Friday, March 31, 2017

वो सफ़र बाकी है.....मनी यादव


तेरी यादों का अभी दिल पर असर बाकी है
जो करेंगे साथ में तय वो सफ़र बाकी है

यूँ तो अश्क़ों से मुकम्मल हो चुका है दरिया
फिर भी दरिया में मुहब्बत की लहर बाकी है

कुछ तो डर खुद से या मौला से तू आदम
तेरा तुझ पर ही अभी बदतर क़हर बाकी है

तीरगी दिखती रही तुझमे 'मनी' दुनिया को
कुछ बता तुझमे उजाला किस कदर बाकी है

Thursday, March 30, 2017

टूटी है वो टुकड़ों-टुकड़ों में....आकांक्षा यादव

Akanksha Yadav : आकांक्षा यादव
न जाने कितनी बार
टूटी है वो टुकड़ों-टुकड़ों में
हर किसी को देखती
याचना की निगाहों से
एक बार तो हाँ कहकर देखो
कोई कोर कसर नहीं रखूँगी
तुम्हारी जिन्दगी संवारने में
पर सब बेकार
कोई उसके रंग को निहारता
तो कोई लम्बाई मापता
कोई उसे चलकर दिखाने को कहता
कोई साड़ी और सूट पहनकर बुलाता
पर कोई नहीं देखता
उसकी आँखों में
जहाँ प्यार है, अनुराग है
लज्जा है, विश्वास है।
-आकांक्षा यादव

ई-मेल:  akankshay1982@gmail.com  
ब्लॉगः http://shabdshikhar.blogspot.in/

Wednesday, March 29, 2017

इनसान बन जीने दो ...मंजू मिश्रा

मुक्त करो पंख मेरे पिजरे को  खोल दो
मेरे सपनो से जरा पहरा हटाओ तो ...
आसमाँ को  छू के मैं तो तारे तोड़ लाऊंगी
एक बार प्यार से हौसला बढाओ तो ...

 बेटों से नहीं है कम बेटी किसी बात में
सुख हो या दुःख सदा रहती हैं साथ में
वंश सिर्फ बेटे ही चलाएंगे न सोचना
भला इंदिरा थी कहाँ कम किसी बात में

बेटियों को बेटियां ही मानो नहीं देवियाँ
पत्थर की मूरत बनाओ नहीं बेटियां
इनसान हैं इनसान बन जीने दो ...
हंसने दो रोने दो गाने मुस्कुराने दो

