Tuesday, June 30, 2020

पानी सी होती हैं स्त्रियां ...निधि सक्सेना


पानी सी होती हैं स्त्रियाँ
हर खाली स्थान बड़ी सरलता से
अपने वजूद से भर देती हैं
बगैर किसी आडंबर के
बगैर किसी अतिरंजना के..
आश्चर्य ये
कि जिस रंग का अभाव हो 
उसी रंग में रंग जाती हैं ..
जाड़े में धूप ..
उमस में चांदनी ..
आँसुओं में बादल..
उदासी में धनक..

छोटी बहन को एक भाई की कमी खटकी
बड़ी ने तुरंत कलाई आगे बढ़ाई
राखी सिर्फ बंधवाई ही नहीं
बल्कि राखी का हर कर्तव्य 
खुशी खुशी निभाया..

माँ बाबा को बेटा चाहिए था
बेटी न जाने कब बेटा बन गई
और आजीवन बनी रही..
जब जब राष्ट्र को शूरवीरों की आवश्यकता हुई
बेटियों ने हर संकोच त्याग
केसरिया चोला ओढ़ा..
और जब जब किन्ही बच्चों ने पिता की 
अनुपस्थिति में उन्हें याद किया
माओं ने यह दायित्व भी बखूबी निभाया..
उन्होंने ममता और वात्सलय में
थोड़ा अनुशासन
और पूरी जिम्मेदारी मिलाई
और लो बन गई पापा वाली मां...
कि यूँ ही नही बन जाती हैं स्त्रियाँ
शक्ति पुंज..

~निधि सक्सेना

Monday, June 29, 2020

हाय रे दुनिया ....रजनीश "स्वच्छंद"

बड़ी कमबख्त दुनिया है।
बड़ी बदबख्त दुनिया है।

न पिघले आँख के बादल,
बड़ी ही सख्त दुनिया है।

सुनेगी दर्द क्या तेरा,
यहाँ तो व्यस्त दुनिया है।

चीखों पर भी है हँसती,
बड़ी ही मस्त दुनिया है।

सुबह भी छुप कहीं सोयी,
यहाँ तो अस्त दुनिया है।

सभी शापित सभी दानव,
यहाँ अभिशप्त दुनिया है।

खुशी सच्ची कहाँ भाई,
जलन से तप्त दुनिया है।

न सिहरन बस रही तेरी,
यहाँ तो त्रस्त दुनिया है।

कफ़न कह लो चिता बोलो,
धरे सब हस्त दुनिया है।

न लिख रजनीश तू कुछ भी,
सभी से पस्त दुनिया है।
©रजनीश "स्वच्छंद"
मूल रचना

Sunday, June 28, 2020

अंतिम सत्य .....अनमोल तिवारी कान्हा

अंतिम सत्य ……
होनी हैं मृत्यु निश्चित
फिर मनु ………
क्यों हो तुम द्वंद्व में
देख इस प्रलय को।।

ये परिवर्तन तो  अरे!
महज थोथी कपूर हैं
जो बदल लेती हैं रूप नया,
पाकर धूप हवा का संग
और घोल देती हैं अपनी
सुगंध धरा के उपवन में!

फिर ऐसे ही निर्जीव सा
बैठा हैं तू  भला क्यों  ?
बना कोई प्रयोजन अहो!
निकाल कुछ सार अहो!
फिर  किस्मत चमकेगी तेरी
होगा जब निर्माण नया,
होगा फिर से नया सवेरा
गुंजित होगा गान नया!
- अनमोल तिवारी कान्हा
अनहद कृति

Saturday, June 27, 2020

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ ...दुष्यन्त कुमार

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ

तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ

मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ

कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

-दुष्यन्त कुमार

Friday, June 26, 2020

यादों का भी एक सहारा होता है ...सचिन 'शालिनी'

इक चेहरे पर रोज़ गुज़ारा होता है 
प्यार किसी को कब दोबारा होता है 

मैं तुम पर हर बार भरोसा करता हूँ 
इतना सच्चा झूठ तुम्हारा होता है 

तुम मेरे इस दिल को पागल मत कहना 
अपना बच्चा सब को प्यारा होता है 
तुम जाओ पर यादों को तो रहने दो 
यादों का भी एक सहारा होता है 

