Saturday, November 29, 2014
अबला नहीं ये है सबला.........जयश्री कुदाल
यूं तो आई तूफान-सी बाधाएं
आई सुनामी-सी मुश्किलें
तोड़ने को मेरे सपनों का घरौंदा
पर मैं न हारी न टूटी
न मैं किस्मत से रूठी
न मैं रोई न बेबस हुई
न छोड़ी मैंनें लेका-सच्चाई
अब बस आगे बढ़ना है
न हारना है न रुकना है
क्यूंकि जब मैंनें हिम्मत करी
मेरे सपनों ने उड़ान भरी..
-जयश्री कुदाल..
.............पत्रिका से
इस कविता को पढ़कर ऐसा लगा कि ये नई कलम है
आपकी राय इनको प्रोत्साहित करेगी.....सादर
आपकी राय इनको प्रोत्साहित करेगी.....सादर
Friday, November 28, 2014
मैं अनाथ हूँ तो क्या.........वन्दना गुप्ता
मैं अनाथ हूँ तो क्या
मुझे न मिलेगा प्यार कभी
किसी की आँख का तारा कभी
क्या कभी बन पाऊँगा
किसी के घर के आँगन में
फूल बनकर महकूंगा कभी
ओ दुनिया वालों
मैं भी तो इक बच्चा हूँ
माना कि तुम्हारा खून नहीं हूँ
न ही संस्कार तुम्हारे हैं
फिर भी हर बाल सुलभ
चेष्टाएं हैं तो मेरी भी वही
क्या संस्कार ही बच्चे को
माँ की गोद दिलाते हैं
क्या खून ही बच्चे को
पिता का नाम दिलाता है
क्या हर रिश्ता केवल
खून और संस्कार बनाता है
तुम तो सभ्य समाज के
सभ्य इंसान हो
फिर क्यूं नही
मेरी पीड़ा समझ पाते हो
मैं भी तरसता हूँ
माँ की लोरी सुनने को
मैं भी मचलना चाहता हूँ
पिता की उँगली पकड़
मैं भी चलना चाहता हूँ
क्या दूसरे का बच्चा हूँ
इसीलिए मैं बच्चा नहीं
यदि खून की बात है तो
ईश्वर ने तो न फर्क किया
फिर क्यूँ तुम फर्क दिखाते हो
लाल रंग है लहू का मेरे भी
फिर भी मुझे न अपनाते हो
अगर खून और संस्कार तुम्हारे हैं
फिर क्यूँ आतंकियों का बोलबाला है
हर ओर देश में देखो
आतंक का ही साम्राज्य है
अब कहो दुनिया के कर्णधारों
क्या वो खून तुम्हारा अपना नहीं
एक बार मेरी ओर निहारो तो सही
मुझे अपना बनाओ तो सही
फिर देखना तुम्हारी परवरिश से
ये फूल भी खिल जाएगा
तुम्हारे ही संस्कारों से
दुनिया को जन्नत बनाएगा
बस इक बार
हाथ बढ़ाओ तो सही
हाथ बढ़ाओ तो सही
-वन्दना गुप्ता
.....सुरुचि, नवभारत से
Thursday, November 27, 2014
आग ठंडी हुई इक ज़माने के बाद..........खुमार बाराबंकवी
वो सवा याद आये भुलाने के बाद
जिंदगी बढ़ गई ज़हर खाने के बाद
दिल सुलगता रहा आशियाने के बाद
आग ठंडी हुई इक ज़माने के बाद
रौशनी के लिए घर जलाना पडा
कैसी ज़ुल्मत बढ़ी तेरे जाने के बाद
जब न कुछ बन पड़ा अर्जे-ग़म का जबाब
वो खफ़ा हो गए मुस्कुराने के बाद
दुश्मनों से पशेमान होना पड़ा है
दोस्तों का खुलूस आज़माने के बाद
बख़्श दे या रब अहले-हवस को बहिश्त
मुझ को क्या चाहिए तुम को पाने के बाद
कैसे-कैसे गिले याद आए "खुमार"
उन के आने से क़ब्ल उन के जाने के बाद
-खुमार बाराबंकवी
जिंदगी बढ़ गई ज़हर खाने के बाद
दिल सुलगता रहा आशियाने के बाद
आग ठंडी हुई इक ज़माने के बाद
रौशनी के लिए घर जलाना पडा
कैसी ज़ुल्मत बढ़ी तेरे जाने के बाद
जब न कुछ बन पड़ा अर्जे-ग़म का जबाब
वो खफ़ा हो गए मुस्कुराने के बाद
दुश्मनों से पशेमान होना पड़ा है
दोस्तों का खुलूस आज़माने के बाद
बख़्श दे या रब अहले-हवस को बहिश्त
मुझ को क्या चाहिए तुम को पाने के बाद
कैसे-कैसे गिले याद आए "खुमार"
उन के आने से क़ब्ल उन के जाने के बाद
-खुमार बाराबंकवी
Wednesday, November 26, 2014
सब जीवन बीत जाता है....जयशंकर प्रसाद
सब जीवन बीत जाता है
धूप छांह को खेल सदृश
सब जीवन बीत जाता है
समय भागता प्रतिक्षण में
नव-अतीत के तुषार कण में
हमें लगाकर भविष्य-रण में
आप कहां छिप जाता है
सब जीवन बीत जाता है
बुल्ले, नहर, हवा के झोंके
मेघ और बिजली के टोंके
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीत जाता है
वंशी को बज जाने दो
मीठी मीड़ों को आने दो
आंख बंद करके गाने दै
जो कुछ हमको आता है
सब जीवन बीत जाता है
-जयशंकर प्रसाद
....मधुरिमा से
Tuesday, November 25, 2014
पाँच क्षणिकाएँ............. डॉ. रमा द्विवेदी
1. अनुभूति बोध
सदियाँ गुज़र जाती हैं
अनुभूति का बोध उगने के लिए
शताब्दियाँ गुज़र जाती हैं
अनुभूति को पगने के लिए
अनुभूति माँगती है दिल की सच्चाई
सच्चाई में तप कर खरा उतरना
बहुत दुर्लभ प्रक्रिया है
क्षण-क्षण बदलते मन के भाव
अनुभूति की नींव
बारम्बार हिला देते हैं।
2. अहसास
अलग होकर भी
हम अलग कब होते हैं ?
