Sunday, December 30, 2012

स्वीकार करना सीखिए.......सुरेश अग्रवाल 'अधीर'


जिंदगी में इस तरह आप,
ना कभी रोना सीखिए,
जिस तरह की दे रब जिंदगी,
उसे जीना सीखिए ।

फूलों की सी सेज होती नहीं है,
हर वक्त जिंदगी ,
ग़म, बेबसी, काँटे तो क्या,
गले लगाना सिखिये ।

त्याग समर्पण भी है जरूरी
एक सच्चे प्यार में ,
प्यार पाने से पहले,
प्यार को खोना भी सीखिए।

बेवफाई ,आंसू,उदासी गर,
दे गया वो तो ग़म नही,
इश्क में चलता है ये सब,
स्वीकार करना सीखिए।

काँटे भी चुभेंगे दामन में,
अगर करोगे प्यार तुम,
ये सब चाहते नही ज़नाब,
फिर दूर रहना सीखिए। 

-सुरेश अग्रवाल 'अधीर'

Thursday, December 27, 2012

तुम्हारे नेह का हरसिंगार...............'फाल्गुनी'



नहीं दिखता तुम्हारी आँखों में
अब वो शहदीया राज
नहीं खिलता देखकर तुम्हें
मेरे मन का अमलतास, 


नहीं गुदगुदाते तुम्हारी
सुरीली आँखों के कचनार
नहीं झरता मुझ पर अब
तुम्हारे नेह का हरसिंगार, 

सेमल के कोमल फूलों से
नहीं करती माटी श्रृंगार
बहुत दिनों से उदास खड़ा है
आँगन का चंपा सदाबहार, 

रिमझिम-रिमझिम बूँदों से
मन में नहीं उठती सौंधी बयार
रुनझून-रुनझून बरखा से
नहीं होता है सावन खुशगवार, 

बीते दिन की कच्ची यादें
चुभती है बन कर शूल
मत आना साथी लौटकर
अब गई हूँ तुमको भूल।

--स्मृति जोशी 'फाल्गुनी'



Monday, December 24, 2012

दामिनी यानी बिजली................."फाल्गुनी"












वह हरदम चहकती रहती,
बिंदास और बेबाक।
अन्याय
वह सहन कर ही नहीं सकती।
यही कहा है 'दामिनी'
के भाई ने।
'दामिनी' पूरे देश के लोगों
के लिए एक टीवी चैनल ने
यही नाम रखा है उस कन्या का।
दामिनी यानी बिजली।
जो वक्त पड़ने पर उजाला करती है,
और छेड़खानी करने पर विनाश भी।
ऊर्जा का वह स्त्रोत होती है
और रोशनी से भरपूर।

खुशी की बात यह है
कि इतना-इतना झेल लेने के बाद
भी वह टूटी नही,
झुकी नहीं, रूकी नहीं।
लड़ रही है
वह अपने आप से।
अपने कष्टों से
और अपने हर जख्म से। 


--स्मृति आदित्य "फाल्गुनी"

Sunday, December 23, 2012

तोड़ कर झिझोड़ दिया क्यूँ.......इतनी वहशत से .....अलका गुप्ता

हौसले अरमान सभी होंगे पूरे एक दिन इक आस थी |
समेट लुंगी बाहों में खुशियाँ सारी यही इक आस थी ||

तोड़ कर झिझोड़ दिया क्यूँ.......इतनी वहशत से |
देखे दुनियाँ तमाशबीन सी ना मन को ये आस थी ||

टूट गई हूँ ...विकल विवश सी मन में इतनी दहशत है |
शर्म करो उफ्फ !!! प्रश्नों से..जिनकी ना कोई आस थी ||

घूम रहे स्वच्छंद अपराधी देखो !!! भेड़िये की खाल में |
बन गई अपराधिनी...मैं ही कैसे..इसकी ना आस थी ||

मानवता से करूँ घृणा या देखूं हर मन को संशय भर |
रक्षक समझी थी ना विशवासघात की मन को आस थी ||

मिलती नहीं सजा क्यूँ....समझ ना पाय 'अलका' यह |
इन घावों की सजा दे कोई...जिसकी दिल को आस थी ||

--अलका गुप्ता

Wednesday, December 19, 2012

वो जितना रोई होगी बस में दिल्ली की लड़की मेरी आंखों के आंसू भी सुखाए उसी पगली ने.....गिरीश मुकुल

हां सदमा मग़र हादसा
देखा नहीं कोई !
और न तो साथ मेरे
जुड़ती है कहानी हादसे जैसी……!!
मग़र नि:शब्द क्यों हूं..?
सोचता हूं
अपने चेहरे पे
सहजता लांऊ तो कैसे ?
मैं जो महसूस करता हूं
कहो बतलाऊं वो कैसे..?
वो जितना रोई होगी बस में दिल्ली की लड़की
मेरी आंखों के आंसू भी सुखाए उसी पगली ने
न मैं जानता उसे न पहचानता हूं मैं ?
क्या पूछा -”कि रोया क्यूं मैं..?”
निरे जाहिल हो किसी पीर तुम जानोगे कैसे
ध्यान से सुनना उसी चीख
सबों तक आ रही अब भी
तुम्हारे तक नहीं आई
तो क्या तुम भी सियासी हो..?
सियासी भी कई भीगे थे सर-ओ-पा तब
देखा तो होगा ?
चलो छोड़ो न पूछो मुझसे
वो कौन है क्या है तुम्हारी अब वो कैसी है ?
मुझे मालूम क्या मैं तो
जी भर के
दिन भर रोया हूं
मेरे माथे पे
बेचैनियां
नाचतीं दिन भर !
मेरा तो झुका है
क्या तुम्हारा
झुकता नहीं है सर..?

