Thursday, October 31, 2019

लिख रहे हैं आप मानवता पर...यशोदा अग्रवाल

लिख रहे हैं आप
मानवता पर
लिखिए
जी चाहे
जितना हो
स्याही कलम में
खतम हो जाए 
तो और भर लो
कलम को सियाही से
सोचकर जितना
अच्छा लिखना हो
लिख डाले..और
करते रहो
प्रतीक्षा...
उसी मानवता की
जिसकी बाट आप
जोह रहे हैं
आनेवाली हर गाड़ी
देख लो...सब आएँगे
पर......मानवता
जिसकी तुम्हें प्रतीक्षा है
वो तो कबकी
निवाला बन चुकी है
आराम फरमा रही है
पेट में...
नेताओं और आतंकियों
के....पर
हजम नहीं हुई अब तक

लेखिका परिचय -यशोदा अग्रवाल 

Wednesday, October 30, 2019

समझ... ज़िन्दगी की .....अनामिका घटक

ज़िन्दगी जी लिया हमने 
गमों को पी लिया हमने 
होश में हम जब आये
दिल को सी लिया हमने 

मैखाना भी ख़ाली था 
पैमाना भी ख़ाली था 
भरी थी जिन आंखों में इश्क़ 
वो निगाहें बड़ा सवाली था 

कहा दिल का भी मान लो
अपने जज़्बातों को थाम लो 
न करो सरेआम जख़्मों को 
ज़रा समझदारी से काम लो 
-अनामिका घटक

Tuesday, October 29, 2019

दोपहर होने को आई..... गुलज़ार

आकाश इतना छोटा तो नही
और इतना थोड़ा भी नही .
सारी ज़मीन ढांप ली साहिब
मेरा इतना सा आँगन
क्यूँ नही ढांप ले सकता ..
दोपहर होने को आई
और इक आरज़ू
धूप से भरे आँगन में
छाँव के छीटे फेंकती है
और कहती है
ये आँगन मेरा नही ..
यहाँ तो बस
पाँव रखने को छाँव चाहिए मुझे ..
ये घर भी मेरा नही
मुझे उस घर जाना है
जिस घर मेरा आसमान रहता है .
मेरा आकाश बसता है !
-गुलज़ार
साभार
गुल-ए-गुलज़ार

Monday, October 28, 2019

रात चाँद और मैं ....गुलज़ार

उस रात बहुत सन्नाटा था
उस रात बहुत खामोशी थी
साया था कोई ना सरगोशी
आहट थी ना जुम्बिश थी कोई
आँख देर तलक उस रात मगर
बस इक मकान की दूसरी मंजिल पर
इक रोशन खिड़की और इक चाँद फलक पर
इक दूजे को टिकटिकी बांधे तकते रहे
रात  चाँद  और  मैं  तीनो  ही  बंजारे  हैं
तेरी  नाम  पलकों  में  शाम  किया  करते  हैं  
कुछ  ऐसी  एहतियात  से  निकला  है  चाँद  फिर
जैसे  अँधेरी  रात  में  खिड़की  पे  आओ   तुम  

क्या  चाँद  और  ज़मीन   में  भी  कोई  खिंचाव  है  
रात  चाँद  और  मैं  मिलते  हैं  तो  अक्सर  हम
तेरे  लेहज़े  में  बात  किया  करते  हैं 
  
सितारे  चाँद  की  कश्ती  में  रात  लाती  है   
सहर   में  आने  से  पहले  बिक  भी  जाते  हैं


बहुत  ही  अच्छा  है  व्यापार  इन  दिनों  शब  का  
बस  इक  पानी  की  आवाज़  लपलपाती   है
की  घात  छोड़  के  माझी   तमामा  जा   भी  चुके  हैं 


चलो  ना  चाँद  की  कश्ती  में  झील  पार  करें


रात  चाँद  और  मैं अक्सर  ठंडी  झीलों   को
डूब  कर  ठंडे  पानी  में  पार  किया  करते  हैं
-गुलज़ार
साभार
गुल-ए-गुलज़ार

