Wednesday, September 30, 2020

भीगना है बहुत जरूरी तब



बाद   मुद्दत    करार   आ   जाये ।
गर   तू  आये   बहार  आ   जाये ।।

भीगना   है   बहुत   जरूरी   तब ।
जब समुंदर  में  ज्वार  आ  जाये ।।

ऐ क़मर है सभी की ये ख़्वाहिश ।
उनके हिस्से  का प्यार आ  जाये ।।

इश्क़  के   मुन्तज़िर  हैं   दीवाने ।
बस  तेरा   इश्तिहार  आ  जाये ।।

बात दिल की तभी बयां  करना ।
आखों  में  जब ख़ुमार आ जाये ।।

तेरी हरक़त से एक दिन न कहीं ।
दोस्ती   में    दरार   आ   जाये ।।

पार   करना  तभी  मुनासिब  है ।
जब  नदी  में  उतार  आ  जाये ।।

मेरे  क़ातिल  तुम्हारे  ख़ंजर   में ।
इक  नई  तेज   धार  आ  जाये ।।

लीजिये  बस  दवा  सनम  से ही ।
इश्क़  का  जब  बुखार आ जाये ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी

अकेले खड़े हो ..सुजाता प्रिय

अकेले खड़े हो मुझे तुम बुला लो।

मायुस क्यों हो ,जरा मुस्कुरा लो।


रात है काली और अँधेरा घना है,

तम दूर होगा तू दीपक जला लो।


भरोसा न तोड़ो, मंजिल  मिलेगी,

जो मन में बुने हो सपने सजा लो।


देखो तो कितनी है रंगीन दुनियाँ,

इन रंगों को आ मन में बसा लो।


रूठा न करना कभी भी किसी से,

रूठे हुए को जरा तुम मना लो।


पराये को अपना बनाना  कला है,

अपनों को अपने दिल में बसालो।


बुराई किसी की तुम,मन में लाओ,

अच्छाईयों को भी अपना बना लो।


प्यार सिखाता जो,वह गीत गाओ,

झंकार करता , गजल गुनगुनाओ।

-सुजाता प्रिय 

Monday, September 28, 2020

पर खबरदार!!! अनर्थ को ललकारने से बचना ...प्रगति मिश्रा 'सधु'

अनर्थ को ललकारने से बचना

हूँ सहनशील पर इतना नहीं कि,

राह के पाषाण की तरह

कोई ठोकर मार दे...और

ढलमलाते एक कोने से

दूसरे कोने में जा गिरे...।


है धैर्य बेहद मूल्यों का

पर इतना नहीं कि;

समक्षी अपनी नैतिकता गटक जाए

और ताकते मुंह रह जाएं

चिर -चिरंतर तक।


है प्रवृति खुशमिजाज-सहृदय  सी पर,

इतना नहीं कि;

धृष्टों की धृष्टता पर , हंसी जाए।

मित्रवत व्यवहार किया जाए ।

दोमुहें सांपो के भीड़ में खड़ी,

लिए कटोरा दूध का

पर खबरदार!!!


अनर्थ को ललकारने से बचना।

हूँ नम्र पर इतना नहीं कि

नरम समझकर

खीरे- ककरी की तरह चबा जाओ

..........................................

पैर के नीचे से ज़मीन खीचनें की 
औकात हम रखते हैं

-प्रगति मिश्रा 'सधु' 

Saturday, September 26, 2020

स्याही की बूंद ....पावनी जानिब

मैं स्याही की बूंद हूं जिसने जैसा चाहा लिखा मुझे
मैं क्या हूं कोई ना जाने अपने मन सा गढा़ मुझे।


भटक रही हूं अक्षर बनकर महफिल से वीराने में
कोई मन की बात न समझा जैसा चाहा पढ़ा मुझे।


ना समझे वो प्यार की कीमत बोली खूब लगाई है
जैसे हो जागीर किसीकी दांव पे दिलके धरा मुझे।


बह जाए जज़्बात ना कैसे आज यू कोरे पन्नों पर
अरमानों की स्याही देकर कतरा कतरा भरा मुझे।