हमारे बीच हमेशा
पसरा रहता है
एक साथ गुज़ारे
हर लम्हे का अहसास।
3. अलगाव
रिश्तों में
भौतिक रूप से
अलगाव हो सकता है, पर
दिल में कोमल भाव
फूलों-सा महकते भी हैं
और त्रासद पल
नासूर की तरह
दहकते भी हैं।
4. ज़िन्दगी की मंज़िल
ज़िन्दगी की मंज़िलों के
रास्ते हैं अनगिनत,
शर्त है कि रास्ते,
ख़ुद ही तलाशने पड़ते हैं।
5. एक ही सूरज
एक ही सूरज यहाँ भी,
एक ही सूरज वहाँ भी,
पर, एक साथ हर जगह,
सुबह नहीं होती।
- डॉ. रमा द्विवेदी
Wednesday, November 19, 2014
छोटी सी मुलाकात काफी है...............जितेन्द्र "सुकुमार"
सोचने के लिए इक रात काफी है
जीने, चंद शाद-ए-हयात काफी है
यारो उनके दीदार के लिए देखना
बस इक छोटी सी मुलाकात काफी है
उनकी उलझन की शक्ल क्या है
कहने के लिए जज्ब़ात काफी है
बदलते इंसान की नियति में
यहॉ छोटा सा हालात काफी है
न दिखाओं आसमां अपना दिल
तुम्हारे अश्कों की बरसात काफी है
खुद को छुपाने के लिए 'सुकुमार'
चश्म की कायनात काफी है
जीने, चंद शाद-ए-हयात काफी है
यारो उनके दीदार के लिए देखना
बस इक छोटी सी मुलाकात काफी है
उनकी उलझन की शक्ल क्या है
कहने के लिए जज्ब़ात काफी है
बदलते इंसान की नियति में
यहॉ छोटा सा हालात काफी है
न दिखाओं आसमां अपना दिल
तुम्हारे अश्कों की बरसात काफी है
खुद को छुपाने के लिए 'सुकुमार'
चश्म की कायनात काफी है
-जितेन्द्र "सुकुमार"
' उदय आशियाना ' चौबेबांधा राजिम जिला- गरियाबंद, (छग.) - 493 885
Tuesday, November 18, 2014
Friday, November 7, 2014
नजर आता नहीं इंसान बाबा...........चाँद शेरी
नहीं तू इस कदर धनवान बाबा
खरीदे जो मेरा ईमान बाबा
न तू बन इस कदर शैतान बाबा
कि हो सब बस्तियां वीरान बाबा
ये छोड़ अब मंदिर-मस्ज़िद के झगड़े
अरे छेड़ एकता की शान बाबा
न बांट इनको ज़बानों-मज़हबों में
सभी भारत की है संतान बाबा
गरीबों को मिले दो वक़्त की रोटी
कोई तो इतना रखे ध्यान बाबा
मुखौटे ही मुखौटे हर तरफ हैं
नजर आता नहीं इंसान बाबा
नई कुछ बात कह शेरों में 'शेरी'
गजल को दे नया उनवान बाबा
खरीदे जो मेरा ईमान बाबा
न तू बन इस कदर शैतान बाबा
कि हो सब बस्तियां वीरान बाबा
ये छोड़ अब मंदिर-मस्ज़िद के झगड़े
अरे छेड़ एकता की शान बाबा
न बांट इनको ज़बानों-मज़हबों में
सभी भारत की है संतान बाबा
गरीबों को मिले दो वक़्त की रोटी
कोई तो इतना रखे ध्यान बाबा
मुखौटे ही मुखौटे हर तरफ हैं
नजर आता नहीं इंसान बाबा
नई कुछ बात कह शेरों में 'शेरी'
गजल को दे नया उनवान बाबा
-चाँद शेरी
... पत्रिका से
Thursday, November 6, 2014
मधुर स्मृतियां..............डॉ. सुरेन्द्र मीणा
बवण्डर उठ गया यादों का,
वक़्त के फ़ासलों से धरती पर
अंकुरित होते अतीत के बीज
और हरियाली के साथ लहलहातीं
मधुर स्मृतियां चादर फैला रही है
होठों पर मुस्कुराहट की...
बहने लगी बयार फिर से आज,
शांत दरिया में लहरें फिर से उठने लगी हैं
हिलोरे लेने लगती है
यादों के कंकड़ गिरते ही....।
वक़्त के फ़ासलों से धरती पर
अंकुरित होते अतीत के बीज
और हरियाली के साथ लहलहातीं
मधुर स्मृतियां चादर फैला रही है
होठों पर मुस्कुराहट की...
बहने लगी बयार फिर से आज,
शांत दरिया में लहरें फिर से उठने लगी हैं
हिलोरे लेने लगती है
यादों के कंकड़ गिरते ही....।
-डॉ. सुरेन्द्र मीणा
... मधुरिमा से
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