Tuesday, March 28, 2017

टूटे हैं कुछ हसीं दिल जहां में......अनिरुद्ध सिन्हा


इतने आँसू  मिले  ज़िन्दगी से
और क्या चाहिए अब किसी से

खुद नशेमान से बाहर हुए हम
अपने  लोगों  की  बेचारगी से

रात गुज़री  महज़ करवटों  में
ज़ख्म मिलता  रहा रौशनी से


टूटे हैं कुछ हसीं दिल जहां में
दुश्मनी  से  नहीं  दोस्ती  से


जिस सलीके से सबसे है मिलता
लूट  लेगा  कभी  सादगी से
-अनिरुद्ध सिन्हा 

Monday, March 27, 2017

विवशता....सुशांत सुप्रिय

जब सुबह झुनिया वहाँ पहुँची तो बंगला रात की उमस में लिपटा हुआ गर्मी में उबल रहा था । सुबह सात बजे की धूप में तल्ख़ी थी । वह तल्ख़ी उसे मेम साहब की तल्ख़ ज़बान की याद दिला रही थी ।
बाहरी गेट खोल कर वह जैसे ही अहाते में आई , भीतर से कुत्ते के भौंकने की भारी-भरकम आवाज़ ने उसके कानों में जैसे पिघला सीसा डाल दिया ।  उँगलियों से कानों को मलते हुए वह बंगले के दरवाज़े पर पहुँची । घंटी बजाने से पहले ही दरवाज़ा खुल चुका था ।
” तुम रोज़ देर से आ रही हो । ऐसे नहीं चलेगा । ” सुबह बिना मेक-अप के मेम-साहब का चेहरा उनकी चेतावनी जैसा ही भयावह लगता था ।
” बच्ची बीमार थी … । ” उसने अपनी विवश आवाज़ को छिपकली की कटी-पूँछ-सी तड़पते हुए देखा ।
” रोज़ एक नया बहाना ! ” मेम साहब ने उसकी विवश आवाज़ को ठोकर मार कर परे फेंक दिया । वह वहीं किनारे पड़ी काँपती रही ।
” सारे बर्तन गंदे पड़े हैं । कमरों की सफ़ाई होनी है । कपड़े धुलने हैं । हम लोग क्या तुम्हारे इंतज़ार में बैठे रहें कि कब महारानी जी प्रकट होंगी और कब काम शुरू होगा ! हुँह् ! ” मेम साहब की नुकीली आवाज़ ने उसके कान छलनी कर दिए ।
वह चुपचाप रसोई की ओर बढ़ी । पर वह मेम साहब की कँटीली निगाहों का अपनी पीठ में चुभना महसूस कर रही थी । जैसे वे मारक निगाहें उसकी खाल चीरकर उसके भीतर जा चुभेंगी ।
जल्दी ही वह जूठे बर्तनों के अंबार से जूझने लगी ।
” सुन झुनिया ! ” मेम साहब की आवाज़ ड्राइंग रूम को पार करके रसोई तक पहुँची और वहाँ उसने एक कोने में दम तोड़ दिया । जूठे बर्तनों के अंबार के बीच उसने उस आवाज़ की ओर कोई ध्यान नहीं दिया ।
” अरे , बहरी हो गई है क्या ? ”
” जी , मेम साहब । ”
” ध्यान से बर्तन धोया कर । क्राकरी बहुत महँगी है । कुछ भी टूटना नहीं चाहिए । कुछ भी टूटा तो तेरी पगार से पैसे काट लूँगी , समझी ? ” उसे मेम साहब की आवाज़ किसी कटहे कुत्ते के भौंकने जैसी लगी ।
” जी , मेम साहब । ”
ये बड़े लोग थे । साहब लोग थे । कुछ भी कह सकते थे । उसने कुछ कहा तो उसे नौकरी से निकाल सकते थे । उसकी पगार काट सकते थे — उसने सोचा । क्या बड़े लोगों को दया नहीं आती ? क्या बड़े लोगों के पास दिल नाम की चीज़ नहीं होती ? क्या बड़े लोगों से कभी ग़लती नहीं होती ?
बर्तन साफ़ कर लेने के बाद उसने फूल झाड़ू उठा लिया ताकि कमरों में झाड़ू लगा सके । बच्चे के कमरे में उसने ज़मीन पर पड़ा खिलौना उठा कर मेज़ पर रख दिया । तभी एक नुकीली , नकचढ़ी आवाज़ उसकी छाती में आ धँसी — ” तूने मेरा खिलौना क्यों छुआ , डर्टी डम्बो ? मोरोन ! ” यह मेम साहब का बिगड़ा हुआ आठ साल का बेटा जोजो था । वह हमेशा या तो मोबाइल पर गेम्स खेलता रहता या टी.वी. पर कार्टून देखता रहता । मेम साहब या साहब के पास उसके लिए समय नहीं था , इसलिए वे उसे सारी सुविधाएँ दे देते थे । वह ए.सी. बस में बैठ कर किसी महँगे ‘ इंटरनेशनल ‘ स्कूल में पढ़ने जाता था । कभी-कभी देर हो जाने पर मेम साहब का ड्राइवर उसे मर्सिडीज़ गाड़ी में स्कूल छोड़ने जाता था ।
झुनिया का बेटा मुन्ना जोजो के स्कूल में नहीं पढ़ता था । वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था । हालाँकि मुन्ना अपना भारी बस्ता उठाए पैदल ही स्कूल जाता था , उसका चेहरा किसी खिले हुए फूल-सा था । जब वह हँसता तो झुनिया की दुनिया आबाद हो जाती — पेड़ों की डालियों पर चिड़ियाँ चहचहाने लगतीं , आकाश में इंद्रधनुष उग आता , फूलों की क्यारियों में तितलियाँ उड़ने लगती , कंक्रीट-जंगल में हरियाली छा जाती । मुन्ना एक समझदार लड़का था । वह हमेशा माँ की मदद करने के लिए तैयार रहता …
हाथ में झाड़ू लिए हुए झुनिया ने दरवाज़े पर दस्तक दी और साहब के कमरे में प्रवेश किया । साहब रात में देर से घर आते थे और सुबह देर तक सोते रहते थे । महीने में ज़्यादातर वे काम के सिलसिले में शहर से बाहर ही रहते थे । झुनिया की छठी इन्द्रिय जान गई थी कि साहब ठीक आदमी नहीं थे । एक बार मेम साहब घर से बाहर गई थीं तो साहब ने आँख मार कर उससे कहा था — ” ज़रा देह दबा दे । पैसे दूँगा । ” झुनिया को वह किसी आदमी की नहीं , किसी नरभक्षी की आवाज़ लगी थी । साहब के शब्दों से शराब की बू आ रही थी । उनकी आँखों में वासना के डोरे उभर आए थे । उसने मना कर दिया था और कमरे से बाहर चली गई थी । पर उसकी हिम्मत नहीं हुई थी कि वह मेम साहब को यह बता पाती । कहीं मेम साहब उसी को नौकरी से निकाल देतीं तो ? यह बात उसने अपने रिक्शा-चालक पति को भी नहीं बताई थी । वह उसे बहुत प्यार करता था । यह सब सुन कर उसका दिल दुखता … लेकिन इस महँगाई के जमाने में अकेले उसकी कमाई से घर नहीं चल सकता था । इसलिए वह साहब लोगों के यहाँ झाड़ू-पोंछा करने के लिए विवश थी ।
झाड़ू मारना ख़त्म करके अब वह पोंछा मार रही थी ।
” ए , इतना गीला पोंछा क्यों मार रही है ? कोई गिर गया तो ? ” मेम साहब की आवाज़ किसी आदमखोर जानवर-सी घात लगाए बैठी होती । उससे ज़रा-सी ग़लती होते ही वह उस पर टूट पड़ती और उसे नोच डालती ।
