Friday, January 31, 2020

सरहदें......मीनू बागीआ


होता  नहीं है छूना आसान सरहदें 
कर देतीं हैं जिस्म लहूलुहान सरहदें 


सूनी आँखें  हैं और खुश्क  हैं  होंठ 

तपते इंसानों सी रेगिस्तान सरहदें 


हैं इतनी बे -आबरू  क्यूँ  न  रोयें 

जज्बातों का होती  हैं तूफ़ान  सरहदें 


हवा भी रुक जाती है यहाँ दो घड़ी 

कर देंगी  इसे भी कुर्बान  सरहदें 


गर्म लहू बहते बहते जमने लगा है 

बर्फ की परतों सी बेईमान सरहदें


Thursday, January 30, 2020

दूर तक नज़र नहीं आता किनारा...दिलबागसिंह विर्क

कुछ इस क़द्र गर्दिश में है मेरा सितारा 
कहीं दूर तक नज़र नहीं आता किनारा। 

उन्हें गवारा नहीं मेरी हाज़िरजवाबी 

मुझे ख़ामोश रहना, नहीं है गवारा।

अपने हुनर की दाद पाना चाहता होगा 

तभी ख़ुदा ने चाँद को ज़मीं पर उतारा। 

बस अपनी मुलाक़ात हो नहीं पाती वरना 

गैरों से रोज़ पूछता हूँ, मैं हाल तुम्हारा। 

बीच रास्ते में कहीं साथ छोड़ देता है ये 

क़दमों के साथ घर न आए, दिल आवारा। 


फ़र्ज़ानों की नज़र में तो दीवाना ही हूँ मैं 

कौन पागल है ‘विर्क’, जिसने मुझे पुकारा।  

लेखक परिचय- दिलबागसिंह विर्क 

Wednesday, January 29, 2020

दायरा ...पूजा प्रियंवदा

रात भर नींद
हल्के पत्ते सी तैरती है
आँखों के पोखरों में
वक़्त कर्मठ श्रमिक
गहरे करता जा रहा है
काले घेरे

भोर भारी है
किसी अनमनी गर्भिणी सी
घसीटती खुद को
जानते हुए एक और दिन होगा
मृत प्रसव

दिन लावारिस लाश सा
मर कर भी नहीं मरता
शोर और भीड़
उठा नहीं पाते
मेरे अकेलेपन की चट्टान

शाम सुन्न
शीतक्षत उँगलियों से
कब तक लिखे जायेंगे
अंधेरों के गीत

रात लौट आयी है
इतना ही है मेरी

उम्र क़ैद का दायरा
- पूजा प्रियंवदा
मूल रचना

Tuesday, January 28, 2020

अभी न होगा मेरा अन्त ...सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला"

अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त

हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात!

मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर

पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,

द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
है मेरे वे जहाँ अनन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त।

मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहाँ मृत्यु?
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन,

मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त;
अभी न होगा मेरा अन्त।

- पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला"

Monday, January 27, 2020

रिश्ते...पल्लवी गोयल

कभी कभी सोचती  हूँ कि
रिश्ते दूरी से नहीं,
 दिलों से नापे जाते हैं ।


क्योंकि अक्सर एक दरवाजे से

दूसरे दरवाजे तक का सफ़र
तय करने में बरसों गुजर जाते हैं !!


लेखिका परिचय- पल्लवी गोयल 

Sunday, January 26, 2020

अक्सर खामोश लम्हों में....मीना भारद्वाज


अक्सर खामोश लम्हों में
किताबें भंग करती हैं
मेरे मन की चुप्पी…
खिड़की से आती हवा के साथ
पन्नों की सरसराहट
बनती है अभिन्न संगी…
पन्नों से झांकते शब्द
सुलझाते हैं मन की गुत्थियां
शब्द शब्द झरता है पन्नों से
हरसिंगार के फूल सा…
नीलगगन में चाँद
बादलों की ओट से झांकता
धूसर सा लगता है…
कशमकश के लम्हों में
एक खामोश सी नज़्म
साकार हो उठती है अहसासों में
बस उसी पल…
प्रभाकर की अनुपस्थिति में
पूर्णाभा के साथ
मन आंगन में..सात रंगों वाला…
इन्द्र धनुष खिल उठता है !!


