँ मैं,

वही उन्माद का मौसम, वही बेचैनियोँ के पल,
तुम्हारी यादों को सीने से लगा के रो रहा हूँ मैं...

तुम्हारी दीद की खातिर मैं रुकता हूँ वहीँ अब भी,
जहाँ हमने बुने थे ख्वाब जमाने को परे रखकर,
तुम इक दिन लौट आओगे, यकीँ मै अब भी रखता हूँ मैं...


तेरी आँखेँ समन्दर थीँ, मेरी बातेँ समन्दर थीँ,
जो सहरा सी लगे हर पल,यही रातेँ समन्दर थीँ,

ख़फा होना मना लेना, मुहब्बत की निशानी थी,
मगर यूँ रुठ जाओगे हमेशा के लिये हमसे,

कभी सोचा ना था हमने, कभी चाहा ना था हमने,
वही सुनसान से रस्ते वही पर आस आँखो की,

वही खामोश आलम मे चुभे आवाज साँसो की,
कोई आहट नहीँ तेरी कोई खत भी नहीँ आया ,
मगर तुम लौट आओगे यकीँ मैँ अब भी रखता हूँ मैं...

प्रखर मालवीय 'कान्हा'
8057575552

Sunday, October 20, 2013

रात ढले मुझको ये क्या हो जाता है..............सौरभ शेखर


ताक़त का जिसको नश्शा हो जाता है
उसका लहजा ज़हर-बुझा हो जाता है

रुकता है इक रहरौ पास तमाशे के
देखते-देखते इक मजमा हो जाता है

और बहारों से क्या शिकवा है मुझको
ख़ाली दिल का ज़ख्म हरा हो जाता है

आँखों वाले लोग ही कौन से बेहतर हैं
आँखों को भी तो धोखा हो जाता है

कुछ अच्छा करने की कोशिश में मुझसे
काम हमेशा कोई बुरा हो जाता है

क्यों अम्बर के तारे गिनने लगता हूँ
रात ढले मुझको ये क्या हो जाता है

बिखरी खुशियों को आवाज़ लगाता हूँ
ग़म का दस्ता जब यकजा हो जाता है

सूरज की वहशत बढती जाती है और
‘धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है’

‘सौरभ’ प्यार ज़माने से कुछ हासिल कर
सबको घर,गाड़ी,पैसा हो जाता है

सौरभ शेखर 09873866653

Saturday, October 19, 2013

दिल का इक कोना ग़ुस्सा हो जाता है............... प्रखर मालवीय ‘कान्हा’



रो-धो के सब कुछ अच्छा हो जाता है
मन जैसे रुठा बच्चा हो जाता है

कितना गहरा लगता है ग़म का सागर
अश्क बहा लूं तो उथला हो जाता है

लोगों को बस याद रहेगा ताजमहल
छप्पर वाला घर क़िस्सा हो जाता है

मिट जाती है मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू
कहने को तो, घर पक्का हो जाता है

नीँद के ख़्वाब खुली आँखों से जब देखूँ
दिल का इक कोना ग़ुस्सा हो जाता है

प्रखर मालवीय ‘कान्हा’ 08057575552


Friday, October 18, 2013

फूल पे पांव पड़ें. …छाला हो जाता है................सुबोध साक़ी



अक्सर ही संजोग ऐसा हो जाता है
ख़ुद से मिले भी एक अरसा हो जाता है

मैं बोलूँ तो हंगामा हो जाता है
मैं ख़ामोश तो सन्नाटा हो जाता है

धीरे धीरे दिन धुंधला हो जाता है
मेरे मूड का आईना हो जाता है

रात की गहरी काली नद्दी जाते ही
दिन का पर्वत आ के खड़ा हो जाता है

तेरी याद की शम्में जब बुझ जाती हैं
ज़ेह्न मिरा आसेबज़दा(1) हो जाता है

ये तो बरसों देखा है तहज़ीबों ने
रफ़्ता रफ़्ता डर ही ख़ुदा हो जाता है.

