Thursday, November 14, 2013

रोइए ज़ार ज़ार क्यूँ? कीजिये हाय हाय क्यूँ?............मिर्ज़ा ग़ालिब



दिल ही तो है, न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यूँ?
रोएँगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यूँ?

दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यूँ?

क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म असल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाये क्यूँ?

जब वोह जमाल-ए-दिल-फरोज़, सूरत-ए-मेहर-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़, परदे में मुंह छुपाये क्यूँ?

दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँसितां, नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख सही, सामने तेरे आये क्यूँ?

ग़ालिब-ए-खस्ता के बगैर, कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्यूँ? कीजिये हाय हाय क्यूँ?

मिर्ज़ा ग़ालिब
दैरः मंदिर

बसते हैं किस देश में वो लोग, जो यहाँ आए थे............नूर बिजनौरी



शाख- शाख पर मौसमे-गुल ने ग़जरे से लटकाए थे
मैंनें जिस दम हाथ बढ़ाया, सारे फूल पराए थे

कितने दर्द चमक उठते हैं फ़ुरकत के सन्नाटे में
रात-रात भर जाग के हमने ख़ुद ये ज़ख़्म लगाए थे

तेरे गमों का ज़िक्र ही क्या,अब जाने दे,ये बात न छेड़
हम दीवाने मुल्के-ज़ुनूं में बख़्ते-सिकंदर लाए थे

दिल की वीरां बस्ती मुझसे अक्सर पूछा करती है
बसते हैं किस देश में वो लोग, जो यहाँ आए थे

पिछली रात को तारे अब भी झिलमिल-झिलमिल करते हैं
किसको खबर है, इक शब हमने कितने अश्क बहाए थे

आज जहां की तारीकी से दुनिया बच कर चलती है
हमने इस वीरान महल में लाखों दीप जलाए थे

मुझको उनसे प्यार नहीं है, मुझको उनके नाम से क्या
आँखें यूं ही भर आई थी, होठ यूं ही थर्राए थे

-नूर बिजनौरी

प्रसिद्ध पाकिस्तानी श़ायर
पूरा नामः नूर-उल-हक़ सिद्दीकी
जन्मः 24 जनवरी, 1924.
बिजनौर, उ.प्र.


फ़ुरकत: ज़ुदाई, मुल्के-ज़ुनूं: पागलों का देश, बख़्ते-सिकंदर: सिकंदर का भाग्य, तारीकी: अंधकार

Wednesday, November 13, 2013

घर-घर परी ही बन कें जहाँ बीजरी सही................नवीन सी. चतुर्वेदी



अपनी खुसी सूँ थोरें ई सब नें करी सही
भौरे नें दाब-दूब कें करबा लई सही

जै सोच कें ई सबनें उमर भर दई सही
समझे कि अब की बार की है आखरी सही

पहली सही नें लूट लयो सगरौ चैन-चान
अब और का हरैगी मरी दूसरी सही

मन कह रह्यौ है भौरे की बहियन कूँ फार दऊँ
फिर देखूँ काँ सों लाउतै पुरखान की सही

धौंताए सूँ नहर पे खड़ो है मुनीम साब
रुक्का पे लेयगौ मेरी सायद नई सही

म्हाँ- म्हाँ जमीन आग उगल रइ ए आज तक
घर-घर परी ही बन कें जहाँ बीजरी सही

तो कूँ भी जो ‘नवीन’ पसंद आबै मेरी बात
तौ कर गजल पे अपने सगे-गाम की सही

सही = दस्तख़त, सगरौ – सारा, कुल, हरैगी – हर लेगी, छीनेगी, मरी = ब्रजभाषा की एक प्यार भरी गाली, बहियन = बही का बहुवचन, लाउतै = लाता है, धौंताए सूँ = अलस्सुबह से, बीजरी = बिजली,

[ब्रजभाषा – ग्रामीण]

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+91 99 670 24 593


Tuesday, November 12, 2013

पीछे मुड़कर देख लिया तो पत्थर के हो जाओगे.....नूर बिजनौरी



आस के रंगीं पत्थर कब तक गारों में लुढ़काओगे
शाम ढले कोहसारों में अपना खोज न पाओगे

जाने - पहचाने- से चेहरे अपनी सम्त बुलाएँगे
क़द्-क़दम पर लेकिन अपने साए से टकराओगे

हर टीले की ओट से लाखों वहशा आँखें चमकेंगी
माज़ी की हर पगडण्डी पर नेज़ों से घिर जाओगे

फ़नकारों का ज़हर तुम्हारे गीतों पर जम जाएगा
कब तक अपने होंठ, मेरी जां,सांपों से डसवाओगे

चीखेंगी बदमस्त हवाएँ ऊँचे-ऊँचे पेड़ों में
रूठ के जानेवाले पत्तों! कब तक वापस आओगे

जादू की नगरी है ये प्यारे, आवाजों पर ध्यान न दो
पीछे मुड़कर देख लिया तो पत्थर के हो जाओगे

-नूर बिजनौरी 
कोहसारों: पर्वतों, नेज़ों: बरछियां, बदमस्त: तूफानी

प्रसिद्ध पाकिस्तानी श़ायर
पूरा नामः नूर-उल-हक़ सिद्दीकी
जन्मः 24 जनवरी, 1924.
बिजनौर, उ.प्र.