सुनो तुम भी
दिल्ली से आ रहीं चीखैं.. ये चीखैं
हर तरफ़ से एक सी आतीं.. जब तब
तुम सुन नहीं पाते सुनते हो तो गोया
समझ में आतीं नहीं तुमको
समझ आई तो फ़िर किसकी है
ये तुम सोचते होगे
चलो अच्छा है जानी पहचानी नहीं निकली !!
हरेक बेटी की आवाज़ों फ़र्क करते हो
अगर ये करते हो ख़ुदा जाने क्या महसूस करते हो..?
हमें सुनना है हरेक आवाज़ को
अपनी समझ के अब
अभी नहीं तो बताओ
प्रतीक्षा करोगे कब तक
किसी पहचानी हुई आवाज़ का
रस्ता न तकना तुम
वरना देर हो जाएगी
ये बात समझना तुम !!

--गिरीश मुकुल

क्या लिखूं, कैसे लिखूं.....................रामचरण शर्मा 'मधुकर'


किस-किसकी बात लिखूं
मैं सोच रहा हूं
क्या लिखूं, कैसे लिखूं
मानव की भूख लिखूं
या पीड़ा का संसार लिखूं
पावन दिवाली के संग
जलते आचार लिखूं
कुंठित कलम हाथ में लेकर
किस-किस का व्यवहार लिखूं
किस-किसका व्यापार लिखूं
सुबह अजान सांझ के घंटे
कहीं पर पिछड़े कहीं हैं अगड़े
इन सबकी तकरार लिखूं या
मन का हाहाकार लिखूं
कैसे-कैसे गोरखधंधे
और घोटाले
बीच भंवर में, फंसने वाले
कुशल खिलाड़ी, नाविक
आघातों पर आघात लिखूं
या बेशरमी की बात लिखूं
सोच-सोच मन घुन जाता है
रात-रात पलकें खुल जाती हैं
गीत प्रगति के लिख डालूं
या बिखरा संसार लिखूं
क्रय पीड़ा जन-जन की या
महलों का परिहास,
कृषकों का शोषण लिख डालूं
या श्रम गंगा की धार लिखूं
खोए हैं कुछ स्वप्न सजीले
कुछ तो शेष रहे
मन में गांठ, बंधे हैं सारे
अब सपनों की बात लिखूं
या सच का इतिहास लिखूं।
- रामचरण शर्मा 'मधुकर'

जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है.........अज्ञेय


जियो उस प्यार में
जो मैंने तुम्हें दिया है,
उस दु:ख में नहीं जिसे
बेझिझक मैंने पिया है।

उस गान में जियो
जो मैंने तुम्हें सुनाया है,
उस आह में नहीं‍ जिसे
मैंने तुमसे छिपाया है।

उस द्वार से गुजरो
जो मैंने तुम्हारे लिए खोला है,
उस अंधकार से नहीं
जिसकी गहराई को
बार-बार मैंने तुम्हारी रक्षा की भावना से टटोला है।

वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूं, बुनूंगा;
वे कांटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूं, चुनूंगा।

वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूं, बनाता रहूंगा;

मैं जो रोड़ा हूं, उसे हथौड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूं, करीने से
संवारता-सजाता हूं, सजाता रहूंगा।

सागर किनारे तक
तुम्हें पहुंचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो;

फिर वहां जो लहर हो, तारा हो,
सोन-परी हो, अरुण सवेरा हो,

वह सब, ओ मेरे वर्ग!
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।

--सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'

Tuesday, December 18, 2012

बस, थोड़े से बच जाया करो..........'फाल्गुनी'






 
तुम
सारा दिन रहा करो
सबके पास
सबके लिए
पर
सांझ के आंचल में
स्लेटी रंग उतरते ही
और
रात की
भीनी आहट के साथ ही
बचे रह जाया करो
थोड़े से
मेरे लिए
ताकि मैं सो सकूं
इस विश्वास के साथ कि
तुम हो अब भी मेरे लिए..
मेरे साथ..
मेरे पास...
ज्यादा नहीं मांगती मैं तुमसे
बस, बच जाया करो
बहुत थोड़े से
सांझ और रात के दरम्यान
मेरे लिए, मेरे प्यार के लिए...
वह प्यार
जो बस तुम्हारे लिए
आता है मेरे मन में
और सुबह के बाद
तुम्हारे ही साथ