अब गंदे कपड़ों का एक बहुत बड़ा गट्ठर उसके सामने था ।
” कपड़े बहुत गंदे धुल रहे हैं आजकल । ” यह साहब थे । दबे पाँव उठ कर दृश्य के अंदर आ गए थे । उसने सोचा , अगर उस दिन उसने साहब की देह दबा दी होती तो भी क्या साहब आज यही कहते ? यह सोचते ही उसके मुँह में एक कसैला स्वाद भर गया ।
” ये लोग होते ही कामचोर हैं। ” मेम-साहब का उससे जैसे पिछले जन्म का बैर था । ” बर्तन भी गंदे धोती है ! ठीक से काम कर वर्ना पैसे काट लूँगी ! ” यह आवाज़ नहीं थी , धमकी का जंगली पंजा था जो उसका मुँह नोच लेना चाहता था ।
झुनिया के भीतर विद्रोह की एक लहर-सी उठी । वह चीख़ना-चिल्लाना चाहती थी । वह इन साहब लोगों को बताना चाहती थी कि वह पूरी ईमानदारी से , ठीक से काम करती है। कि वह कामचोर नहीं है। वह झूठे इल्ज़ाम लगाने के लिए मेम साहब का मुँह नोच लेना चाहती थी । लेकिन वह चुप रह गई …
एक चूहा मेम साहब की निगाहों से बच कर कमरे के एक कोने से दूसरे कोने की ओर तेज़ी से भागा । लेकिन झुनिया ने उसे देख लिया । अगर रात में सोते समय यह चूहा मेम साहब की उँगली में काट ले तो कितना मज़ा आएगा — उसने सोचा । मेम साहब चूहे को नहीं डाँट सकती , उसकी पगार नहीं काट सकती , उसे नौकरी से नहीं निकाल सकती ! इस ख़्याल ने उसे खुश कर दिया । ज़िंदगी की छोटी-छोटी चीज़ों में अपनी ख़ुशी खुद ही ढूँढ़नी होती है — उसने सोचा ।
” सुन , मैं ज़रा बाज़ार जा रही हूँ । काम ठीक से ख़त्म करके जाना , समझी ? ” मेम साहब ने अपनी ग़ुस्सैल आवाज़ का हथगोला उसकी ओर फेंकते हुए कहा । ” सुनो जी , देख लेना ज़रा । ” यह सलाह साहब के लिए थी ।
मेम साहब के जाते ही साहब अख़बार पढ़ने के बहाने मुस्तैदी से ड्राइंग-रूम  में जम गए । वह ड्राइंग-रूम के दूसरे कोने में पोंछा मार रही थी । उसने पाया कि साहब उसकी मुड़ी देह के उतार-चढ़ावों को गंदी निगाहों से घूर रहे थे। सकुचा कर वह अपना काम जल्दी-जल्दी ख़त्म करने लगी । अभी इस बड़े से मकान के कई कमरों में पोंछा मारना बचा था ।
तभी दरवाज़े की घंटी बजी । साहब लपक कर दरवाज़े पर पहुँचे । सामने खाना बनाने वाली मेड मीना खड़ी थी । साहब उसके अंगों को भी ताड़ने लगे । साहब के बगल से निकल कर मीना जल्दी से रसोई में घुस गई । साहब भी चलते हुए रसोई के दरवाज़े तक पहुँच गए ।
” सुनो , तुम बहुत अच्छा खाना बनाती हो ! जल्दी से कुछ बढ़िया-सा बना दो । ” अब साहब की वासना भरी आवाज़ रसोई के बर्तनों से टकरा कर गूँज रही थी । उनके मुँह से जैसे लार चू रही थी । उनकी लाल आँखें  जैसे मीना की देह से लिपट गई थीं । वह खाना बनाने के लिए अपनी चुन्नी उतार कर कोने में रख चुकी थी । साहब की ओछी हरकतों की वजह से बिना चुन्नी के वह बेहद असहज महसूस कर रही थी । साहब कुछ देर मीना की देह को घूरते रहे । फिर लौट कर अपनी जगह पर बैठ गए और टी . वी . चला कर न जाने कौन-से चैनल पर अधनंगी हीरोइनों का नाच-गाना देखने लगे ।
तभी दरवाज़े की घंटी एक बार फिर बजी । साहब उतावले-से हो कर दरवाज़े तक गए । बाहर कपड़े इस्तरी करने वाले की चौदह साल की बेटी मुन्नी खड़ी थी । इस्तरी करने के लिए कपड़े माँगने आई थी । पर साहब फिर अपनी नीचता पर उतारू हो गए ।
” कितना घटिया आदमी है यह ! छोटी बच्ची को भी नहीं छोड़ता । ” उसने सोचा । ऐसे राक्षस को तो पुलिस में दे देना चाहिए । पर वह जानती थी कि साहब बड़े आदमी थे । वे माल-मत्ते वाले थे । रसूख़ वाले थे । ऐसे लोग कुछ ले-दे कर क़ानून के शिकंजे से भी बच जाते थे ।
ड्राइंग रूम में पोंछा मारना ख़त्म करके वह भीतर के बचे कमरों की ओर मुड़ी । उसने पाया कि साहब भी अपनी जगह से उठकर उसके पीछे-पीछे आ रहे हैं ।
” सुनो झुनिया । कभी ज़रूरत हो तो मुझसे रुपये-पैसे उधार ले लेना ! ” साहब ने कोशिश करके स्वर को कोमल बना कर कहा । लेकिन साहब की आँखों में वासना भरी हुई थी । वह समझ गई कि कसाई शिकार फँसाने के लिए लालच दे रहा है । चारा डाल रहा है । उसने साहब की बात का कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप कमरे में पोंछा मारती रही । साहब फिर बोले , ” तुमसे कहा तो था , कभी-कभी देह दबा दिया करो । खुश कर दूँगा । ” तभी बाहर दरवाज़े की घंटी बजने की आवाज़ आई । साहब ने एक मोटी-सी गाली दी । न चाहते हुए भी उन्हें दरवाज़ा खोलने के लिए जाना पड़ा । झुनिया ने चैन की साँस ली । एक ओर मेम साहब थी जो कटहे कुत्ते-सी काटने को दौड़ती थी । दूसरी ओर यह कामुक साहब हद पार करने को तैयार खड़े थे । क्या मुसीबत थी ।
काम ख़त्म करके वह चलने लगी तो उसने देखा कि ड्राइंग रूम के दरवाज़े के पास खड़े साहब फिर से उसकी देह को गंदी निगाहों से घूर रहे हैं । सकुचा कर उसने अपनी साड़ी का पल्लू और कस कर अपनी छाती पर लपेट लिया और बाहर अहाते में निकल आई । वह समझ गई कि आज साहब ने सुबह-सुबह पी रखी है क्योंकि साहब के बगल से निकलते हुए उसके नथुनों में शराब का बदबूदार भभका घुसा । वह तेज क़दमों से बाहर की ओर भागी । पर उसे लगा जैसे साहब की वासना भरी आँखें उसकी पीठ से चिपक गई हैं । उसे घिन महसूस हुई ।
” सुनो , शाम को जल्दी आ जाना , और मुझ से अपनी पगार ले जाना । ”
साहब की वासना भरी आवाज़ जैसे उसकी देह से लिपट जाना चाहती थी । उसे लगा जैसे यह घर नहीं , किसी अँधेरे कुएँ का तल था । जैसे उसकी देह पर सैकड़ों तिलचट्टे रेंग रहे हों । उसका मन किया कि वह यहाँ से कहीं बहुत दूर भाग जाए और फिर कभी यहाँ नहीं आए । लेकिन तभी उसे अपनी बीमार बच्ची याद आ गई , उसकी महँगी दवाइयाँ याद आ गईं , और रसोई में पड़े ख़ाली डिब्बे याद आ गए …

