Thursday, February 28, 2019

बुलाता है मुझे वो पास अपने......महेशचंद्र गुप्त 'ख़लिश'


कहे दुनिया सनम से दूर रहना
मुझे तनहा नहीं मंजूर रहना


दिया है प्यार हमने प्यार ले कर
किसीका किसलिए मश्कूर रहना


लिखा क़िस्मत में है ये आशिक़ों की
ग़मों से ज़िंदगी भरपूर रहना 


शिकायत है मुझे दिलबर से ये ही
न आँखों में वफ़ा का नूर रहना


बुलाता है मुझे वो पास अपने
मगर कहता है मुझसे दूर रहना


ख़लिश ये ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है
पहर आठों नशे में चूर रहना.

बहर --- १२२२  १२२२  १२२ 

-महेश चन्द्र गुप्ता

Wednesday, February 27, 2019

रंग मुस्कुराहटों का.... श्वेता सिन्हा

उजालों की खातिर,अंधेरों से गुज़रना होगा
उदास हैं पन्ने,रंग मुस्कुराहटोंं का भरना होगा

यादों से जा टकराते हैंं इस उम्मीद से
पत्थरों के सीने में मीठा कोई झरना होगा

उफ़नते समुंदर के शोर से कब तक डरोगे
चाहिये सच्चे मोती तो लहरों में उतरना होगा

हर सिम्त आईना शहर में लगाया जाये
अक्स-दर-अक्स सच को उभरना होगा

मुखौटों के चलन में एक से हुये चेहरे
बग़ावत में कोई हड़ताल न धरना होगा

सियासी बिसात पर काले-सादे मोहरे हम
वक़्त की चाल पर बे-मौत भी मरना होगा



Tuesday, February 26, 2019

कौन पथ भूले, कि आए......पण्डित माखन लाल चतुर्वेदी

कौन पथ भूले, कि आये !
स्नेह मुझसे दूर रहकर
कौनसे वरदान पाये?

यह किरन-वेला मिलन-वेला
बनी अभिशाप होकर,
और जागा जग, सुला
अस्तित्व अपना पाप होकर;
छलक ही उट्ठे, विशाल !
न उर-सदन में तुम समाये।

उठ उसाँसों ने, सजन,
अभिमानिनी बन गीत गाये,
फूल कब के सूख बीते,
शूल थे मैंने बिछाये।

शूल के अमरत्व पर
बलि फूल कर मैंने चढ़ाये,
तब न आये थे मनाये-
कौन पथ भूले, कि आये?
- पण्डित माखन लाल चतुर्वेदी

Monday, February 25, 2019

पत्थर भी रो जाते हैं.........श्वेता सिन्हा

एहसास जब दिल में दर्द बो जाते हैं
तड़पता देख के पत्थर भी रो जाते हैं

ऐसा अक्सर होता है तन्हाई के मौसम में
पलकों से गिर के ख़्वाब कहीं खो जाते हैं

तुम होते हो तो हर मंज़र हसीं होता है
जाते ही तुम्हारे रंग सारे फीके हो जाते हैं

उनींदी आँखों के ख़्वाब जागते हैंं रातभर
फ़लक पे चाँद-तारे जब थक के सो जाते हैं

जाने किसका ख़्याल आबाद है ज़हन में
क्यूँ हम ख़ुद से भी अजनबी हो जाते हैं

बीत चुका है मौसम इश्क़ का फिर भी
याद के बादल क़ब्र पे आकर रो जाते हैं

वक़्त का आईना मेरे सवाल पर चुप है
दिल क्यों नहीं चेहरों-से बेपर्दा हो जाते हैं

-श्वेता सिन्हा

Sunday, February 24, 2019

धर्म ......श्वेता सिन्हा

सोचती हूँ
कौन सा धर्म 
विचारों की संकीर्णता
की बातें सिखलाता है?

