Saturday, September 30, 2017

रो रोकर जीते है गैरों की महफिल में.....प्रीती श्रीवास्तव

हुई अंजुमन मे आपकी रात आधी !
रह गई मुलाकात आधी बात आधी!!

हाथ जो बढ़ाया हमने खफा हो गये!
महफिल से हुई रूखसत बारात आधी!!

नजरे उठायी जो बहकने लगे कदम!
खता हो गई थी चांदनी रात आधी!!

करवट बदलते ही सहर हो गई साहिब !
करार आया कहां था थी बात आधी!!

फिर मिलने का वादा करके चले वो!
रो रही थी हर कली कायनात आधी!!

मुड़कर जो देखा मुझे करार आ गया !
कह गये वो मेरी हर सौगात आधी!!

यादें है अब पास उनकी मेरे रहबर !
फाड़ दी तस्वीर तहरीर किताब आधी !!

रो रोकर जीते है गैरों की महफिल में !
होती रही तुमसे अक्सर मुलाकात आधी !!

मुमकिन कहां है अब मक्का-मदीना!
पहुंचती रही हर बार मेरी आवाज आधी !!

-प्रीती श्रीवास्तव

Friday, September 29, 2017

कुछ फुटकर शेर....राम नारायण हलधर

दर्द घुटनों का मेरा जाता रहा ये देख कर
थामकर ऊँगली नवासा सीढ़ियां चढ़ने लगा 
*** 
बरी हो कर मेरा क़ातिल सभी के सामने खुश है 
अकेले में फ़फ़क कर रो पड़ेगा , देखना इक दिन 
*** 
मौन के शूल को पंखुड़ी से छुआ 
मुस्कुराने से मुश्किल सरल हो गयी
*** 
कभी है "चौथ" उलझन में, कभी रोज़े परेशां हैं 
किसी दिन चाँद के ख़ातिर, बड़ी दीवार टूटेगी
*** 
तेरा वादा सियासतदान ऐसा खोटा सिक्का है 
जिसे अँधा भिखारी भी सड़क पर फेंक देता है
-राम नारायण हलधर

Thursday, September 28, 2017

सोच रहा है इतना क्यूँ .......शाहीद कमाल

सोच रहा है इतना क्यूँ ऐ दस्त-ए-बे-ताख़ीर निकाल
तू ने अपने तरकश में जो रक्खा है वो तीर निकाल 

जिस का कुछ अंजाम नहीं वो जंग है दो नक़्क़ादों की 
लफ़्ज़ों की सफ़्फ़ाक सिनानें लहजों की शमशीर निकाल 

आशोब-ए-तख़रीब सा कुछ इस अंदाम-ए-तख़्लीक़ में है 
तोड़ मिरे दीवार-ओ-दर को एक नई ता'मीर निकाल 

चाँद सितारों की खेती कर रात की बंजर धरती पर 
आँख के इस सूखे दरिया से ख़्वाबों की ताबीर निकाल 

तेरे इस एहसान से मेरी ग़ैरत का दम घुटता है 
मेरे इन पैरों से अपनी शोहरत की ज़ंजीर निकाल 

रोज़ की आपा-धापी से कुछ वक़्त चुरा कर लाए हैं 
यार ज़रा हम दोनों की इक अच्छी सी तस्वीर निकाल 

'शाहिद' अब ये आलम है इस अहद-ए-सुख़न-अर्ज़ानी का 
'मीर' पे कर ईराद भी उस पे 'ग़ालिब' की तफ़्सीर निकाल 
- शाहीद कमाल

Wednesday, September 27, 2017

हाले दिल पहाड़ो के..... प्रकाश


जब तनहाई में मुझको 
तेरी याद सताती है,  
तेरे ख्याल आते हैं.....
ये पहाड़ भावुकता से मुझे 
अपना हाले दिल सुनाते हैं....