-सुशांत सुप्रिय



Sunday, March 26, 2017

ये भी मेरा है और वो भी मेरा ही है.....विशाल मौर्य विशु


यार अब  तो ऐसा  आलम  हो गया है
मेरा हर इक जख्म मरहम हो गया है

कुछ दिनों से वो नज़र आया नहीं के
तनहा तनहा सा ये मौसम हो गया है

हंसते हैं सब, खुश मगर कोई नहीं है
आदमी का आँसू हमदम हो गया है

ये भी मेरा है और वो भी मेरा ही है
हाय मुझको  कैसा  भ्रम  हो गया है
-विशाल मौर्य विशु

Saturday, March 25, 2017

बताइये मेरी क्लास क्या है ?...डॉ. भावना










हथिया नक्षत्र ने
दिखा दिया है अपना जादू

बारिश की बूँदें
बूंदें नहीं रहीं  धार हो गयी हैं
मूसलाधार
गड्ढे ,नदी -तालाब
सभी भर गये हैं
उमड़ पड़ी हैं जलधाराएं
जिसमें डूब गये हैं खेत -खलिहान

खुश हैं मिडिल -क्लास
कि उमस भरी गरमी से
मिल गयी है निजात

नाखुश हैं लोअर -क्लास
कि मूसलाधार बारिश  ने
ढाह दिये हैं इनके घर
छीन लिया है आशियाना

खुश हैं बच्चे
कि कादो से सन जायेंगी गलियां
और लाख मना करने पर भी
ढाब बने खेत से
मार लायेंगे बोआरी मछरी
वन -विभाग के ऑफिसर खुश हैं
कि आंधी -पानी में गिरे पेड़
बढ़ा देंगे उनकी आमदनी के स्रोत

इस बीच
जबकि हथिया
अब भी दिखा रहा है अपना जादू
मुझे तलब हो आयी है
पकौड़े संग चाय की
बताइये मेरी क्लास क्या है ?
-डॉ. भावना

Friday, March 24, 2017

मिसेज डोली......अभिषेक कुमार अम्बर













एक दिन मिसेज डोली,
अपने पति से बोली।
अजी! सुनिए 
आज आप बाज़ार
चले जाइये।
और मेरे लिए 
एक क्रीम ले आइये।
सुना है आजकल 
टाइम में थोड़े,
क्रीम लगाने से 
काले भी हो जाते है गौरे।
ये सुनकर पति ने मुँह खोला,
और हँसते हुए बोला।
अरे! पगली
तू भी कितनी है भोरी,
क्या क्रीम लगाने से
कभी भैंस भी हुई है गोरी।
-अभिषेक कुमार अम्बर
abhishekkumar474086@gmail.com

Thursday, March 23, 2017

चाँद बोला चाँदनी....गंगाधर शर्मा "हिन्दुस्तान"

चाँद बोला चाँदनी, चौथा पहर होने को है,
चल समेटें बिस्तरे वक़्ते सहर होने को है।

चल यहाँ से दूर चलते हैं सनम माहे-जबीं,
इस ज़मीं पर अब न अपना तो गुज़र होने को है।

गर सियासत ने न समझा दर्द जनता का तो फिर,
हाथ में हर एक के तेग़ो-तबर होने को है।
तेग़ो-तबर=तलवार और फरसा (कुल्हाड़ी)

जो निहायत ही मलाहत से फ़साहत जानता,
ना सराहत की उसे कोई कसर होने को है।
मलाहत=उत्कृष्टता; फ़साहत=वाक्पटुता; सराहत=स्पष्टता

है शिकायत, कीजिये लेकिन हिदायत है सुनो,
जो क़बाहत की किसी ने तो खतर होने को है।
क़बाहत=खोट;अश्लीलता; ख़तर=ख़तरा

पा निजामत की नियामत जो सखावत छोड़ दे,
वो मलामत ओ बगावत की नज़र होने को है।
निज़ामत=प्रबंधन; नियामत (नेमत)=वरदान;
सख़ावत=सज्जनता; मलामत=दोषारोपण; बग़ावत=विद्रोह

शान "हिन्दुस्तान" की कोई मिटा सकता नहीं,
सरफ़रोशों की न जब कोई कसर होने को है।

गंगाधर शर्मा "हिन्दुस्तान"
(कवि एवं साहित्यकार)
अजमेर (राजस्थान)
gdsharma1970@gmail.com

Wednesday, March 22, 2017

क्यूँ हो अभी भी दानव.... इतने तुम...अलका गुप्ता


.जंगल की कंदराओं से निकल तुम |
सभ्यताओं के सोपान इतने चढ़े तुम |

क्यूँ हो अभी भी दानव.... इतने तुम !
अत्याचार ये..इतने वीभत्स वार क्यूँ ?