सभ्यता के
विकास के साथ
मानसिकता का स्तर
शर्मसार करता जाता है।

धर्मनिरपेक्षता 
शाब्दिक स्वप्न मात्र
नियम -कायदों के पृष्ठों में
दबकर कराहता है।

धर्म पताका
धर्म के नाम का
धर्म का ठेकेदार
तिरंगें से ऊँचा फहराता है।

शांति सौहार्द्र की 
डींगें हाँकने वाला
साम्प्रदायिकता की गाड़ी में
अमन-चैन ढुलवाता है।

अभिमान में स्व के
रौंदकर इंसानियत
निर्मम अट्टहास कर
धर्मवीर तमगा पा इठलाता है।

जीवन-चक्र
समझ न नादां
कर्मों का खाता,बाद तेरे
जग में रह-रह के पलटा जाता है।

मज़हबों के ढेर से
इंसानों को अलग कर देखो
धर्म की हर एक किताब में 
इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाता है।

-श्वेता सिन्हा

Saturday, February 23, 2019

पाँव ..........शशांक पांडेय


जब भी चौखट पर आती है 
किसी स्त्री की परछाई
लगता है माँ फिर से दस्तक दे रही है जीवन में
उसके देह की महक
चूड़ियों की खनखनाहट
किसी के होने भर से
उसका मुस्कुराहट भरा वो चेहरा
अचानक घुमने लगता है 
मेरे चारों ओर
लेकिन वह नहीं आती 
वह सब परछाइयाँ 
धीरे-धीरे किसी अपरिचित की होने लगती है
माँ गयी तो 
जीवन के रंगमंच पर भी कभी नहीं आयी
मुझको और उदास करने के लिये
आती है तो केवल सपने में
यदि फिर किसी दिन आयेगी सपने में ही
तो उसे बिठा लूँगा बिल्कुल पास
और पूछूँगा-'कहाँ गयी थी इतने दिनों तक?'
मैं जानता हूँ
वह कुछ नहीं बोलेगी
बस अपने पास बुलाकर बालों में हाथ फेर देगी
उसके बाद 
मैं कुछ कह नहीं पाऊँगा।।

-शशांक पांडेय

Friday, February 22, 2019

अंधी दौड़....राघवेन्द्र पाण्डेय ‘राघव’

घर गिराओ आज माटी का, लगी है होड़
हो चले हम सन्निकट पाषाण के
अब न कीचड़ में कमल दल उग रहा
मोर भी नाचे नहीं दिन बीतते आषाढ़ के
हे विधाता! क्या प्रकृति भी परवशा होगी? 

हो गए इतिहास ‘अर्पण’ और ‘न्योछावर’ शब्द
हम नित नयी बुनते कला अनुबंध की 
लूटते हैं सुख लुभावन और पछताते जनम भर 
हो रही बिकवालियाँ संबंध की
इस जहां की ज़िंदगी अब अनरसा होगी? 

पशु-पक्षी पी रहे किस घाट का पानी, न जाने
तज रहे क्यों स्वत्व का उपधान 
आदमी अब है लजाता आदमी के बीच
खो रही देवी यहाँ पहचान 
छोड़ ममता, दया नारी कर्कशा होगी? 

गगनभेदी, तड़ितरोधी, प्रकृति के पर सब विरोधी 
गा रहे हम प्रगति अपनी, चाँद-मंगल पर चढ़े
सुख सुई की नोंक भर, मुस्कान टेढ़ी नज़र की
ख़ाक मानवता हुई, अब सोच लो कितना बढ़े 
दौड़ अंधी, इस दिशा की क्या दशा होगी?

-राघवेन्द्र पाण्डेय ‘राघव’

Thursday, February 21, 2019

अब चलना होगा........भगवतीचरण वर्मा

बस इतना--अब चलना होगा
फिर अपनी-अपनी राह हमें।

कल ले आई थी खींच, आज
ले चली खींचकर चाह हमें
तुम जान न पाईं मुझे, और
तुम मेरे लिए पहेली थीं;
पर इसका दुख क्या? मिल न सकी
प्रिय जब अपनी ही थाह हमें।

तुम मुझे भिखारी समझें थीं,
मैंने समझा अधिकार मुझे
तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,
था बना वही तो प्यार मुझे।

तुम लोक-लाज की चेरी थीं,
मैं अपना ही दीवाना था
ले चलीं पराजय तुम हँसकर,
दे चलीं विजय का भार मुझे।

सुख से वंचित कर गया सुमुखि,
वह अपना ही अभिमान तुम्हें
अभिशाप बन गया अपना ही
अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें
तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,
तुम समझ न पाईं जीवन को
जन-रव के स्वर में भूल गया
अपने प्राणों का गान तुम्हें।