पढ़ना है तो कुछ ऐसा पढ़ रूह को राहत आ जाए
मैं तेरी ख्वाब ए ग़ज़ल हूं मत कर  खुदसे जुदा मुझे।


तुम चाहो तो शब्द सुरों सी शहनाई में गूंज उठूं 
जब दिल तेरा याद करे जानिब देना सदा मुझे।

-पावनी जानिब 

सीतापुर



Friday, September 25, 2020

किवाड़...रचनाकार की तलाश है

क्या आपको पता है ?
कि किवाड़ की जो जोड़ी होती है,
उसका एक पल्ला स्त्री और,
 दूसरा पल्ला पुरुष होता है।

ये घर की चौखट से जुड़े - जड़े रहते हैं।
हर आगत के स्वागत में खड़े रहते हैं।।
खुद को ये घर का सदस्य मानते हैं।
भीतर बाहर के हर रहस्य जानते हैं।।

एक रात उनके बीच था संवाद।
चोरों को लाख - लाख धन्यवाद।।
वर्ना घर के लोग हमारी ,
एक भी चलने नहीं देते।
हम रात को आपस में मिल तो जाते हैं,
हमें ये मिलने भी नहीं देते।।

घर की चौखट से साथ हम जुड़े हैं,
अगर जुड़े जड़े नहीं होते।
तो किसी दिन तेज आंधी -तूफान आता, 
तो तुम कहीं पड़ी होतीं,
हम कहीं और पड़े होते।।

चौखट से जो भी एकबार उखड़ा है।
वो वापस कभी भी नहीं जुड़ा है।।

इस घर में यह जो झरोखे ,
और खिड़कियाँ हैं।
यह सब हमारे लड़के,
 और लड़कियाँ हैं।।
तब ही तो,
इन्हें बिल्कुल खुला छोड़ देते हैं।
पूरे घर में जीवन रचा बसा रहे,
इसलिये ये आती जाती हवा को,
खेल ही खेल में ,
घर की तरफ मोड़ देते हैं।।

हम घर की सच्चाई छिपाते हैं।
घर की शोभा को बढ़ाते हैं।।
रहे भले कुछ भी खास नहीं , 
पर उससे ज्यादा बतलाते हैं।
इसीलिये घर में जब भी,
 कोई शुभ काम होता है।
सब से पहले हमीं को,
 रँगवाते पुतवाते हैं।।

पहले नहीं थी,
डोर बेल बजाने की प्रवृति।
हमने जीवित रखा था जीवन मूल्य, 
संस्कार और अपनी संस्कृति।।

बड़े बाबू जी जब भी आते थे,
कुछ अलग सी साँकल बजाते थे।
आ गये हैं बाबूजी,
सब के सब घर के जान जाते थे ।।
बहुयें अपने हाथ का,
 हर काम छोड़ देती थी।
उनके आने की आहट पा,
आदर में घूँघट ओढ़ लेती थी।।

अब तो कॉलोनी के किसी भी घर में,
किवाड़ रहे ही नहीं दो पल्ले के।
घर नहीं अब फ्लैट हैं ,
गेट हैं इक पल्ले के।।
खुलते हैं सिर्फ एक झटके से।
पूरा घर दिखता बेखटके से।।

दो पल्ले के किवाड़ में,
एक पल्ले की आड़ में ,
घर की बेटी या नव वधु,
किसी भी आगन्तुक को ,
जो वो पूछता बता देती थीं।
अपना चेहरा व शरीर छिपा लेती थीं।।

अब तो धड़ल्ले से खुलता है ,
एक पल्ले का किवाड़।
न कोई पर्दा न कोई आड़।।
गंदी नजर ,बुरी नीयत, बुरे संस्कार,
सब एक साथ भीतर आते हैं ।
फिर कभी बाहर नहीं जाते हैं।।