जाने क्यूँ दानिश्वर(2) ऐसा कहते हैं
बढ़ते बढ़ते दर्द दवा हो जाता है

कभी कभी तो याद तिरी आती ही नहीं
कोई-कोई दिन यूं ज़ाया हो जाता है

देखा है इन आँखों ने ये आलम भी
बहता दरिया भी सहरा हो जाता है

ऐसी अदालत में है मेरा केस जहां
हरिक वाक़या अफ़साना हो जाता है

पूछे है वो हाल हमारा कुछ ऐसे
ज़ख्मे – जुदाई और हरा हो जाता है

जी करता है घर में घूमूं नंग-धड़ंग
कभी कभी मन बच्चा सा हो जाता है

आदत है इन तलवों को तो काँटों की
फूल पे पांव पड़ें. …छाला हो जाता है

सुबोध साक़ी 09811535422
_____________
1 भुतहा 2 बुद्धिमान

http://wp.me/p2hxFs-1qE

Thursday, October 17, 2013

मैं तो यूँ ही बुनता हूँ ग़ज़लें अपनी..............गौतम राजरिशी



चाँद ज़रा जब मद्धम-सा हो जाता है
अम्बर जाने क्यूँ तन्हा हो जाता है

चोट लगी है जब-जब नींद की रूहों को
जिस्म भी ख़्वाबों का नीला हो जाता है

तेरी गली में यूँ ही आते-जाते बस
ऐसा-वैसा भी कैसा हो जाता है

उसके फ़ोन की घंटी पर कमरा कैसा
लाल-गुलाबी सपनीला हो जाता है

येल्लो पोल्का डॉट दुपट्टा तेरा उड़े
तो मौसम भी चितकबरा हो जाता है

अलबम का इक-इक फ़ोटो जाने कैसे
शब को नॉवेल का पन्ना हो जाता है

तेरी-मेरी नज़रों का बस मिलना भर
मेरे लिये वो ही बोसा हो जाता है

उस नीली खिड़की के पट्टे का खुलना
नीचे गली में इक क़िस्सा हो जाता है

इश्क़ का ‘ओएसिस’ हो या हो यादों का
“धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है”

मैं तो यूँ ही बुनता हूँ ग़ज़लें अपनी
नाम का तेरे क्यूँ हल्ला हो जाता है

-गौतम राजरिशी {09419029557, 01955-213171}

*ओएसिस = मरुद्यान

Wednesday, October 16, 2013

नूरानी रुख़ बेपरदा हो जाता है.............ख़ुरशीद’खैराड़ी’



होठों तक आकर छोटा हो जाता है
सागर भी मुझको क़तरा हो जाता है

इंसानों के कुनबे में, इंसां अपना
इंसांपन खोकर नेता हो जाता है

दिन क्या है, शब का आँचल ढुलका कर वो
नूरानी रुख़ बेपरदा हो जाता है

तेरी दुनिया में, तेरे कुछ बंदों को
छूने से मज़हब मैला हो जाता है

जीवन एक ग़ज़ल है, जिसमें रोज़ाना
तुम हँस दो तो इक मिसरा हो जाता है

इस दुनिया में अक्सर रिश्तों पर भारी
काग़ज़ का हल्का टुकड़ा हो जाता है

जिस दिन तुझको देख न पाऊं सच मानो
मेरा उजला दिन काला हो जाता है

नफ़रत निभ जाती है पीढ़ी दर पीढ़ी
प्यार करो गर तो बलवा हो जाता है

झूंठ कहूं, मुझमें यह ऐब नहीं यारों
गर सच बोलूं तो झगड़ा हो जाता है

काला जादू है क्या उसकी आँखों में
जो देखे उसको, उसका हो जाता है

रखता है ‘खुरशीद’ चराग़े-दिल नभ पर
उजला मौसम चौतरफ़ा हो जाता है

ख़ुरशीद’खैराड़ी’ 09413408422

Tuesday, October 15, 2013

कैसे फिर तेरा मेरा हो जाता है.................अश्वनी शर्मा


शाम का चेहरा जब धुँधला हो जाता है
मन भारी भीगा-भीगा हो जाता है

यौवन, चेहरा, आँखें बहकें ही बहकें
रंग हिना का जब गाढ़ा हो जाता है

यकदम मर जाना,क्या मरना,यूँ भी तो
‘धीरे धीरे सब सहरा हो जाता है’