मानवता आज भी इतनी निढाल क्यूँ ?
बलात्कार हिंसा यह.....लूटमार क्यूँ ?

साथ थी विकास में संस्कृति के वह |
उसका ही इतना.......तिरस्कार क्यूँ ?

प्रकट ना हुआ था प्रेम-तत्व.....तब |
स्व-स्वार्थ निहित था आदिमानव तब |

एक माँ ने ही सिखाया होगा प्रेम...तब |
उमड़ पड़ा होगा छातियों से दूध...जब |

संभाल कर चिपकाया होगा तुझे तब |
माँस पिंड ही था एक....तू इंसान तब |

ना जानती थी फर्क...नर-मादा का तब |
आज मानव जान कर भी अनजान क्यूँ ?

जंगल की कंदराओं से निकल...तुम |
सभ्यताओं के सोपान इतने चढ़े तुम||

क्यूँ हो अभी भी दानव.... इतने तुम !
अत्याचार ये..इतने वीभत्स वार क्यूँ ?
-अलका गुप्ता 

Tuesday, March 21, 2017

एकमुश्त ले लेना....निधि सक्सेना















जब भी विदा लेना
एकमुश्त ले लेना!!
किश्तों में विदा 
तुम्हारे ठहर जाने की.
बेवजह उम्मीद जगाती है!!
जब भी विदा लेना
मुड़ कर न देखना
कि गुरुर के मोती
बेबस आँखों से 
कहीं झर न जायें!!
जब भी विदा लेना
वक्त का लिबास पहन कर आना
कि तुम्हारे लौट आने की आस का
फिर बेसबब इंतज़ार न रहे!!
- निधि सक्सेना

Monday, March 20, 2017

क्योंकि प्रेम… मर चुका होता है .........मंजू मिश्रा




अपेक्षाएं
जब प्रेम से
बड़ी होने लगती हैं
तब
प्रेम धीरे धीरे
मरने लगता है
विश्वास
घटने लगता है
प्रेम में तोल-मोल
जांच-परख
घर कर लेती है
तो प्रेम
प्रेम नहीं रह जाता
विश्वास विहीन जीवन
कब असह्य हो जाता है
पता ही नहीं चलता
जब पता चलता है
तब तक
बहुत देर हो चुकी होती है
सिर्फ पछतावा ही
शेष रह जाता है
क्योंकि प्रेम
मर चुका होता है !!



Sunday, March 19, 2017

‘मज़बूरी’......मीनू परियानी


आज राधा को कुछ ज्यादा ही देर हो गयी थी मै दो बार बाहर जा कर देख आई थी पर उसका दूर दूर तक पता नही था. राधा मेरी कामवाली बाई थी जो कभी कभी अपनी बेटी को भी काम पर ले आती थी। रानी उसकी बेटी जिसकी उसने छोटी उम्र में ही शादी कर दी थी.

तभी दरवाजे की घंटी बजी मैंने दरवाजा खोला तो सामने रानी थी मै कुछ कहती उसके पहले ही वो तेज़ी से रसोई में चली गई..

आज तेरी माँ कहा गई रानी , मैंने उससे पूछा,

रानी की आँखे पनीली हो आई ,

वो ..वो..कल आएगी मैडम जी। वो बर्तन साफ करते हुए बोली.

पर तू तो ससुराल जाने वाली थी ना? मैंने फिर पूछा

हां पर अब नहीं जाउंगी वो बोली।
क्यों,वो मेरा बापू मुझे दूसरी जगह भेजना चाहता है।
क्या मतलब?  मैंने थोडा आश्चर्य से पूछाः
वो हमारी जाति में लड़के वालों से पैसे लेकर शादी करते हे, अब कोई दूसरा ज्यादा पैसे दे रहा हे तो बापू ने मेरी शादी तोड़ दी है पंचायत बिठाकर,
कहता है हमारी लडकी को दुख देते हैं।
तो क्या सच में तुझे दुःख देते हैे?
नहीं मैडम जी। अब ससुराल में तो ये सब चलता है न। बड़ी सहजता से वो बोली, 'पर मेरा  पति बहुत अच्छा है", कहते हुए वो थोडा लजा गई। उसकी बड़ी बड़ी आँखें मानों सपनों से भर गई , 'तब तू मना क्यों नही कर देती", मैने पूछा।
नही वो बापू कहता हे तू अगर वहां गई तो फिर हम से रिश्ता नही रहेगा . अब मै पीहर वालो से रिश्ता कैसे तोड़ दूँ । मजबूरी है, बापू को तो पैसों का लालच है।
'पर तेरी माँ? वो क्या कहती है?
वो भी मजबूर है मैडम जी ,मेरा बापू भी तो उसका दूसरा मर्द है ,उसने भी उसके ज्यादा पैसे दिए थे।
बेहद उदास स्वर  में रानी बोली, उनके घरेलू मामले में कुछ न कर पाने को, मै भी मजबूर थी, सबकी अपनी अपनी मजबूरी थी, आँखों के कोरों पर छलक आये आंसुओ को धीरे से अपने हाथों से पोंछ कर रानी चली गई। उसे दूसरे घर जाना था काम करने 
-मीनू परियानी


