Tuesday, June 28, 2016

आँखों में है चाँदनी, होठों पर अब गान




आँखों में है चाँदनी, होठों पर अब गान।
मन से मन है मिल गया, त्यागा जब अभिमान ।।1।।

तुलसी चौरा सिंचती, देती संध्या दीप।
माँ के मन में प्रार्थना, सब जन रहें समीप।।2।।

जीवन रैना ढल रही, पाया कभी न चैन।
मिल जाये अब एक छवि, तरसें कोरे नैन।।3।।

सूखे पत्ते टूटकर, करते हैं अफ़सोस।
लब पर उनके भी कभी, ठहरी थी ये ओस।।4।।

आँखों से पानी बहे, हिये विरह की आग।
जीवन भर मिटता नहीं, दामन से ये दाग़।।5।।

मन के तार बजा गई, पायल की झनकार।
रुनझुन रुनझुन जब सुनी, भूल गए तकरार।।6।।


बेटी घर की लाड़ली, बाँटे सबको प्यार।
कौन करे बेटी बिना, रिश्तों की मनुहार।।7।।

कहने को तो हो गए, हर ग़म से आज़ाद।
फिर क्यों है पसरा हुआ, घर घर में अवसाद।।8।।

बाबूजी गुमसुम हुए, पसरा घर में मौन।
सींचे अम्मा के बिना, तुलसी चौरा कौन।।9।।

अमराई सूनी पड़ी, कोयल धारे मौन।
कौओं की चौपाल में, मीठा बोले कौन।।10।।

बोल तुम्हारे बन गए, जीवन का नासूर।
लम्हा था जो ले गया, हमको तुमसे दूर।।11।।

विधना भारी छल करे, नाम दिया है प्रीत।
जीवन भर गाते रहे, होठ विरह के गीत।।12।।

समय सदा गढ़ता रहा, कर दुःखों के वार।
हँसकर हम सहते रहे, तब पाया सत्कार।।13।।

अब मुझको होता नहीं, दूरी का अहसास।
देखा आँखें मूँद कर, पाया हरदम पास।।14।।

मन धरती पर हैं उगे, संदेहों के झाड़।
जब छोटी सी बात भी, बनती तिल से ताड़।।15।।

मर्म धर्म का खो गया, खोया आपस का लाड़
अब आगन्तुक को मिलें, घर के बंद किवाड़।।16।।

बच्चे परदेसी बने, पथ देखें माँ-बाप।
सब कोई हैं भोगते, सुविधाओं का शाप।।17।।

मेघ पीटते रह गए, आश्वासन के ढोल।
सूखा धरती का हलक, गुम हैं मीठे बोल।।18।।

सावन की बदली लगे, आँखों का अनुवाद। 
डूब जहाँ आकण्ठ हम , भूले हैं प्रतिवाद।।19।।

धवल- ज़र्द चाँदनी, गई झील में झाँक।
पल-पल वो छवि बदलती, रही रूप को आँक।।20।।

आँख तरेरे दुपहरी, मारे जेठ दहाड़।
राही तरसें छाँव को, सूख गए हैं हाड़।।21।।

-अनिता मंडा
सुजानगढ़, राजस्थान
anitamandasid@gmail.com

Tuesday, June 7, 2016

क्यूँकि लाखों हैं यहाँ स्वाँग रचाने वाले.....कुँवर कुसुमेश


फिक्र बिलकुल न करें आग बुझाने वाले। 
पानी पानी हैं सभी आग लगाने वाले।

मुझको अहसासे-मुहब्बत पे गुमाँ है लेकिन,
उनको अहसास करा देंगे कराने वाले।

सिर्फ दिखते हुए दाँतों से हमें क्या लेना,
दाँत हाथी के अलग होते है खाने वाले।

कैसे पहचाने कोई आज किसी इंसाँ को,
क्यूँकि लाखों हैं यहाँ स्वाँग रचाने वाले।

वक़्त आने पे मुकर जाते हैं यूँ तो लाखों,
फिर भी देखे हैं कई फ़र्ज़ निभाने वाले।

प्यार के नाम पे लुट जाना हमारी फितरत,
प्यार में हम है "कुँवर" जान लुटाने वाले।

-कुँवर कुसुमेश

Saturday, June 4, 2016

हम भाषा मज़हब में बट गये.....मनजीत कौर



यूँ तो शहर से शहर सट गये
हम भाषा मज़हब में बट गये

देखी जो उनके चेहरे की रंगत
हम उनकी राहों से ख़ुद हट गये

ख़त्म हो रहा दौर अब वह पुराना
परिवार चार बंदों में बट गये

क्या जान पाएँगे हम दर्द उनका
आज़ादी की ख़ातिर जो सर कट गये

जुनूं चढ़ रहा पैसे का इस क़द्र
अब जीवन के मूल्य घट गये

ऊँची उड़ान की चाह थी जिनको
उन ही परिंदों के पर कट गये
-मनजीत कौर
manjeetkr69@gmail.com

Thursday, June 2, 2016

लड़की दो कविताएँ....डॉ. ऋतु त्यागी

लड़की - १

लड़की
सोचा करो 
बोलने से पहले
क्योंकि तुम्हारे बोलने से
डोलने लगती है
पैरों के नीचे की धरती
संकट में पड़ जाते हैं अस्तित्व।
.....


लड़की - २
लड़की
तुम्हारे लबों पर बैठी 
ख़ामोशी चाबी है
घर की ख़ुशी की
जिससे खुल जाता है
ख़ुशी का कोई भी दरवाज़ा
पर
उस दरवाज़े के भीतर से
झाँकते तुम्हारे चेहरे पर
पड़ गईं हैं
दर्द की कभी न 
मिटने वाली दरारें।

-डॉ. ऋतु त्यागी

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