सपने की इक पौध लगाओ जीवन में
सुनते हैं ये पेड़ बड़ा हो जाता है

सब साझा करते, पलते, भाई भाई
कैसे फिर तेरा मेरा हो जाता है

ग़ोता गहरे पानी में मोती देगा
मन लेकिन उथला-उथला हो जाता है

बाँट रहा है सुख दुःख जाने कौन यहाँ
जो जिस को मिलता उसका हो जाता है

शीशा है दिल अक्स दिखायी देगा ही
मुस्काता जो बस अपना हो जाता है

देख लहू का रंग बहुत बतियायेगा
पूछेगा,वो क्यूँ फीका हो जाता है

भांज रहे हैं वो तलवारें, भांजेंगे
बस मुद्दा पारा पारा हो जाता है

अश्वनी शर्मा 09414052020 

Monday, October 14, 2013

अब मैं भी बेगुनाह हूँ रिश्तों के सामने...........सचिन अग्रवाल


 
 
अब मैं भी बेगुनाह हूँ रिश्तों के सामने
मैंने भी झूठ कह दिया झूठों के सामने

एक पट्टी बाँध रक्खी है मुंसिफ ने आँख पर
चिल्लाते हुए गूंगे हैं बहरों के सामने

मुझको मेरे उसूलों का कुछ तो बनाके दो
खाली ही हाथ जाऊं क्या बच्चों के सामने

एक वक़्त तक तो भूख को बर्दाश्त भी किया
फिर यूँ हुआ वो बिछ गयी भूखों के सामने

वो रौब और वो हुक्म गए बेटियों के साथ
खामोश बैठे रहते हैं बेटों के सामने

मुद्दत में आज गाँव हमें याद आया है
थाली लगा के बैठे हैं चूल्हों के सामने  

सचिन अग्रवाल

पत्ता पत्ता “राज ” बग़ावत कर बैठे...................राजमोहन चौहान



सहते सहते सच झूठा हो जाता है
परबत कांधे का हलका हो जाता है

डरते डरते कहना चाहा है जब भी
कहते कहते क्या से क्या हो जाता है

हल्की फुल्की बारिश में ढहते देखा
पुल जब रिश्तों का कच्चा हो जाता है

धीरे धीरे दुनिया रंग बदलती है
कल का मज़हब अब फ़ितना हो जाता है

ईश्वर को भी बहुतेरे दुःख हैं यारो
वो भी भक्तों से रुसवा हो जाता है

भीतर बहते दरिया मरते जाते हैं
धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है

पत्ता पत्ता “राज ” बग़ावत कर बैठे
जंगल का जंगल नंगा हो जाता है

-राजमोहन चौहान  8085809050

Sunday, October 13, 2013

अनकही ही रह गयी वोह बात..............फैज़ अहमद फैज़



हम कि ठहरे अजनबी इतनी मुलाकातों के बाद
फिर बनेंगे आशना* कितनी मुदारातों के बाद
[*acquainted, friendly]
कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद

थे बोहत बे-दर्द लम्हे ख़त्म-ए-दर्द-ए-इश्क के
थीं बोहत बे-मेहर सुबहें मेहरबां रातों के बाद

दिल तो चाहा पर शिकस्त-ए-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले शिकवे भी कर लेते मुनाजातों के बाद

उनसे जो कहने गए थे फैज़ जान सदके किये
अनकही ही रह गयी वोह बात सब बातों के बाद

-फैज़ अहमद फैज़
सौजन्यः बेस्ट ग़ज़ल.नेट

Friday, October 11, 2013

मैं बड़े दुखी की पुकार हूं................मुज़तर ख़ैराबादी



ना किसी की आंख का नूर हूं ना किसी के दिल का क़रार हूं
जो किसी के काम ना आ सके मैं वो मुश्त-ए-ग़ुबार हूं