कहते मुझसे -
हम भी खड़े सदियों से 
किसी के इन्तजार में 
हम भी डूबे थे 
कभी किसी के प्यार में 
हमारा प्यार अपने आप में 
एक राज भी है 
इसलिए उसकी वफा पर यकीं 
हमें आज भी है 

फिर तू क्यों इतना बेचैन हो रहा 
चंद दिनों में अपना चैन खो रहा 
तू भी मजा ले हमारी तरह 
अपने इन्तजार का 
आज परीक्षा है पगले 
तेरे सच्चे प्यार का 

मैंनें सोचा - ये पहाड़ 
भले पत्थर के होते हैं 
इनके सीने में भी दफन 
कई जज़्बात होते हैं 
दिल भी हमारी तरह 
धड़कता इनके सीने में 
ये जहां में सबसे माहिर 
अपना दर्द पीने में 
नहीं शिकायत तनहाई से 
जब अकेले होते हैं 
अपना दर्द छुपा-छुपा कर 
चुपचाप पिघल कर रोते हैं 

और मैं 
प्यार की परिभाषा में 
कितना पीछे छूट रहा हूँ 
कुछ दिनों की तनहाई में 
इतनी जल्दी टूट रहा हूँ.....

-प्रकाश.... 
पेंगॉन, लेह
28.06.17

Tuesday, September 26, 2017

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है ,,,,,,,दुष्यंत कुमार

1933-1975
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

~  दुष्यंत कुमार

Monday, September 25, 2017

ज़िंदगी है प्रकृति .....रुजुला शर्मा


हर जीव की ज़िंदगी है प्रकृति 
एक प्यारी डोर है प्रकृति
ये डोर कहीं टूट ना जाए
ये अनर्थ कभी होने ना पाये

कभी ज़िंदगी संवारने का 
तो कभी बिगाड़ने का
कभी फूलों को महकाने का
तो कभी भूकंप से डराने का

हमने तेरे हर रूप को है देखा
और बस यही है सीखा
तेरा हर रूप निराला है
तू ही हमारी ज़िंदगी का सहारा है

- रुजुला शर्मा 

Sunday, September 24, 2017

क्या एक बेटी को बचा नहीं सकते....ऋतु पंचाल


मैं आज की नारी हूँ, 
ये न समझना कि मैं बेचारी हूँ, 
अबला हूँ, समझकर अत्याचार न करना, 
बेचारी हूँ, समझकर बुरा व्यवहार न करना, 
मुझ पर हाथ उठाओगे तो सौ हाथ उठेंगे, 
एक सिर झुकाऊॅंगी तो सौ सिर झुकेंगे।

बहुत अत्याचार तुम्हारा सह चुकी, 
जो कहना था वो मैं कह चुकी, 
अब मुझे और न सताना, 
मुझे दोबारा न पड़े, ये बताना। 

कभी दबाव डालते हो, 
कभी पढ़ने नहीं देते, 
मुझे सपनों की चढ़ाई चढ़ने नहीं देते, 
नन्हीं जान को पैदा होने से पहले मार देते हो, 
बेटों पर अपनी जान भी वार देते हो । 
कल से मेरी आँखों में, 
एक आँसूं भी नहीं आएगा, 
कल से मेरे जीवन पर दुखों का अंधेरा नहीं छाएगा। 

हो गई हूँ, मैं जागरुक आज, 
जान गई हूँ, स्वार्थी है ये समाज, 
दोगले तर्कों से पूर्णतया संतप्त - 
घर में दुख हो तो मेरी बदकिस्मती होती है! 
अगर घर में आयें खुशियां, 
तो क्यों नहीं मेरी खुश-किस्मती होती? 
क्यों रहता है, मेरा जीवन सूना, 
क्यों मिलता है मुझे दुख दूना, 

पर अब ऐसा नहीं होगा, 
क्योंकि ऐसा मैं होने नहीं दूँगी, 
दुखों के साए में खुशियों को खोने नहीं दूँगी। 

जानते हो न, 
जिनका कोई आदर न करता हो, 
वो दूसरों का सत्कार नहीं करते। 
जिनके दिल में नफ़रत भरी हो, 
वो दूसरों से प्यार नहीं करते। 
रोज़-रोज़ ये ख़बरें छपें अख़बारों में, 
एक लड़की को ज़लील किया जाता है भरे बाज़ारों में, 
सब चुपचाप खड़े ताकते रहते हैं, 
कितना डरते हैं, 
बस यूँ ही झांकते रहते हैं, 
क्या एक आवाज़ उठा नहीं सकते? 
क्या एक बेटी को बचा नहीं सकते? 