Saturday, March 18, 2017

उस रात.....डॉ भावना












उस रात
जब बेला ने खिलने से मना कर दिया था
तो ख़ुशबू उदास हो गयी थी

उस रात
जब चाँदनी ने फेर ली अपनी नज़रें
चाँद को देखकर
तो रो पड़ा था आसमान

उस रात
जब नदी ने बिल्कुल शांत हो
रोक ली थी अपनी धाराएँ
तो समन्दर दहाड़ने लगा था

उस रात
जब बेला ने मना कर दिया पेड़ के साथ
लिपटने से
तो ......
पहली बार 
पेड़ की शाखाएँ
झुकने लगी थीं
और बेला ने जाना था अपना अस्तित्व

पहली बार
बेला को नाज़ हुआ था अपनी सुगंध पर
चाँदनी कुछ और निखर गयी थी
नदी कुछ और चंचल हो गयी थी

पहली बार
प्रकृति हैरान थी
बहुत कोशिश की गयी
बदलाव को रोकने की
परंपरा -संस्कृति की दुहाई दी गयी
धर्म -ग्रंथों का हवाला दिया गया
पर ..... स्थितियां बदल चुकी थीं
-डॉ भावना

Friday, March 17, 2017

दुनिया बदली खुद भी बदलो.........सुखमंगल सिंह



हृदय द्वार बंद हों खोलो,
प्रेम सरोवर दुबकी ले लो।
घिरे प्रलय की घोर घटाएं,
शान्ति दीप निज धरा सजा दो।

लोकहित में हठता हृद छोडो,
बदले समाज निजता तोड़ो।
चादर मैली शुद्धिकरण करा लो,
दुनिया बदली खुद भी बदलो।

भरा पिटारा सौगातों का,
बंद अमृतघट 'मंगल' खोलो।
सडांध से भरा जो कुनबा,
सरयू में आ कर मुख धो लो।।

-सुखमंगल सिंह

Thursday, March 16, 2017

सकारात्मक सोच.......मल्लिका मुखर्जी













मुद्दत के बाद,
आज अचानक
चलते-चलते
नज़र पड़ी
धरती का सीना चीरकर
निकलने वाली
उन हरी-हरी कोपलों पर !

सोच रही हूँ,
यह प्रकृति की उदारता है,
मेह का स्नेह है
या
बीज का साहस
जो धरती की गोद में छिपकर
राह तक रहा था
सही समय का ?
-मल्लिका मुखर्जी 

Wednesday, March 15, 2017

चतुर एकलव्य..........शोध छात्रा हेमलता यादव









निषाद-पुत्र
एकलव्य का
दाहिना अंगूठा आज
तक नहीं उग पाया।
गुरु द्रोण
जो उच्चवर्ण के
एकाधिकार संरक्षण हेतु
मांगा था आपने।
जब
सह न पाए थे
प्रखर एकलव्य का
समानता प्राप्त करता कौशल।

सदियों उपरांत
आज भी
जंगल के किसी
कोने में पड़ा
एकलव्य का
अंगूठा फड़फड़ा
रहा है छिपकली
की पूँछ की तरह;
दुबारा उगने के लिए।

गुरू द्रोण
क्या अब पुनः आओगे
एकलव्य से
गुरू दक्षिणा लेने?
जब उसके हाथों में
बाणों की जगह
कलम की शक्ति
भूस देगी प्रत्येक
भौंकने वाले
कुत्ते का मुंह;
अब क्या मांगोगें
अनामिका, माध्यिका-
या तर्जनी?

इस बार इतने
विश्वास के साथ
मत आना गुरू द्रोण--

सदियों के उत्पीड़न ने
एकलव्य को
चतुर बना दिया है---

अंगूठा तो उगा
नहीं लेकिन--
आपकी पक्षपाती
दृष्टि देखकर-
उंगुलियां काटने से पहले
एकलव्य सोचेगा ज़रूर...!
-शोध छात्रा हेमलता यादव

Tuesday, March 14, 2017

क्या कहूंगा,,,,,,,,केशव शरण
















क्या मैं कह सकूंगा
मालिक ने अच्छा नहीं किया
अगर किसी ने
मेरे सामने माइक कर दिया

क्या मैं भी वही कहूंगा
जो सभी कह रहे हैं
बावजूद सब दुर्दशा के
जो वे सह रहे हैं
और मैं भी

क्या मैं भी यही कहूंगा
कि आगे बेहतरीन परिवर्तन होगा
मालिक की हालिया कठोर नीतियों से
भविष्य में हमारा सुखमय,सरल जीवन होगा
-केशव शरण 

Monday, March 13, 2017

कोरे पन्ने......अलका गुप्ता


अन्तः करण कि आवाज थी ...कहाँ ?
कभी ...आत्मा कि अनसुलझी पुकार ||

नित नए... अवसाद समेटे हुए ....
या कभी....विवादित से हुए वो छार ||

डायरी में रहे क्यूँ शेष ये कोरे पन्ने |
सिकुड़े से कुछ गुंजले पीले से कोर ||

थी... क्या व्यथा ...ऐसी ...जो ..
उभर ना सके थे शब्दों के अभिसार ||

मिल न सके ...क्यूँ ....स्मृतियों के ...
बेचैन से लिखित ...........कोई छोर ||

आज जो रुक गए आकर ..आवक ...
कोरे पन्नो पे पलटते अँगुलियों के पोर ||

उकसा रहा मन विकल कोरे इन पन्नों से |
कोरे रह जाने के अनसुलझे से तार ||

आंदोलित करते रहे पुरानी डायरी के ...
अनलिखे...... ये .....शब्द सार ||

या आवाक है हटात ...व्यर्थ रहा ..
जीवन यूँ ही रहा ....कोरा सा ... सार ||

-अलका गुप्ता 

Sunday, March 12, 2017

रोज़ एक मेंढक खाइए!....निशान्त मिश्रा


रोज़ एक मेंढक खाइए!...
ऊपर वाली लाइन पढ़कर चौंकिए नहीं. सुबह उठने पर आपको सबसे पहला काम यही करना है… आपको एक मेंढक खाना है.