Sunday, October 27, 2019

टांग पे टांग रख के चांद ...गुलज़ार

एक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में
गोल तिपाही के ऊपर थी
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी
नज़्म के हल्के हल्के सिप मैं
घोल रहा था होठों में
शायद कोई फोन आया था
अन्दर जाकर लौटा तो फिर नज़्म वहां से गायब थी
अब्र के ऊपर नीचे देखा
सूट शफ़क़ की ज़ेब टटोली
झांक के देखा पार उफ़क़ के
कहीं नज़र ना आयी वो नज़्म मुझे
आधी रात आवाज़ सुनी तो उठ के देखा
टांग पे टांग रख के आकाश में
चांद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के
दुनिया भर को अपनी कह के
नज़्म सुनाने बैठा था
-गुलज़ार

Saturday, October 26, 2019

लुटे न देश कहीं आज ...नवीन मणि त्रिपाठी

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लुटे न देश कहीं आज लंतरानी में ।
लगा रहे हैं मियां आग आप पानी में।।

खबर है सबको किधर जा रही है ये कश्ती ।
जनाब जीते रहें आप शादमानी में ।।

अजीब शोर है खामोशियों के बीच यहाँ ।
बहें हैं ख़्वाब भी दरिया के इस रवानी में ।।

सवाल जब से तरक़्क़ी पे उठ रहा यारो ।।
चुरा रहे हैं नज़र लोग राजधानी में ।।

लिखेगा जब भी कोई क़त्ल की सियासत को ।
तुम्हारा जिक्र तो आएगा हर कहानी में ।।

किसे है फिक्र यहां उनकी बदनसीबी की ।
कटोरे ले के जो निकले हैं इस जवानी में ।।

ऐ नौजवां तू जरा मांग हक़ की रोटी को ।
बहुत है जादू सुना उनकी मिह्रबानी में ।।

यकीन हम भी न करते अगर खबर होती ।
मिलेंगे ज़ख्म बहुत प्यार की निशानी में ।।

- नवीन मणि त्रिपाठी

Friday, October 25, 2019

कौन थी वह ...मीना चोपड़ा

कौन थी वह
जो एक बिन्दु-सी
सो रही थी पल-पल --  
मीठी-सी नींद को
आँखों में भरकर
कोख की आँच में
माँ की सर रखकर।

चाहती थी वह
इस नये संसार में
खुलकर भ्रमण करना
एक नये वजूद को
पहन कर तन पर
ज़िन्दगी की चोखट पर
पहला कदम रखना
और फिर
इन जुड़ते और टूटते पलों
से बनी रिश्तों की सीढ़ी पर
लम्हा-लम्हा चढ़ना।
क्या था यही
जन्म को अपने
सार्थक करना?

कौन थी वह
जो एक बिन्दु-सी
सो रही थी पल-पल  ......
-मीना चोपड़ा
मूल रचना

Thursday, October 24, 2019

पूरब की हूँ - श्यामल सी ....मीना चोपड़ा

शाम में शामिल रंगों को ओढ़े
नज़र में बटोर के मचलते मंज़र
ढलते हुए दिन के चेहरे में
मुट्ठी भर उजाला ढूँढ़्ती हूँ।
पूरब की हूँ - श्यामल सी

सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।
पहन के पैरों में पायल
बहकती हवाओं की
फ़िज़ाओं के सुरीले तरन्नुम में
गुनगुनाहटें ज़िन्दगी की ढूढ़्ती हूं
पूरब की हूँ - श्यामल सी

सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।
उठती निगाहों में
भर के कायनात का काजल
दूर कहीं छोर पर उफ़क के
टिमटिमाता वो सितारा ढूढ़्ती हूं
पूरब की हूँ - श्यामल सी

सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।
शोख फूलों को
घूंट मस्ती के पिलाकर
चहकती धूप को आंगन में बिछाकर
ओस की बूंद में अम्बर को ढूँढ़्ती हूँ
पूरब की हूँ - श्यामल सी