अब मुझे खुद को ही काबिल बनाना पड़ेगा, 
मुझे खुद ही कुछ करके दिखाना पड़ेगा, 
अब तुम्हारे भरोसे नहीं रहूंगी, 
कोई मदद करो ये नहीं कहूंगी। 

मुझ में भी जान होती है, 
मेरी भी एक पहचान होती है, 
अब मैं अपने इरादों को 
जज़्बातों की आग में जलने नहीं दूंगी, 
अब मैं अपनी ज़िन्दगी को 
उदासी के राग में ढलने नहीं दूंगी। 
देखती हूँ, 
अब कौन आएगा मेरी राह में, 
अब नहीं हूँ, 
किसी की दया की चाह में, 
क्योंकि मैं आज की नारी हूँ, 
ये न समझना कि मैं बेचारी हूँ। 
-ऋतु पंचाल
कुमारी ऋतु पंचाल, जिसकी उम्र मात्र तेरह वर्ष, 
नमन करती हूँ इनके साहित्यिक गुरु को... 
इनके उज्जवल भविष्य की शुभ कामनाएँ

Saturday, September 23, 2017

मैं, कीर्ति, श्री, मेधा, धृति और क्षमा हूं... स्मृति आदित्य



एक मधुर सुगंधित आहट। आहट त्योहार की। आहट रास, उल्लास और श्रृंगार की। आहट आस्था, अध्यात्म और उच्च आदर्शों के प्रतिस्थापन की। एक मौसम विदा होता है और सुंदर सुकोमल फूलों की वादियों के बीच खुल जाती है श्रृंखला त्योहारों की। श्रृंखला जो बिखेरती है चारों तरफ खुशियों के खूब सारे खिलते-खिलखिलाते रंग।

हर रंग में एक आस है, विश्वास और अहसास है। हर पर्व में संस्कृति है, सुरूचि और सौंदर्य है। ये पर्व न सिर्फ कलात्मक अभिव्यक्ति के परिचायक हैं, अपितु इनमें गुंथी हैं, सांस्कृतिक परंपराएं, महानतम संदेश और उच्चतम आदर्शों की भव्य स्मृतियां। इन सबके केंद्र में सुव्यक्त होती है -शक्ति। उस दिव्य शक्ति के बिना किसी त्योहार, किसी पर्व, किसी रंग और किसी उमंग की कल्पना संभव नहीं है।
-
'कीर्ति: श्री वार्क्च नारीणां 
स्मृति मेर्धा धृति: क्षमा।'   

अर्थात नारी में मैं, कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूं। दूसरे शब्दों में इन नारायण तत्वों से निर्मित नारी ही नारायणी है। संपूर्ण विश्व में भारत ही वह पवित्र भूमि है, जहाँ नारी अपने श्रेष्ठतम रूपों में अभिव्यक्त हुई है।   

आर्य संस्कृति में भी नारी का अतिविशिष्ट स्थान रहा है। आर्य चिंतन में तीन अनादि तत्व माने गए हैं - परब्रह्म, माया और जीव। माया, परब्रह्म की आदिशक्ति है एवं जीवन के सभी क्रियाकलाप उसी की इच्छाशक्ति होते हैं। ऋग्वेद में माया को ही आदिशक्ति कहा गया है उसका रूप अत्यंत तेजस्वी और ऊर्जावान है।  

फिर भी वह परम कारूणिक और कोमल है। जड़-चेतन सभी पर वह निस्पृह और निष्पक्ष भाव से अपनी करूणा बरसाती है। प्राणी मात्र में आशा और शक्ति का संचार करती है।   

'अहं राष्ट्री संगमती बसना 
अहं रूद्राय धनुरातीमि'   

अर्थात् - 
'मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं। मैं ही रूद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं । धरती, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए संग्राम करती हूं।'  

