Tuesday, July 17, 2012

बस एक इज़ाज़त............सोनू अग्रवाल

एक इजाजत तुमको प्यार से छूने की
एक फिर तुमको चाहने की
एक और फिर सपने में आने की
आकर हाले दिल बताने की

एक इजाजत चाँद तुमको कहने की
एक फिर चाँद को पाने की
एक भीनी चांदनी की लौ में फिर
सारी रात बिताने की

एक इजाजत तेरी आँखों में डूब जाने की
एक फिर नशीली झील मे डूब जाने की
एक प्याला उस जाम का फिर
तुम्हारे हाथ से पीने की

एक इजाजत और है बस तेरी बाहों में सोने की
एक फिर सीने की आगोश मे खो जाने की
एक सांस जो मेरी आख़री हो आज
तेरी बाहों में बिताने की

एक इजाजत दे दो बस एक इज़ाज़त

--सोनू अग्रवाल

Saturday, July 14, 2012

रोने की जगह रखना!............कुमार अनिल

घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की जगह रखना!




जिस्म में फैलने लगा है शहर
अपनी तनहाइयाँ बचा रखना!




मस्जिदें हैं नमाजियों के लिए
अपने दिल में कहीं खुदा रखना!




मिलना-जुलना जहाँ जरुरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना!




उम्र करने को है पचास को पार
कौन है किस का पता ये रखना!


--कुमार अनिल

Monday, July 9, 2012

माटी की ख़ुशबू.............अंजना चौहान

याद आता है तेरा मुस्कराना .......
मुझे देखते ही
याद आता है तेरे चेहरे का खिल जाना .......
मेरे सामने आते ही
तेरी उदासी ...
जब हम कई दिनों तक मिल ना पाते थे



तेरा चहक उठाना ...जब हम तन्हाइयों में मिल जाते थे 
हर महफ़िल में मुझे ही खोजती .....तेरी निगाहें
मिल जाएँ तो एकांत में जाकर घंटों बिताए पल
सच !! कुछ यादें कितनी सुखद होती हैं ,हैं ना !!
हमेशा यूँ ही सजीव हो उठती हैं ....
जैसे बस कल ही की बात हो ||
फिर से हमें उसी समय में पहुंचा देती हैं
कभी वक्त मुझ पर कितना मेहरबान हुआ करता था
अब तो वक्त ने भी बेवजह करवट बदली है
बहरूपिया सा मेरा वक्त हो चला है
अपने हिसाब से रूप बदलता है
काश मैं अपनी चाहत के हिसाब से इस बहरूपिये को बदल पाती
काश उसी समय को जब मैंने हसीं पल गुजारे,
अपनी जिंदगी में फिर से पा जाती
जैसे शुरू हुई थी मेरी जिंदगी तुमसे ....काश !!
तुम्हीं पर मेरी जिंदगी ख़त्म हो पाती .....काश !!
तुमसे पहले मैं इस दुनिया से विदा हो जाती ......काश !!
काश !!मैं भी इस बहुरूपिये से वक्त की तरह
अपने जीवन की सच्चाई को बदल पाती 

-----अंजना चौहान
प्रस्तुतिकरणः राकेश कुमार गुप्ता

Sunday, July 8, 2012

अनुक्रमणिका..............ग़ज़ल महफिल

आप किसी भी शीर्षक को क्लिक करके इच्छित ग़ज़ल पढ़ सकते हैं....कॉपी कर सकते हैं....वैसे सुविधा के लिये लिंक भी दे रही हूँ....इसे कॉपी कर के अपने ब्राउजर में पेस्ट करने पर आप सीधे साईट पर होंगी

http://www.gazalmehfil.com/hi/%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%A3%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE/

अनुक्रमणिका

Saturday, July 7, 2012

आदमी पर गिद्ध मडराने लगे हैं.........."चरण"

आदमी पर गिद्ध मडराने लगे हैं
दुर्दिनो के काफिले आने लगे हैं

देखिये क्या वक्त ने बदले हैं तेवर
जन्म दिन पर मर्सिया गाने लगे हैं



इस निगोड़ी भूख की पराकाष्टा तो देखिये
कल्पनाएँ भूनकर खाने लगे हैं

हादसे जिनको समझ दफना चुके थे
आजकल फिर ज़हन पर छाने लगे हैं

जिनके कंधो पर भरोसा करके बैठे
अब वही संबल कहर ढाने लगे हैं

बांध ले बिस्तर चलें कहीं और हंसा
अब यहाँ पर साये लम्बाने लगे हैं .

