Sunday, March 30, 2014

चैन मिल जाता है उसे खुशगवार देखकर...निधि मेहरोत्रा


चले तो आये हो प्यार की बहार देखकर
पर दुश्वार है राह, चलना तू खार देखकर

मैं उदास हो जाऊं तो कोई बड़ी बात नहीं
चैन मिल जाता है उसे खुशगवार देखकर

जानती हूँ मेरे न बोलने से वो परेशान होगा
कभी कभी अच्छा लगता है बेक़रार देखकर

रोज़ बदल देते हैं चाहने वालों की फेरहिस्त
ताज्जुब होता है बच्चों की रफ़्तार देखकर

प्यार,वफ़ा,रिश्तों का कोई खरीदार नहीं है
यहाँ अब सब तय होता है बाज़ार देखकर

सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था रिश्ते में
हैरान हूँ बहुत अचानक यह दीवार देखकर

न शिकवा था और न ही शिकायत थी कोई
अन्दर कुछ दरका है लगा यह दरार देखकर

-.निधि मेहरोत्रा

Saturday, March 29, 2014

जीवन की पगडण्डियां.................सौरभ श्री



अमित पद-चिन्ह संकलन
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियां


जड़ सही, जीवन्त फिर भी
मिलन-विरह पगडंडियां


कहीं सहज, कहीं दुर्गम
सोच-दुविधा पगडंडियां


ऊबड़-खाबड़, फेर-घुमाव
पग जीवनी पगडंडियां


कभी हलचल-कभी वीरान
मौन-उत्सव पगडंडियां


प्रातः उत्साह, कदम चलती
सांझ थके पांव, पगडंडियां


धूल-धूसरित विस्तार
लघु पथ पगडंडियां


स्वप्न-शोक गुजरें पग
स्थिर पगडंडियां


सिर झुकाए देखता हूँ
जीवन पगडंडियां
-सौरभ श्री

(रसरंग से)

Sunday, March 16, 2014

होली के मौसम में.............पूर्णिमा वर्मन


होली के मौसम में रंगो के सपने
सपनों के रंगों में भींगे सब अपने
नयनों में आंज गए सुरमे सी शाम
कानों में खनक रही मीठी सी झांझ
फगुनाहट लिपट रही आंचल सी तमनें
बाहर परदेस मगर नंदग्राम मन में

डूब रहा सूरज औ सांझ लगी छिपने
आसमान होली के खेल रहा सपने
चार दिवस साथ गए आठ बिरह बीते
तीज,चौथ, पूनो सब चले गए रीते
खेत सभी सरसों है टेसू सब जंगल
पुरवाई गाती है आंगन में मंगल

बौराए आमों पर कूक रखी पिक ने
देहरी पर डाल दिए एपन के लिखने
पाती में प्रिय जन को रस रंजन पहुंचे
फगणा चौताल साथ मन रंजन हुए
अनियारे फागुन का अभिनंदन पहुँचे

सुख आएं दुख जाएं बने रहे अपने
अपनो के साथ सदा सजे रहे सपने

पूर्णिमा वर्मन
जन्मः 27 जून, 1955, पीलीभीत


रविवारीय रसरंग मे छपी रचना

Thursday, March 13, 2014

देख बहारें होली की.............नज़ीर अकबराबादी


जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।

हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।

ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।। 

नज़ीर अकबराबादी
जन्म: 1735
निधन: 1830
उपनाम    अकबराबादी
जन्म स्थान    आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत
 

होली खेलन की झमकन में.................नज़ीर अकबराबादी

जब खेली होली नंद ललन


जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।

जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।

नज़ीर अकबराबादी
जन्म: 1735
निधन: 1830
उपनाम    अकबराबादी
जन्म स्थान    आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत

Friday, March 7, 2014

देखा है दर्द का बेदर्द हो जाना.................अमित हर्ष


जलाते ही दीया, तेज़ हवा होना
क्या मुनासिब ये हर मर्तबा होना ?

हम भी बतायेंगे, सोच लिया है
तुम्हें ही नहीं आता खफा होना

तजुर्बा कहता है मुमकिन नहीं
हर बार हर वादा वफ़ा होना

नाज़-ओ-नखरों से तेरे नहीं एतराज़ पर
कुछ ज़्यादा तो नहीं इस दफ़ा होना ?

ख़ुश है वही जिन्हें मोहब्बत न हुई
पर बुरा भी नहीं ये तजुर्बा होना

मंज़िलें अलग है रास्ते फ़रक़
बेहतर है अब हमारा जुदा होना

देख लिया पत्थर पे सर पटक कर
महसूस होता रहा तेरा खुदा होना

देखा है दर्द का बेदर्द हो जाना
वो जानता है ज़हर का दवा होना

आपकी समाअतों ने शायर बना दिया
था मुकद्दर में ‘अमित’ ये बदा होना 

-अमित हर्ष

Thursday, March 6, 2014

कहीं किसी ख़याल का निशान भी नहीं बचा..........सौरभ शेखर


यक़ीन मर गया मिरा, गुमान भी नहीं बचा
कहीं किसी ख़याल का निशान भी नहीं बचा

ख़मोशियाँ तमाम ग़र्क़ हो गयीं ख़लाओं में
वो ज़लज़ला था साहिबो बयान भी नहीं बचा.

नदी के सर पे जैसे इंतक़ाम सा सवार था
कि बाँध, फस्ल, पुल बहे, मकान भी नहीं बचा

हुजूम से निकल के बच गया उधर वो आदमी
इधर हुजूम के मैं दरमियान भी नहीं बचा

ज़मीं दरक गयी सुलगती बस्तियों की आग से
ग़ुबार वो उठा कि आसमान भी नहीं बचा

बिखरती-टूटती फ़सील नींव को हिला गयी
कि दाग़ ज़ात पर था, ख़ानदान भी नहीं बचा

तमाम मुश्किलों को हमने नींद में दबा दिया
खुला ये फिर कोई इम्तिहान भी नहीं बचा

सौरभ शेखर 09873866653
http://wp.me/p2hxFs-1GA

Saturday, March 1, 2014

ज़रूरी नहीं प्यार के लिए तजुर्बा होना.........निधि मेहरोत्रा


ज़रूरी नहीं प्यार के लिए तजुर्बा होना
काफ़ी है ज़िंदगी में बस एक बार होना

मुमकिन नहीं कि कोई हरेक बार सही हो
अबकि जायज़ है तेरा मुझसे ख़फ़ा होना

ठीक हो गया बीमार तेरे दीदार से
यही होता होगा बन्दे का ख़ुदा होना

लबों से उंगली छुआ के तुम पलटो जिसे
अदद ख़्वाहिश है क़िताब का वो सफ़ा होना

मेरे ख़्यालों में तू आज तलक़ कायम है
मेरी तरह तुझे भी न आया जुदा होना

सच अक्सर लोगों को तकलीफ़ देता है
ज़माने में लाजमी झूठ का दवा होना

क़िस्मत में जो लिखा है वो मिलकर रहेगा
इस बार नहीं तो तय अगली मर्तबा होना

कितना भी नाराज़ वो हो जाये मुझसे
एक बोसा औ उसका गुस्सा हवा होना
-निधि मेहरोत्रा