मैं नहीं हूं नग़्म-ए-जां-फ़िज़ा, मुझे कोई सुन के करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूं सदा, मैं बड़े दुखी की पुकार हूं

मेर रंग रूप बिगड़ गया, मेरा बख़्त मुझसे बिछड़ गया
जो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ले बहार हूं

पै फ़ातेहा कोई आए क्यूं, कोई चार फूल चढ़ाए क्यूं
कोई शमा ला के जलाए क्यूं कि मैं बेकसी का मज़ार हूं

ना मैं मुज़तर उनका हबीब हूं, ना मैं मुज़तर उनका रक़ीब हूं
जो पलट गया वह नसीब हूं जो उजड़ गया वह दयार हूं

-मुज़तर ख़ैराबादी

मरहूम श़ायर ज़नाब मुज़तर ख़ैराबादी [1865-1927] 
शायर जनाब जाँनिसार अख़्तर के वालिद थे
और ज़नाब ज़ावेद अख़्तर के दादा हूज़ूर थे
.

Thursday, October 10, 2013

अन्दाज़ा नहीं था...........उर्मिला निमजे


समय खुद को 
इतनी जल्दी दोहराएगा  
अन्दाजा नहीं था

अभी कुछ दशक
पहले ही तो
छोड़कर गया था
 अपने पिता को

आज मुझे 
मेरा पुत्र छोड़ कर 
गया है 

उस समय भी
पिता की
आँखे भर आई होंगी

निश्चित ही
मैंने देखा नहीं था
पलटकर

मैंनें जो फैसला लिया था
वह परम्परा बन जाएगी
अन्दाज़ा ही नहीं था

-उर्मिला निमजे

सौजन्यः मधुरिमा, बुधवार, 9 अक्टूबर, 2013


Wednesday, October 9, 2013

दूर की रौशनी नज़दीक आने से रही............निदा फ़ाज़ली


दिन सलीके से उगा रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ दिन ज़माने से रही

चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसाविर आँखें
ज़िन्दगी रोज तस्वीर बनाने से रही

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमा जलाने से रही

फासला चाँद बना देता है पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक आने से रही

शहर में सब को कहाँ मिलती है रोने की फुर्सत
अपनी इज्ज़त भी यहाँ हंसने-हंसाने से रही..

-निदा फ़ाज़ली
मशहूर श़ाय़र और नग़मा निगार
जन्मः 12 अक्टूबर, 1938
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
 

Tuesday, October 8, 2013



चांद तारों को भी तस्खीर तो करते रहिये
बन्दगी की है ये मेराज कि नीचे रहिये

आगे बढ़ने की ये जिद, जान भी ले सकती है
शाह्जादे यही बेहतर है कि पीछे रहिये

जो भी होना है वही ज़िल्ले-इलाही होगा
आप क्यूं फिक्र करें, आप तो पीते रहिये

है बगावत यहाँ कद अपना बढ़ाने का ख्याल
सिर्फ साये में बड़े लोगों के जीते रहिये

एक से हाथ मिलाया तो मिलाएंगे सभी
भीड़ में हाथ को अपने अभी खींचे रहिये

रास्तो! क्या हे वोह लोग जो आते जाते
मेरे आदाब पे कहते थे कि जीते रहिये

अज्मत-ए-बखियागिरी इस में है 'अजहर साहब'
दूसरे चाक गिरेबान भी सीते रहिये

अजहर इनायती

Monday, October 7, 2013

एक यायावर मेघपुंज हूं....................हर नारायण शुक्ला


नभ में उड़ा जा रहा हूं
एक यायावर मेघपुंज हूं।

नीचे धरती का विस्तार,
ऊपर नीला गगन विशाल,
सृष्टि की रचना से विस्मित,
प्रभु का देखूं रूप विराट।

मैं हूं श्यामल जलागार,
बरसाऊं शीतल फुहार,
विद्युत मेरा अलंकार,
ध्वनि से कर दूं चमत्कार,
कभी वर्षा करूं कभी हिमपात,
कभी करूं मैं वज्रपात।