लेखिका परिचय- मीना भारद्वाज 

Saturday, January 25, 2020

आत्मा का शरणार्थी हो जाना ...पूजा प्रियंवदा

कैसा होता होगा
आत्मा का शरणार्थी
हो जाना
गुड़ में, साग में
हवा में
ढूंढना सरहद पार की खुश्बू
और घंटों हर-रोज़
आँखें बंद कर देखना
अपने बचपन का घर
ठिठुरते हाथों से
शालें स्वेटरें बेचते
उम्मीद की आखरी डोर को
हिमालय के उस पार
पोटाला के गुम्बदों से
बांधे रखना
टिमटिमाती नीली-पीली
बस्तियों में
सपने देखना
ब्रह्मपुत्र के पार के
हरे खेतों
की पहली फसल के
या बर्लिन की बर्फ़बारी में
कांगड़ी की कमी
महसूस करना
और पहन लेना
यादों का तार-तार पुराना फेरन
या फिर ऐसा होना
मेरी तरह
जड़ों से मुक्त
अनेक अजीब शहरों में
छोड़ आना
अपनी थोड़ी थोड़ी आत्मा
और बन जाना
एक निरंतर पथिक .
- पूजा प्रियंवदा

Friday, January 24, 2020

दुआ हूँ मैं.....पूनम

दिल से निकली हुई दुआ हूँ मैं..
रस्म ए उल्फ़त का सिलसिला हूँ मैं..!

लब़ ए खामोश ग़रचे जाहिर हूँ..
इश्क़ का ऐसा फ़लसफ़ा हूँ मैं..!

मुझको महफ़िल में कर दिया रुसवा...
बेवफ़ा आप, बावफ़ा हूँ मैं...!

बन के ख़ुशबू समा गई दामन...
ज़ुल्फ लहराए वो हवा हूँ मैं...!

लाख बातें बनाये ये दुनिया...
सच मगर क्या है जानता हूँ मैं..!

अपनी मंज़िल नज़र नहीं आती..
इक मुसलसल सा रास्ता हूँ मैं...!

रात 'पूनम' सी हो गयी रौशन...
ज़ीनते रात हूँ, शमा हूँ मैं...!
-पूनम

Wednesday, January 22, 2020

डाल ली आदत हर घड़ी मुसकुराने की....अज्ञात

उसने कहा- बेवजह ही
खुश हो क्यों?
मैंने कहा- हर वक्त
दुखी भी क्यों रहूँ?
उसने कहा- जीवन में
बहुत गम हैं।

मैंने कहा -गौर से देख,
खुशियां भी कहाँ कम हैं?
उसने तंज़ किया -
ज्यादा हँस मत,
नज़र लग जाएगी।

मेरा ठहाका बोला-
हंसमुख हूँ,
फिसल जाएगी।
उसने कहा- नहीं होता
क्या तनाव कभी?
मैंने जवाब दिया- ऐसा
तो कहा नहीं!
उसकी हैरानी बोली-
फिर भी यह हँसी?
मैंने कहा-डाल ली आदत
हर घड़ी मुसकुराने की!

उसने फिर तंज़ किया-अच्छा!!
बनावटी हँसी...इसीलिए
परेशानी दिखती नहीं।
मैंने कहा-
अटूट विश्वास है,
प्रभु मेरे साथ है,
फिर चिंता-परेशानी की
क्या औकात है?