कितना बड़ा आ गया है बदलाव?
अच्छे भाव का अभाव।
 स्पष्ट दिखता है कुप्रभाव।।

सब हुआ चुपचाप,
बिन किसी हल्ले गुल्ले के।
बदल दिये किवाड़,
हर घर के मुहल्ले के।।

अब घरों में दो पल्ले के ,
किवाड़ कोई नहीं लगवाता।
एक पल्ली ही अब,
हर घर की शोभा है बढ़ाता।।

अपनों में नहीं रहा वो अपनापन।
एकाकी सोच हर एक की है , 
एकाकी मन है व स्वार्थी जन।।
अपने आप में हर कोई ,
रहना चाहता है मस्त,
 बिल्कुल ही इकलल्ला।
इसलिये ही हर घर के किवाड़ में,
दिखता है सिर्फ़ एक ही पल्ला!!

यह रचना मुझे व्हाट्सएपप पर मिली
ऐसा मैं महसूस करती हूँ किसी के ब्लॉग की रचना है
जिसने भी लिखी है ये लाज़वाब रचना
उन्हें साधुवाद..
यदि वे चाहें तो उनका नाम लिख सकती हूँ


Thursday, September 24, 2020

मुझे जलाना ऐसे धुआं न निकले...पावनी जानिब

कुछ इस तरह मैं करूं मोहब्बत
सम्हल के भी तू कभी न सम्हले

बस इतना हो जब उठे जनाजा
हमारा और दम तुम्हारा निकले।


मैं टूट जाऊं तो गम नहीं है
सितम ये तेरा सितम नहीं है।

बदल गए कुछ बदल भी जाओ
हमारे दिल की वफ़ा न बदले।


इक बार सो के कभी जगे ना
सुना है एक ऐसी नींद भी है 

मैं चैन से तब सो सकूं जब
तुम्हारे लब से दुआ न निकले ।


फिर हम मिलें न मिल पाएं
मेरी खता की सजा सुना दो

भर जाए दिल जब किसी से तो
कैसे मुमकिन खता न निकले।


कहोगे क्या तुम अपने दिल से
भुलाओगे किस तरह से हमको

के दूर जाओगे कैसे मुझसे कहीं
दिल तेरा मेंरा पता न निकले।


मैं एक ग़ज़ल किताब ए ,जानिब,
पढ़ो य कागज स तुम जाला दो

रुसवाईयां हो जाएं न तेरी मुझे
जलाना ऐसे धुआं न निकले।

-पावनी जानिब सीतापुर

Tuesday, September 22, 2020

इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता ....अज्ञात

इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता ....अज्ञात 

मस्जिद पे गिरता है
मंदिर पे भी बरसता है..
ए बादल बता तेरा मजहब कौन सा है........।।

इमाम की तू प्यास बुझाए
पुजारी की भी तृष्णा मिटाए..
ए पानी बता तेरा मजहब कौन सा है.... ।।

मज़ारों की शान बढाता है
मूर्तियों को भी सजाता है..
ए फूल बता तेरा मजहब कौन सा है........।।

सारे जहाँ को रोशन करता है
सृष्टि को उजाला देता है..
ए सूरज बता तेरा मजहब कौन सा है.........।।

मुस्लिम तूझ पे कब्र बनाता है
हिंदू आखिर तूझ में ही विलीन होता है..
ए मिट्टी बता तेरा मजहब कौन सा है......।।

ऐ दोस्त मजहब से दूर हटकर,
इंसान बनो
क्योंकि इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता... ।।

-रचनाकार 

अज्ञात

Sunday, September 20, 2020

मैं ने जल को जल कहा, लोगों ने मछली सुना - हृदयेश मयंक

आज यूं हीं कुछ ........

हमेशा

सच को सच कहा

झूठ को झूठ

रहा जहां भी

पूरा रहा

नहीं होना था जहां

नहीं रहा कभी भी.

कोशिश की निभाने की

जीवन से

और रिश्तों से भी

नहीं रहा अबूझा

जीवन और रिश्तों में कहीं भी,कभी भी.

सहन शक्ति में

पूरे का पूरा गांव  था

गांव में किसान

खेतों में फसल बन जिया

बैलों की तरह सौंपता रहा कंधा

हांकते रहे किसिम किसिम के हलवाहे .