Monday, November 11, 2013

बस तो जाते हैं घर सारे बेटों के..............अनिल जलालपुरी



जी भर रोकर जी हल्का हो जाता है
वरना तन-मन जलथल सा हो जाता है

हर ज़र्रे को रोशन करके आख़िर में
शाम ढले सूरज बूढ़ा हो जाता है

बस तो जाते हैं घर सारे बेटों के
बस आँगन टुकड़ा टुकड़ा हो जाता है

जाहिल जब बैठेंगे आलिम के दर पे
हश्र यक़ीनन ही बरपा हो जाता है

उल्फ़त का सागर हूँ, नफ़रत का दरिया
मिलकर मुझसे मुझ जैसा हो जाता है

‘पल्टू साहब’ की बानी है भूखों को
भोजन दो तो पूजा सा हो जाता है

रफ़्ता रफ़्ता सब उम्मीदें मरती हैं
‘धीरे धीरे सब सहरा हो जाता हैं’

(पल्टू साहब-जलालपुर के प्रसिद्ध संत)

अनिल जलालपुरी 09161755586

http://wp.me/p2hxFs-1qO

Friday, November 8, 2013

आरज़ू का कोई वरक़ खोलें..............स्वर्गीय भगवती प्रसाद ‘अहक़र’


आंसुओं में उमस की रुत घोलें
आरज़ू का कोई वरक़ खोलें

कल तो मंज़िल दिखायी देती थी
आज किस आसरे पे पर तोलें

बांटता कौन दर्द किसका है
लोग ख़ुद अपनी सूलियां ढो लें

रतजगा उम्र भर मनाया है
अब तो ऐ सांस की थकन सो लें

कोई अपना सा हो तो कुछ हम भी
आदमी की तरह हँसें-बोलें

बावफ़ा चांदनी न धूप ‘अहक़र’
ये तहें भी ख़याल की खोलें

स्वर्गीय भगवती प्रसाद ‘अहक़र’ काशीपुरी 

Thursday, November 7, 2013

शबे-तन्हाई में चमका न करो............शफ़ीक़ रायपुरी

 

बात बेबात की बातों में तो पैदा न करो
चोट पर चोट न दो ज़ख्म को गहरा न करो

हम ग़रीबों के मकानात टपकते हैं बहुत
बादलो खेत पे बरसो यहां बरसा न करो

जिस्म पर इसके ज़रूरी है दरख्तों का लिबास
काट कर पेड़ मिरे देश को नंगा न करो

देखने को तुम्हें आ जाते हैं बाहर आंसू
ऐ सितारो ! शबे-तन्हाई में चमका न करो

रंगो-ख़ुशबू से ज़माने को अदावत है बहुत
ऐ गुलो इस तरह गुलज़ार में महका न करो

आदमी ही नहीं इस शहरे-सितमगर में ‘शफ़ीक़’
तुम दरख्तों से भी साये की तमन्ना न करो

शफ़ीक़ रायपुरी 09406078694

Wednesday, November 6, 2013

मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ...............प्रखर मालवीय `कान्हा’


ख़ला को छू के आना चाहता हूँ
मैं ख़ुद को आज़माना चाहता हूँ

मेरी ख़्वाहिश तुझे पाना नहीं है
ज़रा सा हक़ जताना चाहता हूँ

तुझे ये जान कर हैरत तो होगी
मैं अब भी मुस्कुराना चाहता हूँ

तेरे हंसने की इक आवाज़ सुन कर
तेरी महफ़िल में आना चाहता हूँ

मेरी ख़ामोशियों की बात सुन लो
ख़मोशी से बताना चाहता हूँ

बहुत तब्दीलियाँ करनी हैं ख़ुद में
नया किरदार पाना चाहता हूं.....!!

प्रखर मालवीय `कान्हा’
आजमगढ़
http://wp.me/p2hxFs-1sL

Monday, November 4, 2013

नुक़सान करने लगता है मीठा कभी कभी............सचिन अग्रवाल


लहजा भी इस ख़याल से बदला कभी कभी
नुक़सान करने लगता है मीठा कभी कभी

खतरे में डाल सकती है ऊंची कोई उड़ान
खुद पर भरोसा हद से ज़ियादा कभी कभी

खुद्दारियों का भारी लिबादा उतारकर
अपने ही हक़ को भीख में माँगा कभी कभी

थक हार कर ये तेरे तसव्वुर में लौटना
आसान लगने लगता है जीना कभी कभी

मेरी हथेलियों कि दरारों से पूछ लो
बदला भी है नसीब का लिक्खा कभी कभी

तय करते करते फासले घुटनो पे आ गए
इतना तवील होता है रस्ता कभी कभी

-सचिन अग्रवाल