पता नहीं कहां
चला जाता है
तुम्हारी व्यस्तताओं में उलझकर,
शाम होते ही
बस थोड़े से
बहुत थोड़े से
बच जाया करो मेरे लिए...
ताकि मैं देख सकूं
सतरंगी सपने
दुनिया की कालिमा पर
छिड़कने के लिए। 

--स्मृति जोशी 'फाल्गुनी'

Monday, December 17, 2012

संजय शूलिका .....................संजय जोशी 'सजग'



शूलिका क्रमांक 01 से 05 का प्रकाशन पूर्व में कर चुकी हूँ

*[06] *
खनन
चल रहा है
सहन.....
करना होगा
मनन
पर्यावरण का
हो रहा है दमन
भ्रष्ट हो रहे है चमन .....

* [07] *
दिल मांगे मोर
ज्यादा मिले तो
हो जाता बोर .......
* [08] *
२०-२० याने
फटाफट क्रिकेट
तू चल में आया
हमे नही भाया
आस्ट्रेलिया ने
कैसा है धोया
भारत ने खोया
सम्मान है ......
.
* [09] *
मनुष्य के वेश
में
कई उल्लू है देश में
सच कहो आते तैश में
क्या करे ऐसे केस में

* [10] *
कतार
बन गई राष्ट्रीय
समस्या
इसमे लग कर
करनी पड़ती तपस्या
आशा उत्साह को
करती तार - तार
होता है यह बार -बार
.
----संजय जोशी 'सजग'

Sunday, December 16, 2012


चाँद तन्हा है आस्माँ तन्हा
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआँ तन्हा

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा

हमसफर कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहाँ तन्हा

जलती-बुझती-सी रौशनी के परे
सिमटा-सिमटा सा इक मकाँ तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा।
--मीना कुमारी

सभी के जवाब छोड़ गया...........सैयद सादिक अली



शरीफ चोर था कुछ तो जनाब छोड़ गया
कबाब खा गया लेकिन शराब छोड़ गया

जो रास्ते में बहुत मेहरबान था मुझ पर
सफर के अंत में सारा हिसाब छोड़ गया

पढ़ीं तो निकलीं कविताएं अर्थहीन सभी
वह अपनी याद में ऐसी किताब छोड़ गया

मुकदमे, कर्जे, रहन-जायदाद के झगड़े
मरा तो देखिए क्या-क्या नवाब छोड़ गया

सवाल जितने उठाए थे पत्रकारों ने
वह गोल-मोल सभी के जवाब छोड़ गया। 

-सैयद सादिक अली

Saturday, December 15, 2012

उनका साया..............रमेश जोशी




उनका साया जहां-जहां पर
तिनका तक ना उगा वहां पर

अपना नाम लिखे दाने को
ढूंढ़ा जाने कहां-कहां पर

दुनिया का मालिक है तो फिर
क्यूं ना आता अभी यहां पर

दिल में है तो दिल को पढ़ ले
हम ना लाते जुबां पर

गुल को भी ‍तो खिलने की जिद
क्यूं सारे इल्जाम खिजां पर। 

- रमेश जोशी

Friday, December 14, 2012

खीर-सी मीठी अम्मा हर पल..........सहबा जाफ़री



 

 धूप घनी तो अम्मा बादल 
छांव ढली तो अम्मा पीपल
गीली आंखें, अम्मा आंचल
मैं बेकल तो अम्मा बेकल।
  





रात की आंखें अम्मा काजल 
बीतते दिन का अम्मा पल-पल
जीवन जख्मी, अम्मा संदल
मैं बेकल तो अम्मा बेकल। 


बात कड़ी है, अम्मा कोयल
कठिन घड़ी है अम्मा हलचल
चोट है छोटी, अम्मा पागल
मैं बेकल तो अम्मा बेकल। 


धूल का बिस्तर, अम्मा मखमल
धूप की रोटी, अम्मा छागल
ठिठुरी रातें, अम्मा कंबल
मैं बेकल तो अम्मा बेकल।

चांद कटोरी, अम्मा चावल
खीर-सी मीठी अम्मा हर पल
जीवन निष्ठुर अम्मा संबल
मैं बेकल तो अम्मा बेकल। 

--सहबा जाफ़री

Wednesday, December 12, 2012

अहसास हैं कुछ.............अश्विनी कुमार पाण्डेय


अहसास हैं कुछ भूखे-प्यासे, तोड़ रहे दम......
दूध आस्तीन के साँपों को पिलाते चलिए......

कहते हैं सभी, लोग यहाँ अच्छे नहीं हैं......
अपना भी गिरेबान कभी झाँकते चलिए......

दुश्मन से दिल्लगी ये सदा ठीक नहीँ है......
बस दोस्तों की भीड मेँ, पहचानते चलिए......

ढूंढोगे एक, मिलेंगे फिर सैंकड़ों यहाँ......
कुछ रौशनी नजर की तेज बढाते चलिए......

मैंने सुना,बिवाइयों का ओस है इलाज......
हरी, नर्म घास मखमली को रौंदते चलिए.......