कोई मुझसे "मैं दुखी हूँ"
सुनने को बेताब था,
इसलिए प्रश्नों का
सिलसिला भी
बेहिसाब था...
उसने पूछा - कभी तो
छलकते होंगे आँसू ?
मैंने कहा-अपनी
मुस्कुराहटों से बाँध
बना लेता हूँ।
अपनी हँसी कम पड़े तो

कुछ और लोगों को
हँसा देता हूँ।
कुछ बिखरी ज़िंदगियों में
उम्मीदें जगा देता हूँ।
यह मेरी मुस्कुराहटें
दुआऐं हैं उन सबकी
जिन्हें मैंने तब बाँटा,
जब मेरे पास भी
कमी थी।

-किसने लिखा यो पता नही

Tuesday, January 21, 2020

आज कल दिन में क्या नहीं होता ...बशीर बद्र

कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता

जी बहुत चाहता सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

रात का इंतज़ार कौन करे
आज कल दिन में क्या नहीं होता 
-बशीर बद्र

Monday, January 20, 2020

चलो फिर से मुस्कुराएं ...फैज अहमद फैज


चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल जलाएं

जो गुज़र गयी हैं रातें
उन्हें फिर जगा के लाएं
जो बिसर गयी हैं बातें
उन्हें याद में बुलायें

चलो फिर से दिल लगायें
चलो फिर से मुस्कुराएं
किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी क़बा की

किसी रग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हर्फे-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा

ये मिलन की, ना मिलन की
ये लगन की और जलन की

जो सही हैं वारदातें
जो गुज़र गयी हैं रातें
जो बिसर गयी हैं बातें
कोई इनकी धुन बनाएं
कोई इनका गीत गाएं

चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल लगाएं

-फैज अहमद फैज..

Saturday, January 18, 2020

ग़ज़ल मैंने भी लिखी है. ..अरूणिमा सक्सेना


221.  2121.  1221. 212
मतला
आंखों के आगे गिर रहे पत्ते चनार के
आंसू लहू के टपके दिले दाग दार के ।।
हुस्ने मतला
सोचा किये कि जाएंगे मौला के द्वार पे
सपने अधूरे रह गए ग़म बेशुमार के।।
छाया यहाँ  नहींअब शायद इसी लिए
पेड़ों के कौन ले गया ज़ेवर उतार के ।।
❣ 
मिलने चले थे वक्त जुदाई का आ गया
उम्मीद के वो धागे हुये तार तार के।।
❣❣
-अरूणिमा सक्सेना

Friday, January 17, 2020

मैं हिन्दी हूँ ....डॉ० विश्राम जी

मैं सूरदास की दृष्टि बनी
तुलसी हित चिन्मय सृष्टि बनी
मैं मीरा के पद की मिठास
रसखान के नैनों की उजास
मैं हिन्दी हूँ ।।

मैं सूर्यकान्त की अनामिका
मैं पन्त की गुंजन पल्लव हूँ
मैं हूँ प्रसाद की कामायनी
मैं ही कबीरा की हूँ बानी
मैं हिन्दी हूँ ।।

खुसरो की इश्क मज़ाजी हूँ
मैं घनानंद की हूँ सुजान
मैं ही रसखान के रस की खान
मैं ही भारतेन्दु का रूप महान
मैं हिन्दी हूँ ।।

हरिवंश की हूँ मैं मधुशाला
ब्रज, अवधी, मगही की हाला
अज्ञेय मेरे है भग्नदूत
नागार्जुन की हूँ युगधारा
मैं हिन्दी हूँ ।।

मैं देव की मधुरिम रस विलास
मैं महादेवी की विरह प्यास
मैं ही सुभद्रा का ओज गीत
भारत के कण-कण में है वास
मैं हिन्दी हूँ ।।

मैं विश्व पटल पर मान्य बनी
मैं जगद् गुरु अभिज्ञान बनी
मैं भारत माँ की प्राणवायु
मैं आर्यावर्त अभिधान बनी
मैं हिन्दी हूँ।।

मैं आन बान और शान बनूँ
मैं राष्ट्र का गौरव मान बनूँ
यह दो तुम मुझको वचन आज
मैं तुम सबकी पहचान बनूँ
मैं हिन्दी हूँ।।
-डॉ० विश्राम जी 

Thursday, January 16, 2020

माँ इतनी खाश क्यों है ?