जल को जल कहा

लोगों नें  मछली सुना

आग और सूर्य  को समझा  जीवन स्रोत

लोग तापते रहे ईंधन की तरह

नींद और अंधेरों में  इंतज़ार किया

सुबह का. ( जो अभी तक नहीं आई )

जानते पहचानते हुए भी

चुप रहा  हर बार

लोगों नें कमजोरी समझी

और मैंनें शालीनता पर गर्व किया

हारा ग़ैरों से नहीं

अपनों नें हराया बार बार .

यही सब करते करते

जीया अबतक तमाम उम्र

सोचता हूँ कि

बीत जायें और शेष कुछ वर्ष

इसी तरह यूं हीं

अच्छे, भले, बुरों में।

( 69वें जन्मदिन की पूर्व संध्या पर  )

17 -09-2020

-हृदयेश मयंक

 

Saturday, September 19, 2020

झट से कह दो प्यार नहीं है ...कौशल शुक्ला

 

यदि तुमको स्वीकार नहीं है।

झट से कह दो प्यार नहीं है।।


बातों में मत यूँ उलझाओ

प्रेम करो अथवा ठुकराओ

तुम तो मोल-भाव करती हो

प्रेम कोई व्यापार नहीं है।

झट से कह दो प्यार नहीं है।।


मुँह से आह कढ़ी जाती है

हद से बात बढ़ी जाती है

क्योंकर मुझको झेल रही हो

जब दिल ही तैयार नहीं है।

झट से कह दो प्यार नहीं है।।


सुख की गंध तुम्हें प्यारी है

दुःख का बोझ बहुत भारी है

हर कठिनाई डटकर झेलें

जीवन का आधार यही है।

झट से कह दो प्यार नहीं है।।


तुम्हें पता है मैं कैसा हूँ

मैं पहले से ही ऐसा हूँ

सच्चाई स्वीकार करो यह

सपनों का संसार नहीं है।

झट से कह दो प्यार नहीं है।।


मैं तेरी बातों में आकर

माँ को छोड़ तुम्हें अपनाकर

तेरे आगे पूँछ हिलाऊँ

यह मेरा व्यवहार नहीं है।

झट से कह दो प्यार नहीं है।।


तुमको समझा कर मैं हारा

उड़न-खटोला तुमको प्यारा

जिसपर तुमको रोज घुमाउँ

मेरे घर वह कार नहीं है।

झट से कह दो प्यार नहीं है।।


एक बात तुमको बतला दूँ

कह दो तो मैं गाँठ लगा दूँ

तेरे कारण दुनियाँ छोड़ूँ

मुझको यह अधिकार नहीं है।

झट से कह दो प्यार नहीं है।।


झूठ-मूठ मत प्यार जताओ

नई राह कोई अपनाओ

मैं अपने रस्ते जाता हूँ

तुम पर कोई भार नहीं है।

झट से कह दो प्यार नहीं है।।


समय नहीं बर्बाद करो तुम

खुद को अब आज़ाद करो तुम

ढूंढो कोई मीत निराला

मुझको कुछ प्रतिकार नहीं है

झट से कह दो प्यार नहीं है।।

-कौशल शुक्ला

मूल रचना



Friday, September 18, 2020

क्या जरूरत थी आपको मेरी....डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी

2122 1212 22
दिल्लगी सिर्फ इक बहाना था।
उनका मकसद तो आज़माना था।।

मैं तो लूटा गया उन्हीं  से फिर ।
जिनसे  रिश्ता  बहुत  पुराना था ।।

तोड़  डाला   उसी  ने   दिल   देखो ।
जिसका दिल मे ही आना जाना था ।।

हो  गई  कहकशाँ में जब  साजिश ।
इक सितारे को टूट जाना था ।।

तेरी यादें भी कितनी ज़ालिम थीं ।
रात भर अश्क़ को बहाना था ।।

मौत  के  बाद  आये  हैं जिनको ।
दम निकलने से पहले आना था ।।

चार कंधे नसीब भी न हुए ।
साथ जिसके खड़ा जमाना था ।।

रिन्द प्यासा गया तेरे दर से ।
जाम कुछ तो उसे पिलाना था ।।

क्या जरूरत थी आपको मेरी ।
आसमा सर पे जब उठाना था ।।
-डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी

Thursday, September 17, 2020

चाँद की बन्दगी नहीं होती..डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी

2122 1212 22
तुमसे गर आशिक़ी नहीं होती ।
सच  कहूँ  शाइरी  नहीं  होती ।।

तुम  अगर ख़्वाब  में नहीं आते ।
लेखनी   यूँ  चली  नहीं   होती ।।

जो न  अंजाम  तक पहुंच  पाए ।
वो  मुहब्बत  भली  नहीं  होती ।।

क़ैद ए उल्फ़त से छूट जाता मैं।
काश  नजरें  पढ़ी  नहीं  होती ।।

रोज़  जाता  हूँ  मैकदे  तक  मैं ।
पर  कोई  मयकशी नहीं  होती ।।

उनसे इज़हारे इश्क़ कर लूं मैं ।
मेरी हिम्मत कभी नहीं होती ।।

कुछ तो तुम भी क़रीब आ जाओ ।
बारहा बेबसी नहीं होती ।।

 चैन से रात भर मैं सो लेता ।
गर वो खिड़की खुली नहीं होती ।।

स्याह रातों का है असर साहिब ।
चाँद की बन्दगी नहीं होती ।।
-डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी

Wednesday, September 16, 2020

अनुनाद .....विमलेन्दु

एक तितली गूँजती है
फूल की पंखुड़ियों पर
तो रंग खिलखिलाते हैं ।
चन्द्रमा गूँजता है
पृथ्वी की कक्षा में 
तो रोशनी मुस्कुराती है
गहरी रात में भी ।
धरती के भार में गूँजता है बीज
तो साँसें लय मे होकर
आ जाती हैं सम पर ।
समुद्र के भीतर गूँजता है अतल
तो पानी का संगीत बजता है ।
भोर की पत्ती पर
गूँजती है ओस की बूँद
तो सूरज जागता है ।
देह के भीतर
गूँजती है देह
तो जनमता है
जीवन का अनुनाद ।
-विमलेन्दु

Friday, September 11, 2020

अब अना से बढ़ रहीं नज़दीकियां...-डॉ.नवीन मणि त्रिपाठी


2122 2122 212
मत  कहो हमसे  जुदा  हो  जाएगा ।
वह  मुहब्बत  में  फ़ना हो  जाएगा ।।

इश्क  के  इस दौर में दिल आपका ।
एक  दिन  मेरा   पता  हो  जाएगा ।।

धड़कनो   के   दरमियाँ  है  जिंदगी ।
धड़कनो का सिलसिला हो जाएगा ।।

इस  तरह  उसने  निभाई  है कसम ।
वह   हमारा    देवता   हो  जाएगा ।।

ऐ   दिले  नादां  न  कर  मजबूर  तू ।
वो  मेरी ज़िद पर ख़फ़ा हो जाएगा ।।

पत्थरो को  फेंक कर  तुम  देख लो ।
आब  का  ये कद  बड़ा हो जाएगा ।।

मत निकलिए इस तरह से बेनकाब ।
फिर  चमन में  हादसा  हो  जाएगा ।।

अब अना से बढ़  रहीं  नज़दीकियां ।
रहमतों   से   फ़ासला  हो  जाएगा ।।
-डॉ.नवीन मणि त्रिपाठी

Thursday, September 10, 2020

शैल चतुर्वेदी..... एक आल इन वन कवि



शैल चतुर्वेदी
29 जून 1936 -29 अक्टूबर 2007
आप हिंदी के प्रसिद्ध हास्य कवि, गीतकार
और बॉलीवुड के चरित्र अभिनेता थे। 

प्रस्तुत है उनकी एक व्यंग्य कविता
हमनें एक बेरोज़गार मित्र को पकड़ा
और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?"
तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।"
खाना खिलाया तो बोला, "पान खिलाओ।"
पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था
उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ।
अपन ख़ुद ही देश की छाती पर जीते-जागते व्यंग्य हैं
हमें व्यंग्य मत सुनाओ
जो जन-सेवा के नाम पर ऐश करता रहा
और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर
कुर्सी को कैश करता रहा।