था प्रेम किया हमने-तुमने
इतना कर लेना याद प्रिये,
बस फिर कर देना वहीं क्षमा
यह पल-भर का उन्माद प्रिये।
फिर मिलना होगा या कि नहीं
हँसकर तो दे लो आज विदा
तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,
यह मेरा आशीर्वाद प्रिये।
- भगवतीचरण वर्मा

Wednesday, February 20, 2019

तुम्हें शत-शत नमन कोटिश....श्वेता सिन्हा

भरी माँग सिंदूर की पोंछ
वो बैठी सब श्रृंगार को नोंच
उजड़ी बगिया सहमी चिड़िया
क्या समझाऊँ असमर्थ हूँ मैं

सब आक्रोशित है रोये सारे
गूँजित दिगंत जय हिंद नारे
वह दृश्य रह-रह झकझोर रहा
उद्विग्न किंतु असमर्थ हूँ मैं

क़लम मेरी मुझे व्यर्थ लगे
व्याकुलता का न अर्थ लगे
हे वीरों ! मुझे क्षमा करना
कुछ करने में असमर्थ हूँ मैं

मात्र नमन ,अश्रुपूरित नमन
तुम्हें शत-शत नमन कोटिश
हे वीरों ! मुझे क्षमा करना
यही कहने में समर्थ हूँ मैं


Tuesday, February 19, 2019

तुम हकीकत नहीं हो हसरत हो .......जॉन एलिया

तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो
जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो

तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू
और इतने ही बेमुरव्वत हो

तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं
यानी ऐसा है जैसे फुरक़त हो 

है मेरी आरज़ू के मेरे सिवा
तुम्हें सब शायरों से वहशत हो

किस तरह छोड़ दूँ तुम्हें जानाँ
तुम मेरी ज़िन्दगी की आदत हो 

किसलिए देखते हो आईना 
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो

दास्ताँ ख़त्म होने वाली है
तुम मेरी आख़िरी मुहब्बत हो

जॉन एलिया

Monday, February 18, 2019

दो कविताएँ .....स्मृति आदित्य


1.
हां मैं प्रेम में हूं, 
प्रेम मुझमें है
तुम ना कहो ना सही 
मैंने तो हर मोड़ पर 
हर बार यह बात कही.... 
पर हर बार 
तुम्हारी 'वह' बात 
हमेशा बची रही...
जो तुमने कभी नहीं कही...
2.
इससे पहले कि तुम 
लाकर रखो हरसिंगार मेरे सिरहाने 
इससे पहले कि 
गुलमोहर की ललछौंही पत्तियां 
इकट्ठा करो तुम मेरे लिए 
और इससे पहले कि तुम लेकर आओ 
ढेर सारे ताजे गुलाब 
मेरे मंदिर के लिए... 
मैं देती हूं अपने शब्दों के सच्चे गुलाबी फूल 
कि तुम से ही महका है मन-उपवन 

मेरी धरा, मेरा गगन...

-स्मृति पाण्डेय (फाल्गुनि)

Sunday, February 17, 2019

दहशत का रास्ता...मंजू मिश्रा

सरहदों पर यह लड़ाई
न जाने कब ख़त्म होगी
क्यों नहीं जान पाते लोग
कि इन हमलों में सरकारें नहीं
परिवार तबाह होते हैं

कितनों का प्रेम
बिछड़ गया आज ऐन
प्रेम के त्यौहार के दिन
जिस प्रिय को कहना था
प्यार से हैप्पी वैलेंटाइन
उसी को सदा के लिए खो दिया
एक ख़ूंरेज़ पागलपन और
वहशत के हाथों

अरे भाई
कुछ मसले हल करने हैं
तो आओ न...
इंसानों की तरह
बैठें और बात करें
सुलझाएं साथ मिल कर
लेकिन नहीं, तुम्हे तो बस
हैवानियत ही दिखानी है
तुम्हे इंसानियत से क्या वास्ता
तुमने तो बस...
चुन लिया है दहशत का रास्ता
- मंजू मिश्रा