विविध अंश रूपों में यही आदिशक्ति सभी देवताओं की परम शक्ति कहलाती हैं, जिसके बिना वे सब अपूर्ण हैं, अकेले हैं, अधूरे हैं।   

हमारी यशस्वी संस्कृति स्त्री को कई आकर्षक संबोधन देती है। मां कल्याणी है, वही पत्नी गृहलक्ष्मी है। बिटिया राजनंदिनी है और नवेली बहू के कुंकुम चरण ऐश्वर्य लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है। हर रूप में वह आराध्या है।  

पौराणिक आख्यान कहते हैं कि अनादिकाल से नैसर्गिक अधिकार उसे स्वत: ही प्राप्त हैं। कभी मांगने नहीं पड़े हैं। वह सदैव देने वाली है। अपना सर्वस्व देकर भी वह पूर्णत्व के भाव से भर उठती है। नवरात्रि पर्व पर देवी के हर रूप को नमन। 





- स्मृति आदित्य
.......
अत्यंत हर्ष का विषय है कि 
दिनांक 23 सितंबर को वेबदुनिया 
अपनी स्थापना के 18 वर्ष पूर्ण करने जा रही है।
हार्दिक शुभकामनाएँ
-यशोदा

Friday, September 22, 2017

अहसासों की शैतानियाँ ...सीमा "सदा"


खूबसूरत से अहसास, 
शब्‍दों का लिबास पहन 
खड़े हो जाते जब
कलम बड़ी बेबाकी से 
उनको सजाती संवारती 
कोई अहसास 
निखर उठता बेतकल्‍लुफ़ हो 
तो कोई सकुचाता 
.... 
अहसासों की शैतानियाँ 
मन को मोह लेने की कला, 
किसी शब्‍द का जादू 
कर देता हर लम्‍हे को बेकाबू 
खामोशियाँ बोल उठती 
उदासियाँ खिलखिलाती जब 
लगता गुनगुनी धूप 
निकल आई हो कोहरे के बाद 
अहसासों के बादल छँटते जब भी 
कलम चलती तो फिर 
समेट लाती ख्‍यालों के आँगन में 
एक-एक करके सबको !!!!
-सीमा "सदा"

Thursday, September 21, 2017

आहिस्ता.....प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


तेरी ख़ातिर आहिस्ता,
शायद क़ामिल हो जाऊँगा।
या शायद बिखरा-बिखरा,
सब में शामिल हो जाऊँगा॥

शमा पिघलती जाती है,
जब वो यादों में आती है।
शायद सम्मुख आएगी,
जब मैं आमिल हो जाऊँगा॥

पेशानी पर शिकन बढ़ाती,
जब वो बातें करती है।
नहीं पता कब होश में आऊँ,
कब क़ाहिल हो जाऊँगा॥

उसकी नज़रें दर-किनार,
मेरी नज़रों को कर देती हैं।
सारी रंजिश दूर हटाकर,
खुद साहिल हो जाऊँगा॥

वह तितर-बितर मेरे मन की,
हर ख़्वाहिश को कर देती है।
कदम बढ़ा उसकी राहों में,
मैं राहिल हो जाऊँगा॥

हर एक गुज़ारिश उसकी,
अपनी किस्मत में लिख देता हूँ।
तक़दीर मेरी भी गूँज उठेगी,
जब क़ाबिल हो जाऊँगा॥

शब में आ कर ख़्वाबों पर,
अपना कब्ज़ा कर लेती है।
‘भोर’ तलक मैं आहिस्ता।
शायद ज़ामिल हो जाऊँगा॥

©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


Wednesday, September 20, 2017

जो भूले से भूल जाते बिखर गये होते....नीतू राठौर

जरा सी देर सही घर अगर गये होते
तेरे ही सीने से लग के निखर गये होते।

नहीं भूली हूँ जुदाई की शाम अब तक भी
जो भूले से भूल जाते बिखर गये होते।

अभी नहीं जो होता रूह से रूह का मिलना
तो इस जनम में दुबारा ठहर गये होते।

तेरा कभी तो सहारा होता तन्हाई में
तो हम भी शाम ढले अपने घर गये होते।

यूँ मन मेरा भी तो अटका रहा ख़्वाहिशों में
नहीं तो रूह छूकर "नीतू" ग़ुजरे गये होते।
-नीतू राठौर