व्यंग्य उस अफ़सर को सुनाओ
जो हिन्दी के प्रचार की डफली बजाता रहा
और अपनी औलाद को अंग्रेज़ी का पाठ पढ़ाता रहा।
व्यंग्य उस सिपाही को सुनाओ
जो भ्रष्टाचार को अपना अधिकार मानता रहा
और झूठी गवाही को पुलिस का संस्कार मानता रहा।
व्यंग्य उस डॉक्टर को सुनाओ
जो पचास रूपये फ़ीस के लेकर
मलेरिया को टी०बी० बतलाता रहा
और नर्स को अपनी बीबी बतलाता रहा।

व्यंग्य उस फ़िल्मकार को सुनाओ
जो फ़िल्म में से इल्म घटाता रहा
और संस्कृति के कपड़े उतार कर सेंसर को पटाता रहा।
व्यंग्य उस सास को सुनाओ
जिसने बेटी जैसी बहू को ज्वाला का उपहार दिया
और व्यंग्य उस वासना के कीड़े को सुनाओ
जिसने अपनी भूख मिटाने के लिए
नारी को बाज़ार दिया।
व्यंग्य उस श्रोता को सुनाओ
जो गीत की हर पंक्ति पर बोर-बोर करता रहा
और बकवास को बढ़ावा देने के लिए
वंस मोर करता रहा।

व्यंग्य उस व्यंग्यकार को सुनाओ
जो अर्थ को अनर्थ में बदलने के लिए
वज़नदार लिफ़ाफ़े की मांग करता रहा
और अपना उल्लू सीधा करने के लिए
व्यंग्य को विकलांग करता रहा।

और जो व्यंग्य स्वयं ही अन्धा, लूला और लंगड़ा हो
तीर नहीं बन सकता
आज का व्यंग्यकार भले ही "शैल चतुर्वेदी" हो जाए
'कबीर' नहीं बन सकता।

-  शैल चतुर्वेदी

Wednesday, September 9, 2020

"मायका" पुराना नही होता ...अमृता प्रीतम

सुविख्यात पंजाबी लेखिका 
अमृता प्रीतम जी ने 
"मायके" पर क्या खूब लिखा है:

------------------------------
रिश्ते पुराने होते हैं 
पर "मायका" पुराना नही होता 

जब भी जाओ .....
अलाय बलायें टल जाये 
यह दुआयें मांगी जाती हैं 



यहां वहां बचपन के कतरे बिखरे होते है 
कही हंसी कही खुशी कही आंसू सिमटे होते हैं 



बचपन का गिलास....कटोरी ....
खाने का स्वाद बढ़ा देते हैं 
अलबम की तस्वीरें 
कई किस्से याद दिला देते हैं 



सामान कितना भी समेटू 
कुछ ना कुछ छूट जाता है 
सब ध्यान से रख लेना 
हिदायत पिता की ....
कैसे कहूं सामान तो  नही 
पर दिल का एक हिस्सा यही छूट जाता है 



आते वक्त माँ, आँचल मेवों से भर देती हैं 
खुश रहना कह कर अपने आँचल मे भर लेती  है ....



आ जाती हूँ मुस्करा कर मैं भी 
कुछ ना कुछ छोड कर अपना



रिश्ते पुराने होते हैं 
जाने क्यों मायका पुराना नही होता 
उस  देहरी को छोडना हर बार ....आसान नही होता।


- अमृता प्रीतम
साभार कुसुम शुक्ला

Tuesday, September 8, 2020

बदलता हुआ वक़्त ....राजीव डोगरा ’विमल’

 