सूरज को अपने
गर्दिशों में ज़मीं की ढूढ़्ती हूँ।"
-मीना चोपड़ा


Wednesday, October 23, 2019

कल की फ़िक्र क्यूं करेगा ...अख़्तर

तसव्वुर से उस के मेरा आशियाँ रोशन है,
जैसे की इस सेहरा में एक दरिया रोशन है ।

कल की फ़िक्र क्यूं करेगा, अंधेरों में भी वो,
उस गरीब के चूल्हे में तो आसमां रोशन है ।

पुकार लेती है अपनी मां को अक्सर दर्द में,
दुल्हन के दिल में अब भी मायका रोशन है ।

भटक गया फ़िर भी भटकेगा नहीं मुसाफ़िर,
हर कदम पर रास्ते पर वो कारवाँ रोशन है ।

ज़ुबान पर सच्चाई, दिल में न डर किसी का,
'अख़्तर' रोम रोम में मेरा ख़ुदा रोशन है ।
-अख़्तर

Tuesday, October 22, 2019

कभी कहाँ थे कभी कहीं हो.... डॉ. कुमार विश्वास

हो काल गति से परे चिरंतन,
अभी यहाँ थे अभी यही हो।
कभी धरा पर कभी गगन में,
कभी कहाँ थे कभी कहीं हो।

तुम्हारी राधा को भान है तुम,
सकल चराचर में हो समाये।
बस एक मेरा है भाग्य मोहन,
कि जिसमें होकर भी तुम नहीं हो।

न द्वारका में मिलें बिराजे,
बिरज की गलियों में भी नहीं हो।
न योगियों के हो ध्यान में तुम,
अहम जड़े ज्ञान में नहीं हो।

तुम्हें ये जग ढूँढता है मोहन,
मगर इसे ये खबर नहीं है।
बस एक मेरा है भाग्य मोहन,
अगर कहीं हो तो तुम यही हो।
डॉ. कुमार विश्वास
कविताकोश से

Monday, October 21, 2019

पता नहीं कितनी पुरानी रचना है ...डॉ. कुमार विश्वास

जब भी मुंह ढक लेता हूं, 
तेरे जुल्फों की छांव में.
कितने गीत उतर आते हैं, 
मेरे मन के गांव में!

एक गीत पलकों पे लिखना, 
एक गीत होंठो पे लिखना.
यानी सारे गीत हृदय की, 
मीठी चोटों पर लिखना !

जैसे चुभ जाता है 
कांटा नंगे पांव में.
ऐसे गीत उतर आता है, 
मेरे मन के गांव मे !

पलके बंद हुई जैसे, 
धरती के उन्माद सो गए.
पलकें अगर उठी तो जैसे, 
बिना बोले संवाद हो गए. !

जैसे धूप चुनरिया ओढ़े, 
आ बैठी हो छांव में.
ऐसे गीत उतर आता है, 
मेरे मन के गांव मे.!!
-डॉ. कुमार विश्वास

Sunday, October 20, 2019

अपनी-अपनी रात का मातम मनाओ ...आबिद

अपने-अपने दर्द का किस्सा सुनाओ,
रात भर देगी वगरना सबके घाव।

कुछ सुलाओ आरज़ू को कुछ जगाओ,
घटती-बढ़ती टीस की लज़्ज़त उठाओ।  

फिर कोई टहनी कोई पत्ता हिलाओ,
ऐ मेरे ख़्वाबरो जंगल की हवाओ।

या किसी सूरज का रस्ता रोक लो,
या किसी तारीक़ शब में डूब जाओ।

आज इसे कमरे से बाहर फेंक दो,
कल इसी को ला के कमरे में सजाओ।

ओढ़ लो या कोई दस्ते-ख़ामोशी,
या किसी बहरी सदा में डूब जाओ।

अपने-अपने ख़्वाब का मलबा लिए,
अपनी-अपनी रात का मातम मनाओ।

या उड़ो वहशी बग़ूलों की तरह,
या किसी पत्थर में छुप के बैठ जाओ।

'रामनाथ चसवाल (आबिद आलमी)'