Tuesday, September 19, 2017

खोई हुई पहचान हूँ मैं...राजेश रेड्डी

गीता हूँ कुरआन हूँ मैं
मुझको पढ़ इंसान हूँ मैं

ज़िन्दा हूँ सच बोल के भी
देख के ख़ुद हैरान हूँ मैं

इतनी मुश्किल दुनिया में
क्यूँ इतना आसान हूँ मैं

चेहरों के इस जंगल में
खोई हुई पहचान हूँ मैं

खूब हूँ वाकिफ़ दुनिया से
बस खुद से अनजान हूँ मैं
- राजेश रेड्डी

Monday, September 18, 2017

दस्तक देते कईं शब्द मेरे.....रश्मि वर्मा

सामर्थ्य नहीं अब शब्दों में
कहना कुछ भी है व्यर्थ तुम्हें।
अधरों के स्वर हो गए कंपित, 
अब रुँध चले हैं कंठ मेरे।
नयनों के अश्रु भी तुमसे
विनती कर के अब हार गए

मेरे संतापों के ताप से भी
ना रूद्ध ह्रदय के द्वार खुले
जो प्रश्न मेरे थे गए तुम तक
ना लौट के आया प्रत्युत्तर
दस्तक देते कईं शब्द मेरे
बैरंग चले आए मुझ तक
अब छोड़ दिया है आस सभी
भूला तेरा अपमान सभी
पशुता सा जो आघात किया
बेधा मन छल प्रतिघात किया
लो मुक्त किया हर बंधन से
अपने रूदन और क्रदन से
जी लो तुम मुक्त-मगन होकर
रच लो संसार नव-सृजन कर
- रश्मि वर्मा

Sunday, September 17, 2017

खिलौने वाला.....सुभद्रा कुमारी चौहान


वह देखो माँ आज
खिलौनेवाला फिर से आया है।
कई तरह के सुंदर-सुंदर
नए खिलौने लाया है।
हरा-हरा तोता पिंजड़े में
गेंद एक पैसे वाली
छोटी सी मोटर गाड़ी है
सर-सर-सर चलने वाली।
सीटी भी है कई तरह की
कई तरह के सुंदर खेल
चाभी भर देने से भक-भक
करती चलने वाली रेल।
गुड़िया भी है बहुत भली-सी
पहने कानों में बाली
छोटा-सा 'टी सेट' है
छोटे-छोटे हैं लोटा-थाली।
छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं
हैं छोटी-छोटी तलवार
नए खिलौने ले लो भैया
ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार।
मुन्नू ने गुड़िया ले ली है
मोहन ने मोटर गाड़ी
मचल-मचल सरला कहती है
माँ से लेने को साड़ी
कभी खिलौनेवाला भी माँ
क्या साड़ी ले आता है।
साड़ी तो वह कपड़े वाला
कभी-कभी दे जाता है।
अम्मा तुमने तो लाकर के
मुझे दे दिए पैसे चार
कौन खिलौने लेता हूँ मैं
तुम भी मन में करो विचार।
तुम सोचोगी मैं ले लूँगा
तोता, बिल्ली, मोटर, रेल
पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा
ये तो हैं बच्चों के खेल।
मैं तो तलवार ख़रीदूँगा माँ
या मैं लूँगा तीर-कमान
जंगल में जा, किसी ताड़का
को मारुँगा राम समान।
तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों-
को मैं मार भगाऊँगा
यों ही कुछ दिन करते-करते
रामचंद्र मैं बन जाऊँगा।
यही रहूँगा कौशल्याऊ मैं
तुमको यही बनाऊँगा
तुम कह दोगी वन जाने को
हँसते-हँसते जाऊँगा।
पर माँ, बिना तुम्हारे वन में
मैं कैसे रह पाऊँगा?
दिन भर घूमूँगा जंगल में
लौट कहाँ पर आऊँगा।
किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा
तो कौन मना लेगा
कौन प्यार से बिठा गोद में,
मनचाही चींजे़ देगा।
-सुभद्रा कुमारी चौहान

Saturday, September 16, 2017

सुख या फिर ख़ुशी..