वक़्त के पन्नों पर

सब कुछ बदल जाएगा

जो लिखा है नसीब में

वो भी मिल जाएगा।

सोचा न था जो कभी

वो भी कुछ-कुछ

खोकर मिल ही जाएगा।

सँभाल सकते हो तो

सँभाल लेना उस वक़्त को

जो खोने वाला है।

क्योंकि खोए हुए

वक़्त के साथ

अपने भी खो जाते हैं

और पराए भी

अपने बन जाते हैं।

मगर याद रखना

बदलते हुए

वक़्त के साथ

तुम भी बदल मत जाना,

पकड़ा है

जो हाथ हमारा

छोड़ कर किसी और के

न हो जाना। 

-राजीव डोगरा ’विमल’


Monday, September 7, 2020

पारिजात... रंजना जैन

गिरे धरा पर पुष्प देखकर

मन आया पूछूँ फूलों से

बंद कली से तुम खिलने में

रूप रंग से सजने में

फिर सुगंध  रस भरने में 

जितना समय लगाते हो

उतना हक़ नहीं जीने का

अल्प अवधि रह पाते हो! 

 

फूलों ने की अलग कहानी 

अर्थ नहीं जीवन मनमानी

लाना यदि परिणाम निराला

बनना पड़ता है मतवाला

पीकर सोम मधुर रस अंतर

बन आकार पूर्ण अति सुंदर

सुखानंद की मंशा लेकर

गिर पड़ते झट डाली से

नये पुष्प भर जाने को! 

  

सार यही मानव जीवन का

मोल नहीं लम्बे छोटे का

तत्व यही ज़िंदा होने का

फैला दे जो लघु जीवन में

शिव सुन्दर का शुभ संदेश

महका दे सारे उपवन को

पथ में बिखरें फूल अनेक॥ 

-रंजना जैन

-

Sunday, September 6, 2020

शिकायत रह गयी अधूरी.....प्रीती श्री वास्तव

इस दिल की चाहत रह गयी अधूरी।
तेरे इश्क की इबादत रह गयी अधूरी।।

मेरे महबूब जरा फिर शरारत न कर।
छुपा छुपी में मुहब्बत रह गयी अधूरी।।

चाँद को तकती रही मैं तो रात भर।
बदली की हिफाजत रह गयी अधूरी।।

गरज उठे जो बादल जमीं के लिये।
मौसम की हिदायत रह गयी अधूरी।।

दिल में जगे जज्बात जो तेरे खातिर।
रूठ जाने की आदत रह गयी अधूरी।।

शिकवा न करना मुझसे मेरी जफा का।
दूर जाने की शिकायत रह गयी अधूरी।।
-प्रीती श्री वास्तव

Saturday, September 5, 2020

रेत पर पदचिन्ह ..कौशल शुक्ला

'दो घड़ी भी टिक सकेगा' क्या कभी तुमने विचारा?
रेत पर पदचिन्ह तेरे और सागर का किनारा।।

जिंदगी के रास्तों पर सैकडों दुश्वारियां हैं
मुश्किलों से जूझने की क्या तेरी तैयारियाँ हैं
पथ जरा समतल मिला तुम भूल बैठे कंटकों को
लक्ष्य को पाने से पहले लाख जिम्मेदारियां हैं

धैर्य खोकर चाहते हो भाग्य का चमके सितारा।
रेत पर पदचिह्न तेरे और सागर का किनारा।।

दैव ने तुमको दिए दो हाथ इनको खोल देखो
पाँव को मजबूत कर लो, अड़चनों का मोल देखो
जान लो क्या खूबियाँ भगवान ने तुझमें भरी हैं
आँख मंजिल पर टिकाकर, जिंदगी को तोल देखो

तूँ अकेला ही बढ़ा चल ढूँढ मत कोई सहारा।
रेत पर पदचिन्ह तेरे और सागर का किनारा।।

पर्वतों को काट करके रास्ता अपना बना लो
ठोकरों से राह के सब पत्थरों को तुम उछालो

छोड़ दो पदचिन्ह पीछे जो मिटाए भी मिटे ना
जिंदगी है जंग, हँसकर हमसफ़र इसको बना लो

'आँख से पर्दा हटा लो' वक्त ने तुमको पुकारा।
रेत पर पदचिन्ह तेरे और सागर का किनारा।।
-कौशल शुक्ला