Thursday, September 11, 2025

पूरा डिब्बा वात्सल्य रस से सराबोर था

 वात्सल्य


ट्रेन का खचाखच भरा डिब्बा बेतहाशा गर्मी,
सामने वाली बर्थ पर एक माँ अपने बच्चे को चुप कराने में लगी। बच्चा रोता रहा,
माँ की डांट भी उसे चुप नहीं करा सकी, इस तरफ की बर्थ पर एक माँ अपने लाडले को 
दूध की बोतल मुंह में दिए थी,


रोता बच्चा चुप होकर सो गया।
माँ ने सामने वाले माँ और जिद करते बच्चे को देखा,
भूख से वह भी रो रहा था, कोई डांट-फटकार उसे चुप नहीं करा पा रही थी,
भूखा है बच्चा तुम्हारा। कब से देख रही हूं, ...
बुरा न मानो तो ये बचा दूध उसे पिला दो,
दूसरी मां ने बिना ना-नुकुर किए बच्चे के मुख में बोतल दे दी।
बच्चे की क्या जात?

कम्पार्टमेन्ट में कुछ आवाजें. किसी ने कहा-और मां की भी कोई जाति होती है ?
पूरा डिब्बा वात्सल्य रस से सराबोर था।
दोनों माताएं अपने लाडले को देख आश्वस्त हुई जा रही थी। 


Thursday, August 21, 2025

सोच की गुलामी

 सोच की गुलामी



दुनिया बदल रही है, लोगों की सोच की 
तालमेल उसमें बैठ रहा है या नहीं,
यह व्यवहार से झलक जाता है

  रे !! जरा रास्ता छोड़कर बैठो, मेरा पैर लगा तो सारा मोगरा ट्रेन में बिखर जाएगा
" मालन " को इतना कह वो किन्नर मुंबई लोकल के फर्स्ट क्लास के डिब्बे में चढ़ गया।

जीन्स पर लम्बा कुर्ता और खादी की कोटी पहने वो किन्नर मेरे करीब आने लगा, 
उसकी वेशभूषा देख मामाला कुछ अलग लग रहा था, परन्तु यह सोच हावी रही 
ये पैसे मांगेगा ज़रूर, यही सोचते हुए मांगे उसे रुपए देने के लिए अपने 
पर्स में हाथ डाला इससे पहले मैं उसे रुपए देती इससे पहले उसने अपने 
कंधे पर झूलते हुए झोले से तीन साड़ियां निकाली और कहने लगा रु. नहीं 
चाहिए दीदी, हो सके तो इसमें से एक साड़ी खरीद लीजिए, 
मुझे ताली बजा कर मांगने वाली छवि से निकलने में मदद मिलेगी।

उसके अनुरोधित स्वाभिमान के आगे 
मेरी ग़लत सोच लड़खड़ा गई और 
मैंने वे तीनों साड़ियां उससे खरीद ली

-डॉ. वर्षा महेश
16 जुलाई की मधुरिमा से

Tuesday, July 29, 2025

ये सफ़र आशिकी ने काट दिया

 

Sunday, December 29, 2024

गुलाबी ठंडक लिए, महीना दिसम्बर हुआ


कोहरे का घूंघट,
हौले से उतार कर।
चम्पई फूलों से,
रूप का सिंगार कर।

अम्बर ने प्यार से,
धरती को जब छुआ।
गुलाबी ठंडक लिए,
महीना दिसम्बर हुआ।

धूप गुनगुनाने लगी,
शीत मुस्कुराने लगी।
मौसम की ये खुमारी,
मन को अकुलाने लगी।

आग का मीठापन जब,
गुड़ से भीना हुआ।
गुलाबी ठंडक लिए,
महीना दिसम्बर हुआ।

हवायें हुई संदली,
चाँद हुआ शबनमी।
मोरपंख सिमट गए,
प्रीत हुई रेशमी।

बातों-बातों में जब,
दिन कहीं गुम हुआ।
गुलाबी ठंडक लिए,
महीना दिसम्बर हुआ।


-पवन कुमार मिश्र






Tuesday, December 17, 2024

तुम्हारी पलकों की कोर पर ..... स्मृति आदित्य पाण्डेय ''फाल्गुनी''



कुछ मत कहना तुम
मैं जानती हूँ
मेरे जाने के बाद
वह जो तुम्हारी पलकों की कोर पर
रुका हुआ है
चमकीला मोती
टूटकर बिखर जाएगा
गालों पर
और तुम घंटों अपनी खिड़की से
दूर आकाश को निहारोगे
समेटना चाहोगे
पानी के पारदर्शी मोती को,
देर तक बसी रहेगी
तुम्हारी आँखों में
मेरी परेशान छवि
और फिर लिखोगे तुम कोई कविता
फाड़कर फेंक देने के लिए...
जब फेंकोगे उस
उस लिखी-अनलिखी
कविता की पुर्जियाँ,
तब नहीं गिरेगी वह
ऊपर से नीचे जमीन पर
बल्कि गिरेगी
तुम्हारी मन-धरा पर
बनकर काँच की किर्चियाँ...
चुभेगी देर तक तुम्हें
लॉन के गुलमोहर की नर्म पत्तियाँ। 


स्मृति आदित्य पाण्डेय ''फाल्गुनी''

(पुस्तक हथेलियों पर गुलाबी अक्षर पृष्ठः 82-83)


Monday, November 18, 2024

स्मृतियों की झालर

 स्मृतियों की झालर



पूरे चांद की आधी रात में
एक मधुर कविता
पूरे मन से बने
हमारे अधूरे रिश्ते के नाम लिख रही हूं
चांद के चमकीले उजास में
सर्दीली रात में
तुम्हारे साथ नहीं हूं लेकिन

रेशमी स्मृतियों की झालर
पलकों के किनारे पर झूल रही है
और आकुल आग्रह लिए
तुम्हारी एक कोमल याद
मेरे दिल में चुभ रही है..

चांद का सौन्दर्य
मेरी कत्थई आंखों में सिमट आया है
और तुम्हारा प्यार
मन का सितार बन कर झनझनाया है
चांद के साथ मेरे कमरे में उतर आया है

- स्मृति आदित्य 'फाल्गुनी'

साभार- हथेलियों पर गुलाबी अक्षर

Sunday, November 17, 2024

गुलाबी अक्षर

 हथेलियों पर गुलाबी अक्षर



रख दो
इन कांपती हथेलियों पर
कुछ गुलाबी अक्षर
कुछ भीगी हुई नीली मात्राएं
बादामी होता जीवन का व्याकरण
चाहती हूँ कि
हथेली पर उग कोई कविता
अंकुरित हो जाए कोई भाव
प्रस्फुटित हो जाए कोई विचार
फूटने लगे ललछौंही कोंपलें...
मेरी हथेली की उर्वरा शक्ति
सिर्फ जानते हो तुम
और तुम ही दे सकते हो
कोई रंगीन-सी उगती हुई कविता
इस रंगहीन वक्त में ....

-फाल्गुनी

(पुस्तक कल ही मिली इसी संग्रह की पहली कविता है ये)