चुनते हैं हम
सुख या फिर
ख़ुशी..
रह कर भी
शिविर में ..
प्रताड़नाओं के
हम मन के
मौसम को... 
बासन्ती बना सकते हैं
कोई इन्सान..
कोई वस्तु 
या फिर 
प्रक्रिया हो 
कोई भी....
इतनी बलशाली नहीं
कि हमारे मन पर
कब्ज़ा कर सके
वो भी बगैर हमारी 
मर्जी....और हम
मन से..करते हैं 
कोशिश...और
तलाश लेतें हैं
खुशियाँ...
-मन की उपज
#हिन्दी दिवस

Friday, September 15, 2017

मिट्टी से मशविरा न कर...अभिषेक शुक्ला


मिट्टी से मशविरा न कर, पानी का भी कहा न मान
ऐ आतिश-ए-दुरुं मेरी, पाबंदी-ए-हवा न मान

हर एक लुग़त से मावरा मैं  हूँ अजब मुहावरा
मेरी ज़बान में पढ़ मुझे, दुनिया का तर्जुमा न मान

होने में या न होने में मेरा भी कोई दखल है?
मैं हूँ ये उसका हुक्म है, इसको मेरी रज़ा न मान

टूटे हैं मुझ पे क़हर भी, मैंने पिया है ज़हर भी
मेरी ज़ुबाने तल्ख़ का इतना भी बुरा न मान

बस एक दीद भर का है, फिर तो ये वक़्फ़ए-हयात
उनके क़रीब जा मगर आँखों की इल्तिजा न मान

हर शाख ज़र्द ज़र्द है, हर फूल दर्द दर्द है
मुझ में ख़िज़ाँ मुक़ीम है, मुझको हरा भरा न मान

ज़ेब-ए-तन और कुछ नहीं, जुज़ तेरी आरज़ू के अब
तू भी मुहाल है तो फिर मुझ पर कोई क़बा न मान 
-अभिषेक शुक्ला 

Thursday, September 14, 2017

मौसम बदले, न बदले....अशोक वाजपेई


मौसम बदले, न बदले
हमें उम्मीद की
कम से कम
एक खिड़की तो खुली रखनी चाहिए।

शायद कोई गृहिणी
वसंती रेशम में लिपटी
उस वृक्ष के नीचे
किसी अज्ञात देवता के लिए
छोड़ गई हो
फूल-अक्षत और मधुरिमा।

हो सकता है
किसी बच्चे की गेंद
बजाय अनंत में खोने के 
हमारे कमरे में अंदर आ गिरे और
उसे लौटाई जा सके

देवासुर-संग्राम से लहूलुहान
कोई बूढ़ा शब्द शायद
बाहर की ठंड से ठिठुरता
किसी कविता की हल्की आंच में
कुछ देर आराम करके रुकना चाहे।

हम अपने समय की हारी होड़ लगाएँ
और दाँव पर लगा दें
अपनी हिम्मत, चाहत, सब-कुछ –
पर एक खिड़की तो खुली रखनी चाहिए
ताकि हारने और गिरने के पहले
हम अंधेरे में
अपने अंतिम अस्त्र की तरह
फेंक सकें चमकती हुई
अपनी फिर भी
बची रह गई प्रार्थना।
-अशोक वाजपेई
#हिन्दी दिवस

Wednesday, September 13, 2017

दोनों को अधूरा छोड़ दिया.....फैज अहमद फैज

वो लोग बहुत खुशकिस्‍मत थे
जो इश्‍क को काम समझते थे
या काम से आशिकी रखते थे
हम जीते जी नाकाम रहे
ना इश्‍क किया ना काम किया
काम इश्‍क में आड़े आता रहा
और इश्‍क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया 
-फैज अहमद फैज