- अश्विनी कुमार पाण्डेय

Tuesday, December 11, 2012

कोमल सर्दी की गुलाबी ठिठुरन................फाल्गुनी



कोमल सर्दी की गुलाबी ठिठुरन में
नर्म शॉल के गर्म एहसास को लपेटे
तुम्हारी नीली छुअन
याद आती है,
 



याद
जो बर्फीली हवा के
तेज झोंकों के साथ
तुम्हें मेरे पास लाती है,
तुम नहीं हो सकते मेरे
यह कड़वा आभास
बार-बार भला जाती है,

जनवरी की शबाब पर चढ़ी ठंड
कितना कुछ लाती है
बस, एक तुम्हारे सिवा,
तुम जो बस दर्द ही दर्द हो
कभी ना बन सके दवा,
नहीं जान सके
तुम्हारे लिए
मैंने कितना कुछ सहा,
फिर भी कुछ नहीं कहा... 


---स्मृति जोशी  'फाल्गुनी'

आओ, आज जिंदगी जी लें!.......डॉ. मृदुल जोशी ( एन आर आई )

 
 
 
आओ, आज जिंदगी जी लें!
किरणों की तारें छेड़
मीड़, तोड़ों, तानों में
लरज-लरज
कुछ गीत सुनहले गाता है सूरज
सुध-बुध खो लें।

मीठी ख़ामोशी में घुल‍-मिल
रतजगी चांदनी
बरसी है
झम-झम, झम-झम
तन-मन भर लें!

रंग-बिरंगी पोशाकों में
सजे-धजे
प्यारे पंछी
जिन प्यारी-प्यारी बातों में
डूबे
छुपकर सुन लें।

यह उछल-कूदती नदिया

नन्हीं बिटिया-सी
दौड़-दौड़ कुछ ढूंढ रही है
इधर-उधर
हम भी ढूंढें!

बच्चों की किलकारी-सी
बिखरी-बिखरी मासूम महक
इन फूलों की
आओ छू लें!

इस धरती में हैं बचे बहुत
कहने-सुनने-गुनने के गुन
फिर यूं ही रात-दिवस रीतें!
कुछ तो संभले!

क्या रखा उलझती बातों में
क्या लाभ घात-प्रतिघातों में
ये बातें सब बेमानी हैं
हम सीधे-सादे सरल बनें!
आओ, आज जिंदगी जी लें! 
 
- डॉ. मृदुल जोशी  ( एन आर आई )

Monday, December 10, 2012

क्षितिज के पार...............डॉ. माधवी सिंह

मन को तृप्त करती तो है
रोशनी दिवस की
रात्रि के पहर में
क्षितिज के पार दिखाई देता है

अगणित तारे, तारामंडल
और नक्षत्रों का समूह
मन को अनंत की
सीमा के पार ले जाता है

जीवन के स्वरूप में
कुछ ऐसा ही रहस्य समाया है
सुख का मद और दुख की वेदना
एक ही चक्र की माया है

हां, जब चाह होगी उस दृष्टि की
जो आत्मा अनंत को दिखा सके
तब मिलेगा आनंद वह जो
है छिपा गहरे अंतरंग में।

- डॉ. माधवी सिंह

Thursday, November 22, 2012

'मैं तो तुम्हारे पास हूँ ...'.......सदा

माँ.. कैसे तुम्‍हें
एक शब्‍द मान लूँ
दुनिया हो मेरी
पूरी तुम
आंखे खुलने से लेकर
पलकों के मुंदने तक
तुम सोचती हो
मेरे ही बारे में
हर छोटी से छोटी खुशी
समेट लेती हो
अपने ऑंचल में यूँ
जैसे खज़ाना पा लिया हो कोई
सोचती हूँ ...
यह शब्‍द दुनिया कैसे हो गया मेरी
पकड़ी थी उंगली जब
पहला कदम
उठाया था चलने को
तब भी ...
और अब भी ...मुझसे पहले
मेरी हर मुश्किल में
तुम खड़ी हो जाती हो
और मैं बेपरवाह हो
सोचती हूँ

माँ..हैं न सब संभाल लेंगी .....


माँ..की कलम मेरे लिए .... 

लगता है 
किसी मासूम बच्चे ने
मेरा आँचल पकड़ लिया हो 
जब जब मुड़के देखती हूँ
उसकी मुस्कान में 
बस एक बात होती है
'मैं भी साथ ...'
और मैं उसकी मासूमियत पर 
न्योछावर हो जाती हूँ
आशीषों से भर देती हूँ
कहती हूँ 
'मैं तो तुम्हारे पास हूँ ...'