उस पंछी का हाल 'सचिन' किस ने समझा 
जो पिंजरे में क़ैद दोबारा होता है 
-सचिन 'शालिनी'

Thursday, June 25, 2020

टूटे थे हम बिखरे नहीं .......अनामिका

टूटे थे हम बिखरे नहीं

एक तेरी खुशी के ख़ातिर हम
नंगे पैर, दौड़ चले आते थे ।
एक तू है, जिसे हमारे आने की,
सुना है घंटों ख़बर नहीं मिलती ।

किसी जमाने में हम,
तुम्हारी दुनिया हुआ करते थे
आज हमारे हाल ए जिगर के,
अन्दाजे तुम्हें नहीं ।

हम तो ये सोचते थे,
जिंदगी में तुम नहीं तो कुछ नहीं ।
ताज्जुब तब हुआ , बिना बताए,
जब जिंदगी से तुम नदारद हुए।

सुनो तुम, टूटे थे हम बिखरे नहीं
जिंदगी में एक तेरा गम ही नहीं,
और भी कुछ जरुरी काम है,
छोड़ दिया पीछे तुम्हारा नाम है
-अनामिका

Wednesday, June 24, 2020

ज़िन्दगी रेत सी हो गई है ...रमीज राजा

सच पूछो तो,
ज़िन्दगी रेत सी हो गई है!
दिन ब दिन फिसलती जा रही है,
जितना समेटने की कोशिश कर रहा हूँ,
उतना ही फिसलती जा रही है |

रौशन होने की चाह मे,
कतरा कतरा मोम सी पिघलती जा रही है |
फिर भी ना जाने अरमान क्यों,
बेखुदी सी मचलती जा रही है |

वक्त ज्यों ज्यों बीत रही है,
त्यों त्यों वजूद मिट जाने की,
डर खलती जा रही है,
उम्र के दोपहर बीतने के बाद समझ आया की,
अरमान शाम की आगोश में ढलती जा रही है |
दिल कह रहा है फिर भी,

बीच लहर में पतवार उम्मीद की थामे डटा रह,
हौसला रख जब तक अंत टलती जा रही है |
सच पूछो तो,
ज़िन्दगी रेत सी हो गई है,
दिन ब दिन फिसलती जा रही है |
-रमीज राजा
अजमेर

Tuesday, June 23, 2020

उस सितमगर की मेहरबानी से ...... गुलज़ार देहलवी

उस सितमगर की मेहरबानी से 
दिल उलझता है ज़िंदगानी से 

ख़ाक से कितनी सूरतें उभरीं 
धुल गए नक़्श कितने पानी से 

हम से पूछो तो ज़ुल्म बेहतर है 
इन हसीनों की मेहरबानी से 

और भी क्या क़यामत आएगी 
पूछना है तिरी जवानी से 

दिल सुलगता है अश्क बहते हैं 
आग बुझती नहीं है पानी से 

हसरत-ए-उम्र-ए-जावेदाँ ले कर 
जा रहे हैं सरा-ए-फ़ानी से 

हाए क्या दौर-ए-ज़िंदगी गुज़रा 
वाक़िए हो गए कहानी से 

कितनी ख़ुश-फ़हमियों के बुत तोड़े 
तू ने गुलज़ार ख़ुश-बयानी से 
- गुलज़ार देहलवी 

Monday, June 22, 2020

जो देखता हूँ मैं वो भूलता नहीं ...तहज़ीब हाफ़ी

इस एक डर से ख़्वाब देखता नहीं
जो देखता हूँ मैं वो भूलता नहीं

किसी मुंडेर पर कोई दिया जला
फिर इस के बाद क्या हुआ पता नहीं

मैं आ रहा था रास्ते में फूल थे
मैं जा रहा हूँ कोई रोकता नहीं

तिरी तरफ़ चले तो उम्र कट गई
ये और बात रास्ता कटा नहीं

इस अज़दहे की आंख पूछती रहीं
किसी को ख़ौफ़ आ रहा है या नहीं

मैं इन दिनों हूं ख़ुद से इतना बे-ख़बर
मैं बुझ चुका हूं और मुझे पता नहीं

ये इश्क़ भी अजब कि एक शख़्स से
मुझे लगा कि हो गया हुआ नहीं

-तहज़ीब हाफ़ी

Sunday, June 21, 2020

किसी को खुशी मिले तो मिलो - जुलो ...चंचलिका शर्मा

अगर
आपकी मुस्कुराहट
किसी को
भली लगे तो
मुस्कुराओ ......