बारिश में मै जब घर वापस आयी....
भाई ने पूछा, "छाता लेकर क्यों नहीं गयी थे?
दीदी ने सलाह दी, "बारिश रुकने का इन्तजार करती"
पापा ने गुस्से में बोला, "जब ठण्ड लग जाएगी तब मालुम पड़ेगा"
लेकिन
मेरी माँ मेरे बाल सुखाती हुई बोली, 

"ये बारिश भी न, थोडा देर रुक नहीं सकती थी 
जब मेरी बेटी घर आ रही थी |

ब्लॉग - Love You Mom


Wednesday, January 15, 2020

मौन के भी शब्द होते हैं.....गुन्जन


हाँ मौन के भी "शब्द" होते हैं
और बेहद मुखर भी
चुन -चुन कर आते हैं ये उस अँधेरे से
जहाँ मौन ख़ामोशी से पसरा रहता है
बिना शिकायत -
बैठे-बैठे न जाने क्या बुनता रहता है .. ?
शायद शब्दों का ताना-बना

और ये शब्द विस्मित कर देते हैं
तब.... जब वो सामने आते हैं
प्रेम की एक नयी परिभाषा गढ़ते हुए
अथाह सागर ... असीमित मरुस्थल ... जलद व्योम
न जाने कितना कुछ
अपने में समेटे हुए .. छिपाए हुए
ओह ...... !!

जब सुना था उन्हें .... तब रो पड़ी थी मैं
हाँ मौन के भी शब्द होते हैं
और बेहद मुखर भी
कभी सुनना उन्हें
रो दोगे तुम भी ...... जानती हूँ मैं
अभी भी कितना कुछ समेटे हैं अपने भीतर
भला तुम क्या जानो .. ?


लेखिका परिचय - गुन्जन

Tuesday, January 14, 2020

हवा रो रही है ...दिव्या भसीन

सिसकती है डाली हवा रो रही है।
कली अधखिली फिर से रौंदी गई है।।

फ़िज़ा में उदासी घुली इस तरह अब,
जुबां सिल गयी आँख में भी नमी है।

मेरी ख़ैर ख़्वाही का दावा था करता,
तबाही मेरी देख लब पर हँसी है।

हुए तन्हा हम ज़िन्दगी के सफ़र में,
लगे अपनी सूरत ही अब अजनबी है।

यकीं है मुझे जिसकी रहमत पे हरदम,
उसे चारसू ही नज़र ढूंढती है।

उसे रात के क्या अँधेरे डरायें,
जो ताउम्र ख़ुद तीरगी में पली है।

नसीबा करो बंद अब आज़माना
ख़बर भी है क्या मेरी जां पर बनी है।
-दिव्या भसीन

Monday, January 13, 2020

औरत का दर्द ...दिनेश ध्यानी

औरत का दर्द
आजीवन पराश्रित
कहने को तो घर की लक्ष्मी
हक़ीक़त में
लाचार और विवश।

जन्मने से पहले
जन्मने के बाद न जाने
कब दबा दिया जाय
इसका गला।

तरेरती आँखें नोचने को तत्पर
न घर, न बाहर रही अब सुरक्षित,
जीवन की रटना
जीवनभर खटना
दूसरों की खातिर
खुद को होम करना।
-दिनेश ध्यानी

Sunday, January 12, 2020

हाइकु-मालिका ...मीनू खरे

पूस की रात
खुला आसमाँ और
आवारा कुत्ते!

क्या कहते हैं?
भौं-भौं करके ये 
आवारा कुत्ते!

रात भर ये
खुली जंग लड़ते
ठिठुरन से ।

अगले दिन
धूप से बतियाते 
आवारा कुत्ते!

हाड़ कँपाएँ
ठंड की लम्बी रातें
खुला आसमाँ।

सहनशक्ति
ओढ़कर सो जाते 
आवारा कुत्ते!