ओह! तो आप भी मेरी तरह शाकाहारी हैं… कोई बात नहीं… फिर भी आप सुबह-सुबह एक मेंढक खा सकते हैं.

शायद मार्क ट्वेन ने ही यह कहा था, “यदि आपका दिन का सबसे पहला काम एक मेंढक खाना है तो बेहतर होगा कि इसे आप सुबह उठते ही कर लें. और यदि आपको दो मेंढक खाने हों तो उनमें से बड़े वाले मेंढक को पहले खाना सही रहेगा.”

सुबह उठकर मेंढक खाने का तात्पर्य यहां दिन में सबसे पहले उस काम को पूरा कर देना है जिसे आपको मजबूरी में करना है. आप यह काम बिल्कुल भी नहीं करना चाहते. लेकिन आपको यह काम हर हाल में जल्द-से-जल्द करना है. यह वह काम है जिसे आज करने का संकल्प लेकर आप रात में सोए थे.

मेंढक खाने का अर्थ यह है कि आपको इसे हर हाल में करना है अन्यथा मेंढक आपको खा जाएगा… मतलब आप पूरा दिन इसे टालते रहेंगे और काम नहीं हो पाएगा. लेकिन अपना मन मारकर, अपने कलेजे पर पत्थर रखकर, कुछ समय के लिए टिके बैठे रहकर, कुछ देर के लिए दुनिया और दोस्तों से खुद को काटकर यदि आपने यह काम पूरा कर लिया तो आपके ऊपर से बड़ा बोझ उतर जाएगा. आप खुद को हल्का महसूस करेंगे. आपका पूरा दिन अच्छे से बीतेगा. आपमें यह भावना उत्पन्न होगी कि आपने कुछ अचीव कर लिया है और आप चाहें तो और भी कठिन काम कर सकने में सक्षम हैं.

आप इन मेंढकों की पहचान कैसे करेंगे?

यह बहुत आसान है. अपने काम को इन कैटेगरीज़ में बांट लीजिए –

वे काम जिन्हें आप करना चाहते हैं और जिन्हें करना ज़रूरी है.
वे काम जिन्हें आप करना चाहते हैं लेकिन जिन्हें करना ज़रूरी नहीं है.
वे काम जिन्हें आप नहीं करना चाहते पर जिन्हें करना ज़रूरी भी नहीं है.
वे काम जो आप करना नहीं चाहते, लेकिन जिन्हें करना बहुत ज़रूरी है.

मेंढक वे काम हैं जिन्हें आप बिल्कुल भी नहीं करना चाहते लेकिन जिन्हें करना बहुत ही ज़रूरी है. इनका कोई आल्टरनेटिव नहीं है. ये काम आपको ही करने हैं. कोई दूसरा इसमें आपकी मदद नहीं करेगा.

किसी भी ज़रूरी काम को करने में हम टालमटोल इसलिए करते हैं कि हममें उसे करने की इच्छा नहीं होती या पर्याप्त मोटीवेशन नहीं होता या हमें वह बहुत कठिन लगता है. हमें हमेशा यही लगता है कि हम किसी दिन वक्त निकालकर उसे जैसे-तैसे पूरा कर लेंगे लेकिन वह दिन कभी नहीं आता. हमें उसे हर हाल में जल्द-से-जल्द पूरा करना है लेकिन उसे करना टलता रहता है. डेडलाइनें हमारे सर पर सवार हो जाती हैं. ऐसे में यदि हम झक मारकर वह काम कर भी लेते हैं तो वह इम्प्रैसिव नहीं होता. उसे देखकर कोई हमारी तारीफ़ नहीं करता.

इसलिए हर दिन सुबह-सुबह एक मेंढक खाने की आदत डाल लीजिए. शुरुआत में यह काम बहुत कठिन लगेगा. लेकिन जैसे-जैसे आप यह काम करते जाएंगे, आपको अच्छा लगने लगेगा और आपके काम में और जीवन में अभूतपूर्व सुधार आएगा. आप हर दिन बेहतर बनते जाएंगे.

तो… कल से शुरुआत करें?
-निशान्त मिश्रा

यह पोस्ट Quora पर गौरव नाम्टा के एक उत्तर पर आधारित है. गौरव मैकेनिकल इंजीनियर हैं और कोलकाता में रहते हैं.

Saturday, March 11, 2017

सामंजस्य.....मल्लिका मुखर्जी





कितना सामंजस्य है
सपनों और वृक्षों में !
दोनों
पंक्तियों में सजना पसंद करते हैं ।
कितना भी काटो-छाँटों
उनकी टहनियाँ,
तोड़ लो सारे फल चाहे
नोंच लो सारी पत्तियाँ,
मसल दो फूल और कलियाँ;
फिर भी पनपते रहते हैं
असीम जिजीविषा के साथ
जब तक उन्हें
जड़ से न उखाड़ दिया जाए ।

बचा हो जहन में बीज तो
अवसर मिलते ही
फिर बेताब हो उठते हैं
अपनी-अपनी जमीं पर
अंकुरित होने के लिए !
