अगर
आपके गीत से
किसी का जीवन
गुलज़ार हो तो
गुनगुनाओ.......

आपकी
बातों से किसी को
सुकुं मिले
तो अनर्गल बातें करो .....

अगर
आपकी उपस्थिति से
किसी को खुशी मिले
तो मिलो - जुलो ...

ईश्वर की
बनाई रचना
उन्हीं की रचना के
काम आए तो
हमारे सारे गुण सार्थक
वर्ना हम
अपने गुणो की ,
ईश्वर की तौहीन करेंगे ..
- चंचलिका शर्मा

Saturday, June 20, 2020

तभी तो ख़ामोश रहता है आईना......संजय भास्कर



अक्सर हमेशा कुछ कहता है आईना

तभी तो हमेशा ख़ामोश रहता है आईना  !!


जो बातें छिपी है दिल के अन्दर 

उसे बाहर लाने में मददगार होता है आईना  !!


दीवानगी में दीवाने लोगो का दुःख

देखकर चुपचाप सहता है आईना  !!


जब कभी अकेले होता हूँ तन्हा

तन्हाई का सबसे बड़ा साथी है आईना !!


कहते है आईना दिखाता है जाल भ्रम का 

पर बार -बार टूट कर भी धड़कता है आईना !!


-- संजय भास्कर 

Friday, June 19, 2020

उड़ते - उड़ते एक दिन ....मनीष वर्मा

उड़ते - उड़ते एक दिन, 
जा बैठूं किसी मुंडेर पर... 
खिलखिलाती हो हंसी जहाँ, 
हों खुशियां छोटी - छोटी। 
प्यार करें इक - दूजे से सब, 
मिलजुल कर खाएं रोटी।

उड़ते - उड़ते एक दिन, 
जा बैठूं किसी मुंडेर पर... 

न हो शोर - शराबा जहाँ, 
बस सुने मधुर संगीत। 
एक - दूसरे संग मिलकर, 
करें सब समय व्यतीत। 

उड़ने का हो समय, 
मन करे बैठूं वहीं कुछ देर, पर। 
अगले दिन फिर यूं ही, 
जा बैठूं उसी मुंडेर पर। 

उड़ते - उड़ते एक दिन..
उड़ते - उड़ते एक दिन,  जा बैठूं किसी मुंडेर पर...
-मनीष वर्मा

Thursday, June 18, 2020

मन ...श्वेता सिन्हा



हल्की,गहरी,
संकरी,चौड़ी
खुरदरी,नुकीली,
कंटीली
अनगिनत
आकार-प्रकार की
वर्जनाओं के नाम पर
खींची सीमा रेखाओं के
इस पार से लोलुप दृष्टि से
छुप-छुप कर ताकता
उसपार
मर्यादा के भारी परदों को
बार-बार सरकाता,लगाता,
अपने तन की वर्जनाओं के
छिछले बाड़ में क़ैद
छटपटाता
लाँघकर देहरी
सर्वस्व पा लेने के
आभास में ख़ुश होता
उन्मुक्त मन
वर्जित प्रदेश के
विस्तृत आकाश में
उड़ता रहता है स्वच्छंद।

-श्वेता सिन्हा

Wednesday, June 17, 2020

हम रोज़ नए मुल्क बना सकते हैं ...गुलज़ार देहलवी

आईन तो हम रोज़ बदल सकते हैं 
अख़लाक़ में तरमीम नहीं हो सकती 

हम रोज़ नए मुल्क बना सकते हैं 
तहज़ीब की मगर तक़सीम नहीं हो सकती 

साहिर की जुबां, ज़ार की बोली मेरी 
साएल ने सिखाया है अदब का असलूब

कैफ़ी से तलम्मुज़ का शरफ़ रखता हूँ 
उर्दू के सिवा कुछ नहीं मुझे मतलूब 

नाकर्दा गुनाहों की जज़ा जब देगा  
मांगूंगा सर-ए-हश्र, खुदा से उर्दू 

गुलज़ार, आबरू ए ज़बाँ अब हमीं से है 
दिल्ली में अपने बाद ये लुत्फ़-ए-सुखन कहाँ!