रेत पर महल कब तक टिकेगा?.................डॉ. माधवी सिंह

जड़ में लगी हो घुन तो
पेड़ गिरकर ही रहेगा

नैतिकता से वंचित जीवन
जिस राह पर चलेगा

उस राह को वह
एक दिन तबाह ही करेगा

क्यों 'औसत नागरिक' का
जीवन हम नहीं स्वीकारते

क्यों अंधी दौड़ में हैं
चलते चले जाते

भौतिकता तो भटकाती ही रहेगी
मन को

सादगी से भरा 'जीवन आदर्श' ही
हमारा पथ प्रशस्त करेगा।

- डॉ. माधवी सिंह



Tuesday, November 20, 2012

पाँच शूलिकाएँ...................संजय जोशी "सजग"


* शुलिका 1 *
घोटाले पर घोटाले
जब खुलते घोटाले
हर दल उसको टाले
सब के हाथ है काले


* शुलिका 2 *
महंगाई के बम फूटे
सरकार के बहाने झूटे



* शुलिका 3 *
हमारा माल
बेचे विदेशी मॉल
केसा बिछा रहे जाल
क्यों कर रहे हलाल
देश होगा कंगाल
जनता होगी बदहाल



* शुलिका 4 *

राजनीति का द्वन्द
धरना, प्रदर्शन, बंद
खुश होते है कुछ चंद
कितने चूल्हे रहते बंद


* शुलिका 5 *
घोटाले का बीज बोओ
भ्रष्टाचार से सींचो
रिश्वत के फल तोड़ो
ऐसे पेड़ पर लगते पैसे
*कौन कहता है ..पैसे पेड़...पर नही लगते ..............

संजय जोशी "सजग"

क्षितिज के पार...............डॉ. माधवी सिंह

मन को तृप्त करती तो है
रोशनी दिवस की
रात्रि के पहर में
क्षितिज के पार दिखाई देता है

 

अगणित तारे, तारामंडल
और नक्षत्रों का समूह
मन को अनंत की
सीमा के पार ले जाता है

जीवन के स्वरूप में
कुछ ऐसा ही रहस्य समाया है
सुख का मद और दुख की वेदना
एक ही चक्र की माया है

हां, जब चाह होगी उस दृष्टि की
जो आत्मा अनंत को दिखा सके
तब मिलेगा आनंद वह जो
है छिपा गहरे अंतरंग में।
- डॉ. माधवी सिंह


Friday, November 9, 2012

नग़मा-ए-शौक़..............मख़मूर सईदी

 
अब तक आए न अब वो आएँगे, कोई सरगोशियों में कहता है
ख़ूगरे-इंतिज़ार आँखों को, फिर भी इक इंतिज़ार रहता है

धड़कनें दिल की रुक सी जाती हैं, गर्दिशे-वक़्त थम सी जाती है
बर्फ़ गिरने लगे जो यादों की, जिस्म में रूह जम सी जाती है

इक सरापा जमाल के दिल में, मोजज़न जज़्बाऎ मोहब्बत है
चेहरा-ए-कायनात पर इस वक़्त, अव्वलीं सुबहा की लताफ़त है

मुस्कुराकर वो जान-ए-मोसीक़ी, मुझसे दम भर जो बोल लेती है
मुद्दतों के लिए इक अमृत सा, मेरे कानों में घोल देती है

हर नज़र में हैं लाख नज़्ज़ारे, हर नज़ारा नज़र की जन्नत है
दो मोहब्बत भरे दिलों के लिए, ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है

मुस्कुराती हुई निगाहों में, सरख़ुशी का चमन महकता है
तेरी इक इक अदा-ए-रंगीं से नश्शा-ए-दिलबरी टपकता है 

मुद्दतों बाद फिर उसी धुन में, नग़मा-ए-शौक़ दिल ने गाया है
जानेजाँ! तेरे ख़ैरमक़दम को, गुमशुदा वक़्त लौट आया है
   




शायर - मख़मूर सईदी

हमेशा देर कर देता हूँ मैं.......... मुनीर निआज़ी





ज़रूरी बात कहनी हो
कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

मदद करनी हो उस की
यार को ढाढस बंधाना हो

बहुत देरीना रस्तों पे
किसी से मिलने जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

बदलते मौसमों की सैर में

दिल को लगाना हो
किसी को याद रखना हो
किसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

किसी को मौत से पहले

किसी ग़म से बचाना हो
हकीकत और थी कुछ उस को
जा के यह बताना हो

हमेशा देर कर देता हूँ मैं

--मुनीर निआज़ी

Monday, November 5, 2012

सहेली रेत की...............प्रकाश मंगल सोहनी



हाँथो से फिसलती रेत से
पूछा मेंने इक बार-
'कौन हे तेरी सहेली?'



मुस्कुराकर रेत ने कहा,
'वही, जो संग तुम्हारे गाती है
उलझा कर तुम्हें गीतों में
धीरे से फिसल जाती है। '

'मुझमें उसमें फर्क है इतना,
मैं हकीकत, वो एक सना।
मेरी फिसलन दिखती है,
महसूस भी हो जाती है।'

'...पर वो निगोड़ी देकर अहसास,
सफर के साथ
फिसलकर हाँथों से
न जाने कहाँ खो जाती है,
मत पूछ उसका नाम
वो जिन्दगी कहलाती है.'