Saturday, October 19, 2019

अतिथि......रचना दीक्षित


कुछ समय से
घर भर गया है
मेहमानों से.
घर ही नहीं 
शरीर, मन, मस्तिष्क
चेतन, अवचेतन.
ये मात्र मेहमान नहीं
मेहमानों का कुनबा है.
सोचती हूँ
मन दृढ करती हूँ 
आज पूंछ ही लूँ 
अतिथि
तुम कब जाओगे
पर संस्कार रोक लेते है.
ये आते जाते रहते है 
पर क्या मजाल
कि पूरा कुनबा
एक साथ चला जाये
शायद उन्हें डर है 
उनकी अनुपस्थिति में 
वो धरोहर जो मुझे सौंपी गई,  
वो किसी और के 
नाम न लिख दी जाय.
हाँ! चिंता, दुःख,
इर्ष्या, डर और 
इनकी भावनाएं 
मेरे मस्तिष्क में
स्थायी निवास कर रही हैं....!!


लेखक परिचय - रचना दीक्षित 

Friday, October 18, 2019

मेरी हथेलियां दायरे बनाती हैं.....सीमा सिंघल सदा


ये बिखराव कैसा है
जिसे समेटने के लिए
मेरी हथेलियां दायरे बनाती हैं
फिर कुछ समेट नहीं पाने का
खालीपन लिये
गुमसुम सी मन ही मन आहत हो जाती हैं
अनमना सा मन
ख्यालों के टुकड़ों को
उठाना रखना करीने से लगाना
सोचना आहत होना
फिर ठहर जाना
..........
मन का भारी होना जब भी
महसूस किया
तुम्हारा ही ख्याल सबसे पहले आया
तुम कैसे जीते हो हरपल
बस इतना ही सोचती तो
मन विचलित हो जाता
इक टूटे हुए ख्याल ने आकर
मुझसे ये पूछ लिया
इन टुकड़ों में तुम भी बंट गई हो
मैं मुस्करा दी जब आहत भाव से
वो बनकर आंसू
बिखर गया मेरी हथेलियों में !!


लेखक परिचय - सीमा सिंघल सदा 

Thursday, October 17, 2019

चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे ...निदा फ़ाजली

एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक 
जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा 

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो 
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे 

नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए 
इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई 

तुम से छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था 
तुम को ही याद किया तुम को भुलाने के लिए 

कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई 
आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई 

हम लबों से कह न पाए उन से हाल-ए-दिल कभी 
और वो समझे नहीं ये ख़ामुशी क्या चीज़ है 

सब कुछ तो है क्या ढूँडती रहती हैं निगाहें 
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता 

उस को रुख़्सत तो किया था मुझे मालूम न था 
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला 

दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती 
ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती 

गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया 
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया 

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने 
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है 

ये शहर है कि नुमाइश लगी हुई है कोई 
जो आदमी भी मिला बन के इश्तिहार मिला 
-निदा फ़ाजली

Wednesday, October 16, 2019

जांबाज़....अफ़ज़ल अलाहाबादी

चांद तारों का वो हमराज़ नहीं हो सकता,
ख़ुद से माइल-ए-परवाज़ नहीं हो सकता

मेरे जैसा तेरा अंदाज नहीं हो सकता
इक कबूतर कभी शाहबाज़ नहीं हो सकता

अज़्म फ़रहाद जो रखता नहीं अपने दिल में
वो ज़ुनु-ख़ेजी में मुमताज़ नहीं हो सकता

तू ही रखता है हर राज़ मेरा पोशीदा,
तेरे जैसा कोई हमराज़ नहीं हो सकता.

मुझको जो कुछ भी मिला ये है इनायत तेरी,
अपनी कोशिश पे मुझे नाज़ नही हो सकता.

सर को अपने जो हथेली पे रख ले अफ़ज़ल,
मेरी नज़रों में वो जांबाज़ नहीं हो सकता.
-अफ़ज़ल अलाहाबादी

Tuesday, October 15, 2019

दीपक दम तोड़ रहा है..कुसुम कोठारी

चारों तरफ कैसा तूफान है
हर दीपक दम तोड़ रहा है !


इंसानों की भीड जितनी बढी है 

आदमियत  उतनी ही नदारद है !