-गुलज़ार देहलवी 
7 July 1926 – 12 June 2020

Tuesday, June 16, 2020

अंजाम ए वफा क्या होता है ....पावनी दीक्षित, "जानिब"

तेरी बातों में जाने क्यों मुझको इश्क की खुशबू आती है
तेरी बातें धीरे-धीरे से मेरे दिल के जज्बात जगाती हैं।

तेरी आंखों ने हमसे यूं खामोशी से सब कह डाला
अब खामोशी मेरी भी मेरे दिल में तूफान उठाती है।

ये सोच रहा है दिल मेरा इनकार करूं इकरार करूं
लोगों से सुना है दिलकी लगी चाहत में बहुत रुलाती है।

यूं हाथ बढ़ाके पास न आ मुझको ऐसे मजबूर ना कर
तू पास में जब जब आता है यह जान हमारी जाती है।

हम प्यार के रोग से डरते हैं यह रोग जिसे लग जाता है
दिल पल पल आहे भरता है जब याद किसी की आती है।

ये तुमको खबर नहीं जानिब अंजाम ए वफा क्या होता है
यह दुनिया दो दिलवालों को दीवारों में चुनवाती है।

-पावनी दीक्षित, "जानिब" 
सीतापुर
फेसबुक से

Monday, June 15, 2020

अधूरा मकान ... संध्या गुप्ता

उस रास्ते से गुज़रते हुए
अक्सर दिखाई दे जाता था
वर्षों से अधूरा बना पड़ा वह मकान

वह अधूरा था
और बिरादरी से अलग कर दिये आदमी
की तरह दिखता था

उस पर छत नहीं डाली गयी थी
कई बरसातों के ज़ख़्म उस पर दिखते थे
वह हारे हुए जुआड़ी की तरह खड़ा था
उसमें एक टूटे हुए आदमी की परछाँई थी

हर अधूरे बने मकान में एक अधूरी कथा की
गूँज होती है
कोई घर यूँ ही नहीं छूट जाता अधूरा
कोई ज़मीन यूँ ही नहीं रह जाती बाँझ

उस अधूरे बने पड़े मकान में
एक सपने के पूरा होते -होते
उसके धूल में मिल जाने की आह थी
अभाव का रुदन था
उसके खालीपन में एक चूके हुए आदमी की पीड़ा का
मर्सिया था

एक ऐसी ज़मीन जिसे आँगन बनना था
जिसमें धूप आनी थी
जिसकी चारदीवारी के भीतर नम हो आये
कपड़ों को सूखना था
सूर्य को अर्ध्य देती स्त्री की उपस्थिति से
गौरवान्वित होना था

अधूरे मकान का एहसास मुझे सपने में भी
डरा देता है
उसे अनदेखा करने की कोशिश में भर कर
उस रास्ते से गुज़रती हूँ
पर जानती हूँ
अधूरा मकान सिर्फ़ अधूरा ही नहीं होता
अधूरे मकान में कई मनुष्यों के सपनों
और छोटी-छोटी ख्वाहिशों के बिखरने का
इतिहास दफ़न होता है ।
-संध्या गुप्ता



Sunday, June 14, 2020

खुला है मैक़दा कोई ....डॉ. नवीनमणि त्रिपाठी

1212 1122 1212 22
यूँ उसके हुस्न पे छाया शबाब धोका है ।
तेरी नज़र ने जिसे बार बार देखा है ।।1

वफ़ा-जफ़ा की कहानी से ये हुआ हासिल।
था जिसपे नाज़ वो सिक्का हूज़ूर खोटा है ।।2

उसी के हक़ की यहां रोटियां नदारद हैं ।
जो अपने ख़ून पसीने से पेट भरता है ।।3

खुला है मैक़दा कोई सियाह शब में क्या ।
हमारे शह्र में हंगामा आज बरपा है ।।4

निकल पड़े न किसी दिन सितम की हद पर वो ।
जो अश्क़ मैंने अभी तक सँभाल रक्खा है ।।5

मिले हैं फूल किताबों में आज फिर यारो ।
पता करें ये मुहब्बत का काम किसका है ।।6

अब उनके बारे में चर्चा तमाम क्या करना ।
जो अपनी शर्तों पे इस ज़िन्दगी को जीता है ।।7

