आँखों में है चाँदनी, होठों पर अब गान।
मन से मन है मिल गया, त्यागा जब अभिमान ।।1।।
तुलसी चौरा सिंचती, देती संध्या दीप।
माँ के मन में प्रार्थना, सब जन रहें समीप।।2।।
जीवन रैना ढल रही, पाया कभी न चैन।
मिल जाये अब एक छवि, तरसें कोरे नैन।।3।।
सूखे पत्ते टूटकर, करते हैं अफ़सोस।
लब पर उनके भी कभी, ठहरी थी ये ओस।।4।।
आँखों से पानी बहे, हिये विरह की आग।
जीवन भर मिटता नहीं, दामन से ये दाग़।।5।।
मन के तार बजा गई, पायल की झनकार।
रुनझुन रुनझुन जब सुनी, भूल गए तकरार।।6।।
बेटी घर की लाड़ली, बाँटे सबको प्यार।
कौन करे बेटी बिना, रिश्तों की मनुहार।।7।।
कहने को तो हो गए, हर ग़म से आज़ाद।
फिर क्यों है पसरा हुआ, घर घर में अवसाद।।8।।
बाबूजी गुमसुम हुए, पसरा घर में मौन।
सींचे अम्मा के बिना, तुलसी चौरा कौन।।9।।
अमराई सूनी पड़ी, कोयल धारे मौन।
कौओं की चौपाल में, मीठा बोले कौन।।10।।
बोल तुम्हारे बन गए, जीवन का नासूर।
लम्हा था जो ले गया, हमको तुमसे दूर।।11।।
विधना भारी छल करे, नाम दिया है प्रीत।
जीवन भर गाते रहे, होठ विरह के गीत।।12।।
समय सदा गढ़ता रहा, कर दुःखों के वार।
हँसकर हम सहते रहे, तब पाया सत्कार।।13।।
अब मुझको होता नहीं, दूरी का अहसास।
देखा आँखें मूँद कर, पाया हरदम पास।।14।।
मन धरती पर हैं उगे, संदेहों के झाड़।
जब छोटी सी बात भी, बनती तिल से ताड़।।15।।
मर्म धर्म का खो गया, खोया आपस का लाड़
अब आगन्तुक को मिलें, घर के बंद किवाड़।।16।।
बच्चे परदेसी बने, पथ देखें माँ-बाप।
सब कोई हैं भोगते, सुविधाओं का शाप।।17।।
मेघ पीटते रह गए, आश्वासन के ढोल।
सूखा धरती का हलक, गुम हैं मीठे बोल।।18।।
सावन की बदली लगे, आँखों का अनुवाद।
डूब जहाँ आकण्ठ हम , भूले हैं प्रतिवाद।।19।।
धवल- ज़र्द चाँदनी, गई झील में झाँक।
पल-पल वो छवि बदलती, रही रूप को आँक।।20।।
आँख तरेरे दुपहरी, मारे जेठ दहाड़।
राही तरसें छाँव को, सूख गए हैं हाड़।।21।।
-अनिता मंडा
सुजानगढ़, राजस्थान
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