-प्रकाश मंगल सोहनी

Sunday, November 4, 2012

राधा अष्टमी है बुधवार को..... प्रेम से कहिये.... जय श्री राधे



राधे तू बड़ी भागनी , 
तैने कौन तपस्या कीन्ह // 
तीन लोक तारन तरण , 
सो तेरे आधीन// 
राधे - राधे जपे ते भव बाधा मिट जाए // 
कोटि जनम की आपदा 
राधा नाम से जाए // 
जय श्री राधे..........
राधा जी का जन्म दिन पर आप सभी को अशेष शुभ कामनाएँ

Monday, October 29, 2012

कभी तो झरो शब्द-बूंद.....स्मृति आदित्य

कभी तो झरो
मुझ पर
एक ऐसी शब्द-बूंद
कि मेरी मन-धरा पर
प्रस्फुटित हो जाए
शर्माया हुआ प्यार का कोमल अंकुर
सिर्फ तुम्हारे लिए।

कभी तो रचों
मेरे इर्द गिर्द
शब्द-फूलों का रंगीन समां
कि मैं महकने लगूं और
भर जाऊं खुशियों की गंध से
सिर्फ तुम्हारे लिए।
कभी तो आने दो
मेरे कजरारे बालों तक
नशीली
शब्द-बयार का झोंका
कि मेरे पोर-पोर में
खिल उठें
ताजातरीन कलियां
सिर्फ तुम्हारे लिए।

कभी तो पहनाओं
अपनी भावनाओं को
ऐसे शब्द-परिधान
कि ‍जिन्हें देखकर लहरा उठें
मेरे भीतर का भीगा सावन
सिर्फ तुम्हारे लिए।

मत बरसाओं मुझ पर
ऐसी शब्द-किरचें
कि होकर लहूलुहान
मैं, बस रिसते जख्म ही
ला सकूं
तुम्हारे लिए!


--स्मृति आदित्य

Sunday, October 28, 2012

प्रेम का मतलब तुम...............रविकांत






प्रेम-1 
प्रेम का मतलब है
तुम्हारे साथ रहना। 



 

प्रेम-2
तुम मुझे माफ नहीं करती
पर सारे अपमान पी कर भी
मैं तुम्हें मना लेता हूं।

हालांकि तुम कहती हो कि
इसका उल्टा ही सच है।

मैं बांहें फैलाकर
जरा-सा मुस्करा देता हूं।

प्रेम-3
तुम्हारे खिलाफ सुनी बहुत सी बातों पर
मुझे यकीन भी है।
पर उनकी चर्चा मैं तुमसे
कभी भी नहीं करूंगा।

पता नहीं ये बात
मेरे जेहन में है
या
तुम्हारे। 


--रविकांत

Thursday, October 25, 2012

तुम्हारी यादों के ज़ख्म है..........सुरेश पसारी "अधीर"


होती ही जा रही है, मेरी हर राह मुश्किल,
हर क़दम मुझे अब , दुश्वार होने लगा है।

चैन बहुत मिलता है ,अब तड़पने मे मुझे,
दर्द-ए-दिल ही ,दिल की दवा होने लगा है।

होने लगा खुद का ,वजुद भी मुझसे ज़ुदा,
ज़िन्दगी जबसे, तेरा सामना होने लगा है,

दुश्मनो से भी की ,दोस्ती की बात मैने,
पर फ़ासला ,अपनो से भी बढने लगा है।

इक तस्वीर हो गया है, इंसान दीवार पर,
इंसान भी अब ,क्या से क्या होने लगा है।

कुछ और नही ,तुम्हारी यादों के ज़ख्म है,
दर्द अब तो "अधीर", ज्यादा होने लगा है।

-सुरेश पसारी "अधीर"

Monday, October 22, 2012

जलजला है कोई तूफान के पीछे.........गोविन्द भारद्वाज



बेवफा चेहरे हैं मुस्कान के पीछे
राज गहरे हैं पहचान के पीछे

कश्तियाँ खामोश साहिल पर
जलजला है कोई तूफान के पीछे

कौन किसे दिलवाता है तमगे
साजिश छुपी है सम्मान के पीछे

अपनी जान का रखे वही ख्याल
फ़ना हो जाते हैं जो ईमान के पीछे

शहादत उनकी याद रखता गोविंद
हुए कुरबाँ जो हिन्दुस्तान के पीछे



--गोविन्द भारद्वाज

Saturday, October 20, 2012

माँ..................डॉ.ज़की तारिक



हुस्ने-तख़लीक का एक नग़मये रक़सां माँ है,
बज़्मे-तहज़ीब में उलफ़त का गुलिस्तां माँ है,


जिसकी आग़ोश में पलता है वुजूदे-आदम,
दरसे-अव्वल का वही एक दबिस्ताँ माँ है,


... उसके आँचल की हवा सायये रहमत जैसे,
ग़मे इन्सान के हर इक दर्द का दर्मा माँ है,


जब मसाइब की घटा घेर ले सारा माहौल,
सुब्ह उम्मीद का खुर्शीदे दुरखशां माँ है,


बाप बेशक है मसाइब से बचाने वाला,
ऐशो-इशरत की मगर नय्यरे ताबां माँ है,


ज़िन्दगी के ये कडे कोस..ये उलझी राहें,
इनसे घबराना अबस है के निगाहबां माँ है.