विरही का मैं मेघदूत,
चातक की मैं आशा,
मुझे देख नाचे मयूर,
सबकी बुझे पिपासा।

नभ में उड़ा जा रहा हूं,
एक यायावर मेघपुंज हूं।

- हर नारायण शुक्ला

Friday, October 4, 2013

मैं अपनी सलीब आप उठा लूँ.................अहमद नदीम क़ासमी


फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
आंखो को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूं

हक़ की बात कहूंगा मगर ऐ जुर्रत-ऐ- इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूं

हर सोच पे खंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
हैरां हूं कि सोचूं तो किस अंदाज़ में सोचूं

आंखे तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूं

चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहरे-ख़ामोशां में खड़ा हूं

सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाजों के पुर्ज़े
यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ

मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब
हो इज़्न तो मैं अपनी सलीब आप उठा लूँ

-अहमद नदीम क़ासमी

हक़ः सच, जुर्रत-ए- इज़हारः अभिव्यक्ति का साहस, बर्फ़-से पैकरः आकृति, 
लौहें: पत्थर के टुकड़े सलीब लिखकर क़ब्र में लगाते हैं,
शहरे-ख़ामोशां: क़ब्रिस्तान, दस्त-ए-मुसीबतः मुसीबत का जंगल, 
इज़्नः इज़ाज़त

यह रचना मुझे दैनिक भास्कर के रसरंग पृष्ट से प्राप्त हुई

Thursday, October 3, 2013

शुभ है केवल साथ तेरा.............विजय कुमार सिंह


अब न नभ तक कोई तारक
और ओझल चंद्रमा है
है तो नीरवता ही केवल
कालिमा ही कालिमा है

नींद में हैं सब अभी भी
वृक्षों पर खग कुल बसेरा
यह निशा का घन अंधेरा
शुभ है केवल साथ तेरा

तेरी सांसों की मैं खुशबू
अपनी सांसों आज ले लूं
खोल दो ‍तुम केश अपने
प्यार से जी भर के खेलूं

ले के पलभर को टिका लो
अपने कांधे सर ये मेरा
यह निशा का घन अंधेरा
शुभ है केवल साथ तेरा

आ मिला दो धड़कनों को
आज मेरी धड़कनों से
मुक्त होने दो मुझे फिर
काल के इन बंधनों से

बांध लो कसकर मुझे तुम
डालकर बांहों का घेरा
यह निशा का घन अंधेरा
शुभ है केवल साथ तेरा

आओ मेरे पास आओ
मुंह हथेली आज भर लूं
चूम लूं अधरों को तेरे
होठों को होठों में ले लूं

झांक कर तेरे नयन फिर
खोज लूं एक नव सवेरा
यह निशा का घन अंधेरा
शुभ है केवल साथ तेरा।

- विजय कुमार सिंह

Wednesday, October 2, 2013

वो मिल जाता है अपने अशआर में................डॉ मुहम्मद आज़म



सम्हालो मुझे अब भी घर-बार में
कहीं दिल न लग जाय बाज़ार में

जब अपने मुक़ाबिल हूं तकरार में
ख़ुशी जीत में है न ग़म हार में

अरे मोजिज़ा हो गया आज तो
छपी है ख़बर सच्ची अख़बार में

सज़ा से ख़ता पूछती है ये क्या
बुराई थी इतनी गुनहगार में

गिरेबानो-दामन न हो जांय चाक
उलझ कर न रह जाना दस्तार में

क़लम के सिपाही का डर था कभी
क़लम की भी गिनती थी हथियार में

फ़रिश्ता नहीं एक इंसान हूं
कई खोट हैं मेरे किरदार में

ख़मोशी बग़ावत की तम्हीद है
छुपा खौफ़ होता है यलग़ार में

भला इस क़दर तेज़ चलना भी क्या
कि मंज़िल निकल जाय रफ़्तार में

मुलाक़ात ‘आज़म’ से मुश्किल नहीं
वो मिल जाता है अपने अशआर में

डॉ मुहम्मद आज़म 09827531331
http://wp.me/p2hxFs-1nN