चन्द टुकड़े
रोटियाँ खाकरके
पूँछ हिलाते।

चौकीदारी से
हक़ अदा करते
आवारा कुत्ते!

आज का युग
आस्तीन के साँपों का-
हाँ ये सच है!

वफ़ादारी से
हैराँ कर जाते हैं
आवारा कुत्ते!
-मीनू खरे
meenukhare@gmail.com
मूल रचना

Saturday, January 11, 2020

सन्तोष ...रेवा टिबड़ेवाल

जब मन उदास होता है
और तुम्हारा साथ नहीं
मिलता
तो तुम्हारे लिखे शब्द
पढ़ लेती हूँ

हर बार उन्हें पढ़ कर
चेहरे पर मुस्कुराहट
तैर जाती है
संतोष से भर उठता है मन
के दुनिया के एक कोने में
कोई है जो मुझे मुझसे बेहतर
जानता है
जो हर बार कुछ ऐसा महसूस
कराता है की जिंदगी से
प्यार हो जाता है
जिसका प्यार मुझे कमज़ोर
कतई नहीं करता
बल्कि
दोगुनी ताक़त से भर देता है
जानते हो
दुनिया कैसी भी हो
पर जब तक तुम जैसे
प्यार करने
वाले इंसान ज़िंदा है
दुनिया में अच्छाई और
इंसानियत कायम
रहेगी
-रेवा 
मूल रचना

Friday, January 10, 2020

नागफनी आँचल में बान्ध सको तो आना ....किशन सरोज

हिंदी के श्रेष्ठ कवि और गीतकार 
स्मृतिशेष किशन सरोज जी 
का निधन 8 जनवरी 2020 को हुआ।
 वे  काफी समय से बीमार चल रहे थे, 
हालत दिन ब दिन बिगड़ती जा रही थी और 
कुछ दिनों से लोगों को पहचान भी नहीं पा रहे थे।

प्रस्तुत है उनकी एक कविता

नागफनी आँचल में बाँध सको तो आना
धागों बिन्धे गुलाब हमारे पास नहीं।

हम तो ठहरे निपट अभागे
आधे सोए, आधे जागे
थोड़े सुख के लिए उम्र भर
गाते फिरे भीड़ के आगे

कहाँ-कहाँ हम कितनी बार हुए अपमानित
इसका सही हिसाब हमारे पास नहीं।

हमने व्यथा अनमनी बेची
तन की ज्योति कंचनी बेची
कुछ न बचा तो अँधियारों को
मिट्टी मोल चान्दनी बेची

गीत रचे जो हमने, उन्हें याद रखना तुम
रत्नों मढ़ी किताब हमारे पास नहीं।

झिलमिल करती मधुशालाएँ
दिन ढलते ही हमें रिझाएँ
घड़ी-घड़ी, हर घूँट-घूँट हम
जी-जी जाएँ, मर-मर जाएँ

पी कर जिसको चित्र तुम्हारा धुँधला जाए
इतनी कड़ी शराब हमारे पास नहीं।

आखर-आखर दीपक बाले
खोले हमने मन के ताले
तुम बिन हमें न भाए पल भर
अभिनन्दन के शाल-दुशाले

अबके बिछुड़े कहाँ मिलेंगे, यह मत पूछो
कोई अभी जवाब हमारे पास नहीं।
30  जनवरी 1939 - 08 जनवरी 2020
-किशन सरोज
सादर श्रद्धा सुमन

Thursday, January 9, 2020

मौत ने कहा .....कुंवर नारायण

फ़ोन की घण्टी बजी
मैंने कहा — मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया।

दरवाज़े की घण्टी बजी
मैंने कहा — मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया।

अलार्म की घण्टी बजी
मैंने कहा — मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया।

एक दिन
मौत की घण्टी बजी...
हड़बड़ा कर उठ बैठा —
मैं हूँ... मैं हूँ... मैं हूँ..

मौत ने कहा —
करवट बदल कर सो जाओ।
-स्मृतिशेष कुंवर नारायण