Saturday, February 16, 2019

तुमको परवाह नही....प्रीती श्रीवास्तव

लिखकर खत हम जलाने लगे।
पास रहकर भी दूर जाने लगे।।

तुमको परवाह नही मेरे जानिब।
आंशियां दूर अपना बनाने लगे।।

खुश रहो तुम्हें खुशियां मुबारक।
जख्म दिल के हमें सताने लगे।।

चोट है खायी जो दिल पर हमनें।
देख पत्थर लोग पिघल जाने लगे।।

रोना कैसा तुम्हारे लिये दिलबर।
तुम मयखाना अलग बनाने लगे।।

लौटना नामुमकिन है मेरे लिये।
जश्न की रात में कब्र सजाने लगे।।

कहेगा जमाना तेरी खातिर सनम।
हम जहां से रूठकर यूं जाने लगे।।

कद्र करना उन कद्रदानों की सनम।
जो तेरी महफिल अब सजाने लगे।।

-प्रीती श्रीवास्तव

Friday, February 15, 2019

जंगल में कोयल कूक रही है.....अनुज लुगुन

जंगल में कोयल कूक रही है
जाम की डालियों पर
पपीहे छुआ-छुई खेल रहे हैं
गिलहरियों की धमा-चौकड़ी
पंडुओं की नींद तोड़ रही है
यह पलाश के फूलने का समय है।

यह पलाश के फूलने का समय है
उनके जूड़े में खोंसी हुई है
सखुए की टहनी
कानों में सरहुल की बाली
अखाड़े में इतराती हुईं वे
किसी भी जवान मर्द से कह सकती हैं
अपने लिए एक दोना
हँड़िया का रस बचाए रखने के लिए
यह पलाश के फूलने का समय है।

यह पलाश के फूलने का समय है
उछलती हुईं वे
गोबर लीप रही हैं
उनका मन सिर पर ढोए
चुएँ के पानी की तरह छलक रहा है
सरना में पूजा के लिए
साखू के पेड़ों पर वे बाँस के तिनके नचा रही हैं
यह पलाश के फूलने क समय है।
-अनुज लुगुन 

Thursday, February 14, 2019

फिर आया बसंत.......श्वेता सिन्हा

केसर बेसर डाल-डाल 
धरणी पीयरी चुनरी सँभाल
उतर आम की फुनगी से
सुमनों का मन बहकाये फाग
तितली भँवरें गाये नेह के छंद
सखि रे! फिर आया बसंत

सरसों बाली देवे ताली
मदमाये महुआ रस प्याली
सिरिस ने रेशमी वेणी बाँधी
लहलही फुनगी कोमल जाली
बहती अमराई बौराई सी गंध
सखि रे! फिर आया बसंत

नवपुष्प रसीले ओंठ खुले
उफन-उफन मधु राग झरे
मह-मह चम्पा ले अंगड़ाई 
कानन केसरी चुनर कुसुमाई
गुंजित चीं-चीं सरगम दिगंत
सखि रे! फिर आया बसंत

प्रकृति का संदेश यह पावन
जीवन ऋतु अति मनभावन
तन जर्जर न मन हो शिथिल 
नव पल्लव मुस्कान सजाओ
श्वास सुवास आस अनंत
सखि रे! फिर आया बसंत।
-श्वेता सिन्हा

Wednesday, February 13, 2019

प्रेम....भगवतीचरण वर्मा

बस इतना--अब चलना होगा
फिर अपनी-अपनी राह हमें।

कल ले आई थी खींच, आज
ले चली खींचकर चाह हमें
तुम जान न पाईं मुझे, और
तुम मेरे लिए पहेली थीं;

पर इसका दुख क्या? मिल न सकी
प्रिय जब अपनी ही थाह हमें।

तुम मुझे भिखारी समझें थीं,
मैंने समझा अधिकार मुझे
तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,
था बना वही तो प्यार मुझे।

तुम लोक-लाज की चेरी थीं,
मैं अपना ही दीवाना था
ले चलीं पराजय तुम हँसकर,
दे चलीं विजय का भार मुझे।

सुख से वंचित कर गया सुमुखि,
वह अपना ही अभिमान तुम्हें

अभिशाप बन गया अपना ही
अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें
तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,
तुम समझ न पाईं जीवन को