Tuesday, September 12, 2017

माँ....निधि सक्सेना


तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हें हर जगह खोजा 
अलार्म की आवाज़ में..
छौंक की गंध में..
रामचरितमानस के पाठ में..
हर दर्द की दवा में..
बाबा के किस्सों में..
भाई की आंखों में
बेटे की मुस्कान में..
हर जगह थोड़ा थोड़ा पाया तुम्हें...
और उस रोज अचानक तुम मुझे समूची मिलीं
जब मैंने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी
बड़ी सी लाल बिन्दी लगाई
हाथ भर चूड़ियाँ पहनी
माँग भर सिंदूर लगाया
और जैसे ही आईने के सामने खड़ी हुई
खिड़की से एक सूर्य किरण
मेरे मुख पर बिखर
मुझे दीपदीपा गई...
तुम बिलकुल ऐसी ही थीं
उजली और देदीप्यमान...
~निधि सक्सेना

Monday, September 11, 2017

बेदाग दिल ही रखा है....नीतू राठौर

नहीं देखा है कभी चाँद में दीवाने को
कहाँ ढूंढू उस भटकें हुए दीवाने को।

यूँ मैंने तुम्हें ही माँगा है इस ज़माने से
देखा है मैंने तो मजबूर इस ज़माने को।

मग्न होती हूँ नज़्म जब कोई सुनाने में
तराने चुनें है दिलकश जरा सुनाने को।

यूँ दाग दिल पर लगते नहीं लगाने से
बेदाग दिल ही रखा है दिल लगाने को।

हँसी की गूंज ही आए जिस आशियानें से
बताओ कैसे बचाओगे आशियानें को।

कभी मुकर न जाना वादे "नीतू" निभाने से
जहाँ की रस्मे है आना होगा निभाने को।
-नीतू राठौर

Sunday, September 10, 2017

रहमतों से फ़ासला हो जाएगा.....नवीन मणि त्रिपाठी

2122 2122 212
मत कहो हमसे जुदा हो जाएगा ।
वह मुहब्बत में फ़ना हो जाएगा ।।

इश्क के इस दौर में दिल आपका ।
एक दिन मेरा पता हो जाएगा ।।

धड़कनो के दरमियाँ है जिंदगी ।
धड़कनो का सिलसिला हो जाएगा ।।

इस तरह उसने निभाई है कसम ।
वह हमारा देवता हो जाएगा ।।

ऐ दिले नादां न कर मजबूर तू ।
वो मेरी ज़िद पर ख़फ़ा हो जाएगा ।।

पत्थरो को फेंक कर तुम देख लो ।
आब का ये कद बड़ा हो जाएगा ।।

मत निकलिए इस तरह से बेनकाब ।
फिर चमन में हादसा हो जाएगा ।।

अब अना से बढ़ रहीं नज़दीकियां ।
रहमतों से फ़ासला हो जाएगा ।।

- नवीन मणि त्रिपाठी

Saturday, September 9, 2017

रज सुरभित आलोक उड़ाता...मधु सिंह




तुहिन सेज पर ठिठुर-ठिठुर कर  
निशा  काल  के  प्रथम प्रहर में  
बैठा   एक     पथिक    अंजाना  
था तीब्र प्रकम्पित हिमजल में 

तभी प्रात की स्वर्णिम किरणें 
लगी मचलने व्योंम प्राची पर
हाथ पसारे  निस्सीम तेज ले  
लगी उतरने  हिम छाती  पर 

रज  सुरभित  आलोक  उड़ाता 
हिम-  शैलों   पर  भर अनुराग 
 मृदुल अनंग नित क्रीड़ा करता 
 भर- भर  बाँहों  में प्रेम- पराग


निद्रा   भंग    हुई   शैवालों की 
हिम-चादर गल लगी पिघलने
धवल   धरा   के    आँगन  में  
हरियाली  उग  लगी  बिहसनें


स्वांस सुगन्धित लगी मचलने 
पवन  हुआ   सुरभित  गतिमान 
प्रात  काल  की  लाली  बिखरी 
शीर्ष  शिखर  पंहुचा  दिनमान 


रह - रह  नेत्र  निमीलन करती 
बार-  बार  सोने  को  मचलती   
कल-कल निनाद के महारोर में 
स्नेह की बाती जल-जल बुझती