न घर से उठ सकी ईमानदार की अर्थी ।
ये किस के साथ खड़ा देखिए ज़माना है ।।8

हर एक ज़र्रा है रोशन ग़रीब ख़ाने का ।
अभी अभी तो मेरे घर में चाँद उतरा है ।।9

ये दिल है आज मुअत्तर सनम की खुशबू से ।
बहुत क़रीब से महबूब मेरा गुज़रा है ।।10

वो शख़्स फिर न मुहब्बत में डूब जाए कहीं ।
बहार आई है मौसम नया नया सा है ।। 11
- नवीन मणि त्रिपाठी

Saturday, June 13, 2020

25 त्रिवेणियाँ ..... गुलज़ार


१.
मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे

२.
सारा दिन बैठा,मैं हाथ में लेकर खा़ली कासा(भिक्षापात्र)
रात जो गुज़री,चांद की कौड़ी डाल गई उसमें

सूदखो़र सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।

३.
सामने आये मेरे,देखा मुझे,बात भी की
मुस्कराए भी,पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर

कल का अख़बार था,बस देख लिया,रख भी दिया।

४.
शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर
किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुम को

तिनकों का मेरा घर है,कभी आओ तो क्या हो?

'५.
ज़मीं भी उसकी,ज़मी की नेमतें उसकी
ये सब उसी का है,घर भी,ये घर के बंदे भी

खुदा से कहिये,कभी वो भी अपने घर आयें!

६.
लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर

यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?

७.
आप की खा़तिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के!

चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो खू़न आ जायेगा

८.
पौ फूटी है और किरणों से काँच बजे हैं
घर जाने का वक्‍़त हुआ है,पाँच बजे हैं

सारी शब घड़ियाल ने चौकीदारी की है!

९.
बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख्‍़वाहिशें ऐसे दिल में
‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे।

थान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख्‍़वाहिशें मुझ से।

१०.
तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे
हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में!

कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!

११.
कभी कभी बाजा़र में यूँ भी हो जाता है
क़ीमत ठीक थी,जेब में इतने दाम नहीं थे

ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।

१२.
वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था

फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।

१३.
वह जिस साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा
दबा के दाँत तले साँस काट दी उसने

कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!

१४.
कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा
कोई साथ आया था,उन्हें ले गया,फिर नहीं लौटे

शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है!

१५.
इतनी लम्बी अंगड़ाई ली लड़की ने
शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा

छाले जैसा चांद पडा़ है उंगली पर!

१६.
बुड़ बुड़ करते लफ्‍़ज़ों को चिमटी से पकड़ो
फेंको और मसल दो पैर की ऐड़ी से ।

अफ़वाहों को खूँ पीने की आदत है।

१७.
चूड़ी के टुकड़े थे,पैर में चुभते ही खूँ बह निकला
नंगे पाँव खेल रहा था,लड़का अपने आँगन में

बाप ने कल दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी!

१८.
चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं
रोड़े, पत्थर और गु़ल्लों से दिन भर खेला करता था

बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं!

१९.
कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं
आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से

टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को!

२०.
कोने वाली सीट पे अब दो और ही कोई बैठते हैं
पिछले चन्द महीनों से अब वो भी लड़ते रहते हैं

क्लर्क हैं दोनों,लगता है अब शादी करने वाले हैं

२१.
कुछ इस तरह ख्‍़याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में

अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!

२२.
कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं
ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है

क्यों इस फौ़जी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।

२३.
आओ ज़बानें बाँट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है।

दो अनपढ़ों कि कितनी मोहब्बत है अदब से

२४.
नाप के वक्‍़त भरा जाता है ,रेत घड़ी में-
इक तरफ़ खा़ली हो जबफिर से उलट देते हैं उसको

उम्र जब ख़त्म हो ,क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?

२५.
तुम्हारे होंठ बहुत खु़श्क खु़श्क रहते हैं
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शे’र मिलते थे

ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?

-गुलज़ार
कविताकोश