कोई मुश्किल है कहाँ मादरे मुश्फिक के तुफैल,
कोई भी दर्द हो..हर दर्द का दर्मा माँ है,


ए ज़की उस पे निसार अपने दिलो जानो जिगर,
अपने हर सांस की तकमील का सामां माँ है.



डॉ.ज़की तारिक..गाज़ियाबाद

Friday, October 19, 2012

आखिर है कौन ? ............अशोक पुनमिया

 ये जो
    हर हाल में
  "मौन" है !
    आखिर कौन है ?
आखिर कौन है ?
    'राजा' है
 या है 'मोहरा' ?
    सच पे है
 घना कोहरा !
    बेईमानो की यहाँ
 भीड़ बहुत है,
    दलालों के यहाँ
 'नीड़' बहुत है !
    बिगड़ गई है
 दशा,देश की,
    टूटी मर्यादा,
'श्वेत' भेष की !
    व्यवस्था सारी
 चौपट है,
    कुर्सियों पे
 चढ़े 'नट' है !
    घपलों का
ना और-छोर है,
    'चोर' कोई,
 कोई 'महा चोर' है !
    मोबाईल की
 'तरंगे' खा गए,
    खा गए
 कोयले की खान !
    विकलांगों की
बैसाखिया खा गए,
    खा गए अपना 'ईमान'!!
 ''रोबोट'' है,या
    उसका 'क्लोन' है ?
 ये जो
    हर हाल में
 "मौन" है !
    आखिर कौन है ?
 आखिर कौन है ?

---अशोक पुनमिया
http://ashokpunamia.blogspot.in/

Monday, October 15, 2012

प्राप्ति................. पण्डित सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

आज सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' की पुण्यतिथि है-

प्राप्ति
=====
तुम्हें खोजता था मैं,
पा नहीं सका,
हवा बन बहीं तुम, जब
मैं थका, रुका ।

मुझे भर लिया तुमने गोद में,

कितने चुम्बन दिये,
मेरे मानव-मनोविनोद में
नैसर्गिकता लिये;

सूखे श्रम-सीकर वे

छबि के निर्झर झरे नयनों से,
शक्त शिरा‌एँ हु‌ईं रक्त-वाह ले,
मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा
जब थका, रुका ।

~सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
साभा--
https://www.facebook.com/pages/Selected-Pearls-चुने-हुए-मोती

हर दिन की तरह मेरा उदास.......रणजीत भोंसले

'शाम होने को है लाल सूरज
समन्दर में खोने को है ..
हर दिन की तरह मेरा उदास
मन उनकी यादों में रोने को है ..
फिर कुछ बूंद आँसुओं की
समाएगी इस सागर में रोज की तरह ,,
पर मेरे मन का सागर न
खाली होगा इन आँसुओं से कभी .
पानी के साथ आँसू भी
बदल बन उड़ जाते है आसमां में ..
पर अब तक न बरस पाई
उसके आँगन में ना जाने क्यों .
बस ये उम्मीद कि कभी तो
बारिश बन बरसेगें ये आँसू उस पर .
शायद पिघल ही जाये उसका
दिल उन आँसुओं में छिपे दर्द से 


--प्रस्तुति करणःरणजीत भोंसले

Friday, October 5, 2012

यादों की मासूम तितली..............स्मृति जोशी "फाल्गुनी"

 हर वक्त हर हाल में
मेरे साथ रही
तुम्हारी यादों की तितली

उड़ती रही, मँडराती रही
हवा के संग फरफराती रही
तुम्हारी यादों की तितली

रंगबिरंगी और आकर्षक
नाजुक और खुशनुमा

पकड़ी नहीं जा सकी मुझसे
बस, जब भी पकड़ना चाहा
कठोर होकर,

ना जाने कितनी और
उग आई मुझमें ही
जैसे मैं भूल गई थी
उन्हें खुद में ही बो कर... !

उदासी के लंबे रेगिस्तान में
जब कोई नहीं था
मेरे पास
रही
बस वही ति‍तली
मेरे आसपास।

जब तक साँसों के क्यारी में
महक रही है
तुम्हारी नजरों की रातरानी

थिरकती रहेगी मुझमें
यादों की सुकोमल तितली

अनछुई और अधखिली
कुछ-कुछ सूखी, कुछ-कुछ गीली
यादों की मासूम तितली। 

-स्मृति जोशी "फाल्गुनी" 
 Feature Editor, Webdunia.com 

Sunday, September 30, 2012

नयन............दीप्ति शर्मा

वरालि सी हो चाँदनी
लज्जा की व्याकुलता हो
तेरे उभरे नयनों में ।
प्रिय विरह में व्याकुल
क्यों जल भर आये?
तेरे उभरे नयनों में ।
संचित कर हर प्रेम भाव
प्रिय मिलन की आस है
तेरे उभरे नयनों में ।
गहरी मन की वेदना
छुपी बातों की झलक दिखे
तेरे उभरे नयनों में ।
वनिता बन प्रियतम की
प्रिय के नयन समा जायें
तेरे उभरे नयनों में ।