जन-रव के स्वर में भूल गया
अपने प्राणों का गान तुम्हें।

था प्रेम किया हमने-तुमने
इतना कर लेना याद प्रिये,
बस फिर कर देना वहीं क्षमा
यह पल-भर का उन्माद प्रिये।

फिर मिलना होगा या कि नहीं
हँसकर तो दे लो आज विदा
तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,
यह मेरा आशीर्वाद प्रिये।
- भगवतीचरण वर्मा

Tuesday, February 12, 2019

आईने से भी रहते है.....अर्पित शर्मा "अर्पित"

सामने कारनामे जो आने लगे,
आईना लोग मुझको दिखाने लगे ।

जो समय पर ये बच्चे ना आने लगे, 
अपने माँ बाप का दिल दुखाने लगे ।

फ़ैसला लौट जाने का तुम छोड़ दो, 
फूल आँगन के आँसू बहाने लगे ।

फिर शबे हिज़्र आँसूं मेरी आँख के, 
मुझको मेरी कहानी सुनाने लगे ।

आईने से भी रहते है वो दूर अब,
जाने क्यू खुदको इतना छुपाने लगे |

कोई शिकवा नही बेरुखी तो नही,
हम अभी आये है आप जाने लगे ।

तेरी चाहत लिए घर से अर्पित चला, 
सारे मंज़र नज़र को सुहाने लगे ।
- अर्पित शर्मा "अर्पित"

परिचय
अर्पित शर्मा जी अर्पित उपनाम से रचनाये लिखते है 
आपके पिता का नाम कृष्णकांत शर्मा है | आपका जन्म मध्यप्रदेश के 
उज्जैन शहर में 28 अप्रैल, 1992 को हुआ | फिलहाल आप शाजापुर में रहते है | 
आपसे इस मेल sharmaarpit28@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है |

Monday, February 11, 2019

दिल है पुष्प गुलाब.....डॉ. यासमीन ख़ान

जैसे रखती यास्मीं , किंचित ना अभिमान ।
वैसा ही विनयी मेरे , हृदयसुमन को जान।।

शब्दकोष में प्रीति का, है जितना भण्डार।
प्रेम सहित दिलबर मेरे ,कर लेना स्वीकार।।

यह काया इक क्यार है ,दिल है पुष्प गुलाब।
और यास्मीन आपका,हुस्न सुनहला ख़्वाब।।

सात जनम क़ायम रहे , तेरा रूप शबाब।
इसी भाव प्रेषित करूं ,सीधा सरल गुलाब।
-डॉ. यासमीन ख़ान

Sunday, February 10, 2019

केसरी फूल पलाश...श्वेता सिन्हा



पिघल रही सर्दियाँ
झरते वृक्षों के पात
निर्जन वन के दामन में
खिलने लगे पलाश

सुंदरता बिखरी चहुँओर
चटख रंग उतरे घर आँगन
उमंग की चली फागुनी बयार
लदे वृक्ष भरे फूल पलाश


सिंदूरी रंग साँझ के रंग
मल गये नरम कपोल
तन ओढ़े रेशमी चुनर
केसरी फूल पलाश

आमों की डाली पे कूके
कोयलिया विरहा राग
अकुलाहट भरे पीर उठे
मन में बिखरने लगे पलाश

गंधहीन पुष्पों की बहारें
मृत अनुभूति के वन में
दावानल सा भ्रमित होता
मन बन गया फूल पलाश

   
-श्वेता सिन्हा
कवि परिचय

Saturday, February 9, 2019

इश्क का फलसफा ढूँढ़ने चले है..... श्वेता सिन्हा

लिखकर तहरीरें  खत में तेरा पता ढूँढ़ने चले है
कभी तो  तुमसे जा मिले वो रास्ता ढ़ूँढ़ने चले है

सफर का सिलसिला बिन मंजिलों का हो गया
तुम नही हो ज़िदगी जिसमें  वास्ता ढूँढ़ने चले है

चीखती है खामोशियाँ तन्हाई में तेरी सदाएँ है
जाने कब खत्म हो दर्द की  इंतिहा ढूँढ़ने चले है

बेरूखी की साज़ पर प्रेम धुन बज नही सकती
चोट खाकर इश्क का फलसफा ढूँढ़ने चले है
-श्वेता सिन्हा