---"चरण"
Fremont, CA 94538 कैलिफोर्निया
फोनः 00 1 510-657-7027










Friday, July 6, 2012

शहर से दूर वीरानी नहीं जाती !...............अन्सार 'क़म्बरी'

यहाँ कोई भी सच्ची बात अब मानी नहीं जाती,
मेरी आवाज़ इस बस्ती में पहचानी नहीं जाती !

बढ़ो आगे, करो रौशन, दिशाओं को, चिताओं से,
अकारथ दोस्तों कोई भी कुर्बानी नहीं जाती !

महल हैं, भीड़ है, मंदिर है, मस्जिद है, मशीनें हैं,
मगर फिरभी शहर से दूर वीरानी नहीं जाती !

कहीं बोतल, कहीं साग़र, कहीं मीना, कहीं साक़ी,
ये महफ़िल ऐसी बिखरी है कि पहचानी नहीं जाती !

ये झूठे आश्वासन आप अपने पास ही रखिये,
दहकती आग पर चादर कभी तानी नहीं जाती !

ज़बां बेची, कला बेची, यहाँ तक कल्पना बेची,
नियत फ़नकार की अब 'क़म्बरी' जानी नहीं जाती !

--अन्सार 'क़म्बरी'

नए खिलते सहर तक |........ डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति

ख्वाहिशों की सिगड़ी पर

आंसुओं से नम हुए

कच्चे ख्वाब

सुलगे नहीं

किसी भी रात …..

जबकि अँधेरे की तिपाई पर बैठ कर

तन्हा रात

नींद की फूंकनी से

सुलगाती रही ख्वाब …..

उस रात की झील पर

सिसकती ख्वाबों की टूटी कश्ती

डूबी नहीं

न डूबेगी कभी |

इक दिन वह

ढूंढ ही लेगी अपना किनारा

सूरज के दस्तक से

नए खिलते सहर तक 


---- डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति

Wednesday, July 4, 2012

मधुवन में पतझार लाना पड़े...... अन्सार कम्बरी

क्या नहीं कर सकूँगा तुम्हारे लिये,
शर्त ये है कि तुम कुछ कहो तो सही !


चाहे मधुवन में पतझार लाना पड़े,
या मरुस्थल में शबनम उगाना पड़े,


मैं भगीरथ सा आगे चलूँगा मगर,
तुम पतित पावनी सी बहो तो सही !

पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढ़ो,
मौन रहने से अच्छा है झुँझला पड़ो,

मैं भी दशरथ सा वरदान दूँगा तुम्हें,
युद्ध में कैकेयी सी रहो तो रहो तो सही !

हाथ देना न सन्यास के हाथ में,
कुछ समय तो रहो उम्र के साथ में,

एक भी लांछन सिद्ध होगा नहीं,
अग्नि में जानकी सी दहो तो सही !




---ज़नाब अन्सार कम्बरी

Tuesday, July 3, 2012

चु‍ड़‍ियाँ छनछनाई थी.............."फाल्गुनी"

जब सोचा था तुमने
दूर कहीं मेरे बारे में
यहाँ मेरे हाथों की चु‍ड़‍ियाँ छनछनाई थी।
जब तोड़ा था मेरे लिए तुमने
अपनी क्यारी से पीला फूल
यहाँ मेरी जुल्फें लहराई थी।
जब महकी थी कोई कच्ची शाख
तुमसे लिपट कर
यहाँ मेरी चुनरी मुस्कुराई थी।
जब निहारा था तुमने उजला गोरा चाँद
यहाँ मेरे माथे की
नाजुक बिंदिया शर्माई थी।
जब उछाला था तुमने हवा में
अपना नशीला प्यार
यहाँ मेरे बदन में बिजली सरसराई थी।
तुम कहीं भी रहो और
कुछ भी करों मेरे लिए,
मेरी आत्मा ले आती है
तुम्हारा भीना संदेश
मेरे जीवन का बस यही है शेष। 

--स्मृति जोशी "फाल्गुनी"