हाथों मे तीर लिये हर शख्स है

हर नजर नाखून लिये बैठी है !


किनारों पे दम तोडती लहरें है

समंदर से लगती खफा खफा है !


स्वार्थ का खेल हर कोई खेल रहा है

मासूमियत लाचार दम तोड रही है !


शांति के दूत कहीं दिखते नही है

हर और शिकारी बाज उड रहे है !


कितने हिस्सों मे बंट गया मानव है

अमन ओ चैन मुह छुपा के रो रहा है !!


-- कुसुम कोठारी

Monday, October 14, 2019

मजबूत प्रतिद्वंदी..... अमरेंद्र "अमर"



जब भी मन होता है 

तुमसे मिलने का 
उसी पेड़ की छाव में 
आ जाता हूँ, 



पछी घोसले नहीं बनाते

अब इस पेड़ पर 
तो क्या हुआ 
छाव में बैठते तो है ,



ये आज भी ,

उन हठीले तुफानो का सबसे मजबूत प्रतिद्वंदी है 
जिसमे न जाने कितने घर उजड़  गए   
और ये  खड़ा देखता रहा ,

"बस रिश्ते कमजोर पड़ गए 
जो इसकी छाव में बने"  



- अमरेंद्र  "अमर"

Sunday, October 13, 2019

नौकरी तो मैं वर्षों से कर रही थी ....डॉ. मधुसूदन चौबे

थक गया यह सोच कर रस्ता दिखा देगी मुझे
अपनी ही रफ़्तार से चलती रही है जिन्दगी 
सुन, तू मेरी माँ नहीं, काम वाली बाई है.. 
शहर में मिलती नहीं, गाँव से आई है .

कोई भी पूछे, तो सबको यही बताना.. 
यहाँ मत रुक, जा अन्दर चली जा ना .

घंटी बजे तो तुरंत बहार आना है ..,
'जी' कह कर अदब से सर झुकाना है ...
मुझसे मिलने आये विजिटर्स के लिए ...,
'शालीनता' से चाय - पानी लाना है...

बहू 'मैडम' और में तेरे लिए 'सर' हूँ. 
अब मैं 'पप्पू' नहीं, बड़ा अफसर हूँ.. 

माँ हंसी, फिर बोली मुझे मंजूर है ..,
तेरी उपलब्धि पर मुझे गुरुर है. ..
बचपन में गोबर बीनने वाला पप्पू. ...,
आज जिले का माई-बाप और हुजूर है. ..

नौकरी तो मैं वर्षों से कर रही थी ..,
गंदगी साफ़ कर, तेरी फीस भर रही थी..
दिल्ली कोचिंग का शुल्क देने के लिए ....,
में ख़ुशी-ख़ुशी 'पाप' कर रही थी ...

सुनो, बाई, जल्दी से नाश्ता लगाओ ....,
तभी 'मैडम' की कर्कश आवाज आई थी ..../
वह जो धरती पर ईश्वर का विकल्प थी .....,
अपनी नियति पर उसकी आँख छलक आई थी...//

Saturday, October 12, 2019

मुर्दा बन सोता रहेगा ....डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ’अरुण’

गर बेटियों का कत्ल यूँ ही 
कोख में होता रहेगा!

शर्तिया इन्सान अपनी 
पहचान भी खोता रहेगा!!

मर जायेंगे अहसास 
सारे खोखली होगी हँसी,

साँस लेती देह बस 
ये आदमी ढोता रहेगा!!

स्वर्ग जाने के लिए 
बेटे की सीढी ढूँढ कर,

नर्क भोगेगा सदा ये 
आदमी रोता रहेगा!!

ढूँढ लेगा चंद खुशियाँ 
अपने जीने के लिए,

आदमी बिन बेटियों के 
मुर्दा बन सोता रहेगा!!

चैन सब खोना पड़ेगा 
बदनाम होगा आदमी,

बेटियों को मरने का 
दाग बस धोता रहेगा!!

-डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ’अरुण’

Friday, October 11, 2019

स्वप्न झरे फूल से ...गोपालदास "नीरज"

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई

गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ

हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।

माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
- गोपालदास "नीरज"