© दीप्ति शर्मा

https://www.facebook.com/deepti09sharma

....बस हो गया प्यार?..........स्मृति जोशी "फाल्गुनी"

कैसे उग आए कांटे
तुम्हारी उस जुबान पर
जिस पर थमा रहता था
मेरे नाम का मधुर शहद,
ठंडे झरने की तरह मेरे गुस्से पर
झर-झर बरसने वाले तुम,


कैसे हो गए अचानक
तड़ातड़ पड़ते अंधड़ थपेड़े की तरह,
रिश्तों के रेगिस्तान में
मैंने तुमसे पाई
कितनी सुखद मीठी छांव,
और तुमने तपती गर्म रेत-से शब्दों से
कैसे छलनी कर देने वाले
किए वार,
बार-बार,
हर बार
....बस हो गया प्यार?



--स्मृति जोशी "फाल्गुनी" 

Friday, September 28, 2012

हरदम मुझे बहला दिया.........सुरेश पसारी 'अधीर'

मै तेरा हू, मै तेरा हूँ कहकर, हरदम मुझे बहला दिया ।
जब दिल हुआ उदास तो, दो बोल प्यार के सुना दिया।।

किसको कहता , कब तक सहता,
कब तक घुटता मै, मन ही मन में ,

कह दी जब कडवी बातें, अश्को का दरिया बहा दिया।
मै तेरा हू, मै तेरा हूँ, कहकर हरदम मुझे बहला दिया।।

सिसक सिसक कर रोता था मन,
तिल तिल करके मै जलता था ,

ठहराकर गुनहगार मुझे, गैरों का जामा पहना दिया।
मै तेरा हू, मै तेरा हूँ, कहकर, हरदम मुझे बहला दिया।।

वो धड़कन थी मेरी, दिल था मेरा,
हरदम मेरे ख्यालों में रहता था ,

करके दूर मुझे अपने से, मुझे खुद की जगह दिखा दिया।
मै तेरा हू, मै तेरा हूँ, कहकर, हरदम मुझे बहला दिया।।

दिल कहता है, अब भी मुझसे,
भूल जा तू वो सब, कड़वी बातें,

अहसान किया तुझपे जो,प्यार का मसीहा बना दिया।
मै तेरा हू, मै तेरा हूँ, कहकर, हरदम मुझे बहला दिया।। 


---सुरेश पसारी 'अधीर'

Tuesday, September 25, 2012

क्या प्रेम है मुझसे .............नीलू शर्मा



अजनबी नहीं हूँ सनम दिल से तेरे!
बस हाले-दिल जुबां से कहा नहीं करता!!

बसी है दिल में मेरे इबादत की तरह !
बस दर पर तेरे सनम बंदगी नहीं करता !!

बसती है दिल में सनम धड़कन की तरह !
बस साँसो के संग निकला नहीं करता !!

खूबसूरत है इतनी हरदम कहा करता हूँ !
बस किसी से सनम तेरी उपमा नहीं करता !!

देखता हूँ जब तुझे सनम लगती है ग़ज़ल !
शायर हूँ मैं फिर भी तुझ पर ग़ज़ल नहीं करता !!

क्या प्रेम है मुझसे सनम बस एक सवाल तेरा !
बस बंद करता हूँ पलकों को"प्रेम"है कहा नहीं करता !!


--नीलू शर्मा
 

Neelu Sharma 

Monday, September 24, 2012

आज विश्व बेटी दिवस है.......सुरेश पसारी "अधीर"



भोर की सुनहरी, किरण सी होती है बेटियाँ,
आंगन मे कोयल सी, चहचहाती है बेटियाँ।


बिन बेटियों के, सुना सा लगता है ये आंगन,
पुत्र घर की शान तो, कुल की आन है बेटियाँ।

कर देती है घर को, अपने व्यवहार से रौशन,
मगर व्यथा मन की, कह ना पाती है बेटियाँ।

पहले पिता का घर, फिर अपने ससुराल को,
प्यार से घरो को ,सजाती संवारती है बेटियाँ।

पढ बांच लेना इनके, भोले से सरल मन को ,
सर्वस्व वार देती है, कुलो की आन है बेटियाँ।

बाबुल के घर आंगन, फुदकती है चिरैया सी,
बहू बनके ससुराल की, शान होती है बेटियाँ।

कम ज्यादा का कभी, ये शिकवा नही करती,
जो मिला मिल बाँटकर, खा लेती है बेटियाँ।

उड़ान में तो गगन की, दूरियाँ भी पूरी करले
पर मन को कभी अपने, मार लेती है बेटियाँ।

है दिल मे तूफ़ान भी और सागर की गहराई भी
जिन्दगी की धूप मे शीतल सी छांव है बेटियाँ।

कम मत आंकना "अधीर" इन्के योगदान को,
दुनियाँ मे दो दो कुलों को,तार देती है बेटियाँ।
सुरेश पसारी "अधीर"