-मल्लिका मुखर्जी

Friday, March 10, 2017

आओ होली जम कर खेलें....अर्चना सक्सेना



आओ होली जम कर खेलें
गिले-शिकवे सब को भूलें
और जीवन रंगीन बनाएं
सबको ऐसे गुलाल लगाऐं


क्यों ना आने-जाने वालों को हम
आज अपनी पिचकारी से नहलाऐं
भांग की ठंडाई इतनी पिलाए कि
वो झूमता दिन भर  ही जाये

आज पड़ोस की भाभी से भी
थोड़ी हँसी ठिठोली कर आयें
मेक अप के ऊपर थोड़ा सा
गोल्डन कलर का टच दे आयें

डाँटने वाले अँकल से हम
बॉल नहीं आशीष ले आयें
बहुत सताया हमने साल भर
रंग लगा के आज पैर छू आयें

गली के छोटे- छोटे बच्चों की
आज बड़ी- बड़ी मूँछ बनाये
पर याद रहे कि गुब्बारे से 
चोट किसी को ना लग पाये

गुजिया और दही भल्ले खाकर
हंसी-खुशी सब होली को मनाऐं
तो फिर बहुत मजा आ जाये
तो फिर बहुत मजा आ जाये

Thursday, March 9, 2017

आँसू............रागिनी शर्मा “स्वर्णकार”





याद बहुत आये थे आँसू
प्यार की कसक भरे वे आँसू
मधुर मधुर उस मधुशाला में
रस से छलक उठे थे आँसू

सरिता से सागर रूठा था
या अवनि से जलधर रूठा था
साथ छोड़ रही थी कश्ती
साहिल का सिसक उठे थे आँसू

प्यार प्यार बस प्यार चाहिए
हर धड़कन पर अधिकार चाहिए
प्रिय की बेरुखी से व्याकुल
होकर हिलक उठे थे आँसू

Wednesday, March 8, 2017

फागुन की मीठी धूप...... वीणा विज 'उदित'

अध खिली धूप में अँगड़ाई लें
पैर पसारें आओ चलकर आँगन में
पौष माघ की सर्दी से थे बेहाल
फागुन की मीठी धूप आई है आज...

मेथी आलू गोभी मूली के पराँठे
उन पर धर मक्खन के पेड़े
खाएँ अचार की फाँक लगा के
फागुन की मीठी धूप में जमा के...

उम्रों की गवाह बूढ़ी नानी दादी
बदन पर ओढ़े रंग भरी फुलकारी
आँगन में बैठ नन्हों से बतियातीं
फागुन की मीठी धूप में खिलखिलातीं...

खुले गगन की हदें नापते नव पंछी
मादक गंध बिखेरतीं नई कोपलें फूटी
खेतों ने रंगीले फूलों की चादर ओढ़ी
फागुन की मीठी धूप खिली नवोढ़ी...

खुला शीत लहर से ठिठुरा बदन
हटा कोहरे की चादर का ढाया कहर
अल्साई निंदिया ने छोड़े लिहाफ
फागुन की मीठी धूप ने दिया निजात....
-वीणा विज 'उदित'

Tuesday, March 7, 2017

उत्तरायण की धूप... नीलम नवीन ”नील“











उत्तरायण से बंसत तक
खिली चांदी सी धूप से
मीठी धीमी ताप में एक
उमंग पकने लगती है।।
सर्द गर्म से अहसास,
कहीं जिन्दा रखते हैं
सपने बुनते आदम को
विलुप्त होते प्राणी को ।।
और मुझमें भी अन्दर
धूप सी हरी उम्मीद
मेरा ”औरा“ बनती है
प्रसून जैसी महकती है।।
बुद्ध को सोचने की
एक हद तक फिर
मेरे लिये मुझमें
बोध के रास्ते तलाशती ।।
कहती है जा जा!
खुद के साथ रह
एक दो दिन और
जी अनगिनत से पल ।।
वो साथी बन जाते
मुझमें सासें भरते हैं
मेरी सोच में ही सही
मेरे अपने से होते हैं।।
किन्तु जो बोध सहज
मुक्ति को सरल कर दें
सच कहें ऐसे यथार्थ
आसान नही होते है ।।
-नीलम नवीन ”नील“

Monday, March 6, 2017

दुख चाहे हो कितना भी नया.........जयप्रकाश मानस














पुराने हो जाते हैं 
एक दिन 
कागज, कलम, दवात, स्याही
पुराना हो जाता है कवि, 
एक दिन सारी पुस्तकें
सारे पाठक हो जाते हैं 
एक न एक दिन पुराने
हो जाते हैं एक दिन
मुद्रक, प्रकाशक, वितरक, 
आलोचक सबके सब पुराने
आख़िर एक दिन 
समय भी हो जाता पुराना
दुख चाहे हो कितना भी नया
कविता कभी होती नहीं पुरानी
-जयप्रकाश मानस


वर्तमान में आदरणीय जयप्रकाश जी मानस 
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी हैं
srijangatha@gmail.com

वेबसाईट – www.srijangatha.com



Sunday, March 5, 2017

बचा हुआ है रास्ता.........कृष्ण सुकुमार










बचा हुआ हूँ शेष
जितना नम आँखों में विदा गीत !
बची हुई है जिजीविषा
जितनी किसी की प्रतीक्षा में
पदचापों की झूठी आहट !

बची हुई है मुस्कान
जितना मुर्झाने से पूर्व फूल !

बचा हुआ है सपना
जितना किसी मरणासन्न के मुँह में
डाला गंगाजल !

बचा हुआ है रास्ता
जितना अंतिम यात्रा में श्मशान !

और तुम ! बचे हुए हो
इन्हीं अटकलों के बीच कहीं !
गुनगुनायी जाती धुन की तरह...

-कृष्ण सुकुमार