Friday, August 31, 2018

उल्फ़त का इशारा कर गया.....हरिओम माहोरे

अंधेरे घर में जो मेरे उजाला कर गया,
वही क्यों आज फिर मुझसे किनारा कर गया।

हिदायत मुझको खुश रहने कि ही देता रहा,
भला क्यों आज खुशियाँ ना-गवारा कर गया।

रही थी दुश्मनी मेरी सदा जिस शख़्स से,
मिरे गिरते मकाँ पर वो सहारा कर गया।

मुझे क़ाफ़िर जुदा करता रहा सबसे यहाँ,
यहाँ तरक़ीब उसकी सब में ज़ाया कर गया।

जुबाँ से इश्क़ जो उनके बयां हो ना सका,
तो वो नजरों से उल्फ़त का इशारा कर गया।

"हरी" सब शोहरतों में चूर थे अपनी यहाँ 
तू अपने लफ़्ज़ यूँ क्यूँ इन पे ज़ाया कर गया।
~हरिओम माहोरे

Thursday, August 30, 2018

सूखे पत्ते......नवल किशोर कुमार

सूखे पत्ते,
टूट रहे हों जैसे,
हम भी तो हो रहे हैं दूर
अपनी मिट्टी से
अपने जड़ों से
एक अनजानी
कभी पूरी न होने वाली
इच्छाओं के पीछे
बिना यह सोचे
कि हमारा भविष्य क्या होगा
हमारा अस्तित्व क्या होगा
चले जा रहें हैं बस
बिन मंज़िल का मुसाफ़िर बन
एक ऐसे रास्ते पर
जो कहीं खत्म नहीं होता
कभी सोचता हूँ 
क्या यही सपना है
जो देखा था कभी
मेरे और तुम्हारे
पूर्वजों ने हमारे लिए
हमारे बेहतर कल के लिए !

-नवल किशोर कुमार

Wednesday, August 29, 2018

बैरी सजना ....विनोद सागर

आओ सखी मिल-जुलकर ये गीत गाओ। 
बैरी सजना, अब तो सावन में घर आओ | 

तुम्हारे बिना सूना है घर और यह ऑगन, 
उदास है माथे की बिंदिया, शांत है कगन | 
सेज काँटों-सा हुआ, ऐसे तो न तड़पाओ, 
बैरी सजना, अब तो सावन में घर आओ | 

अब कमरे में रात गहरी जब भी छाती है
कसम से तुम्हारी याद और ज्यादा आती है
आसुओं से फैलते कजरे को  समझाओ
बैरी सजना, अब तो सावन में घर आओ | 

रात करवटें बदलती अब कट रही है
मगक जेहन से याद तुम्हारी न हट रही है
लगी जो प्यार की अगन इसे तो बुझाओ
बैरी सजना, अब तो सावन में घर आओ |

आओ सखी मिल-जुलकर ये गीत गाओ। 
बैरी सजना, अब तो सावन में घर आओ | 
-विनोद सागर

Tuesday, August 28, 2018

हाय रे बैरी सावन......मेहदी अब्बास रिज़वी

सारे  सपने  ढह  गए  बह  गए  हाय रे बैरी  सावन में,
बहते  नाले  घर  में  ढह  गए  हाय। रे  बैरी सावन में।

पहले  तो  छप्पर  छानी  ही टप  टप टपका करते थे,
कच्ची  दीवारों  से  सट  कर   दुखिया  बैठे  रहते  थे,

आज महल भी पल में ढह  गए हाय रे बैरी सावन में।
सारे  सपने  ढह  गए  बह  गए  हाय रे  बैरी सावन में।

कवियों ने कविता  में लिक्खा  सावन मस्त महीना है,
जो  सावन  को न समझे उस का जीना क्या जीना है,

जाने  कौन  सी धुन  में कह गए हाय रे बैरी सावन में।
सारे  सपने  ढह  गए  बह  गए  हाय  रे बैरी सावन में।

सड़कों  में  गड्ढे  हैं  पुल  पर   नदियां  झूम  बहती   हैं,
सावन  मास  तुम्हारे  हमले  जनता   रो  रो  सहती  है,

सपने  देखे  थे  जो  रह  गए  हाय   रे  बैरी  सावन  में।
सारे  सपने  ढह  गए  बह  गए  हाय  रे  बैरी सावन में।

कहीं  मौत  की  चीख़ें  उठती  कहीं  गृहस्ती  बहती  है,
आशाओं   पर   फिरता  पानी  साँसे  उखड़ी  रहती  हैं,

आंसू  ही  आँखों  में  रह  गए   हाय  रे  बैरी  सावन  में।
सारे  सपने  ढह  गए  बह  गए  हाय  रे  बैरी  सावन  में।

जाओ सावन अब  न आना  दुखियों  के  संसार  में तुम,
न मिलना इस पार कभी और न मिलना उस पार में तुम,

प्रीत  विरीत के किस्से बह  गए  हाय  रे  बैरी  सावन  में।
सारे   सपने  ढह  गए  बह  गए  हाय  रे  बैरी  सावन  में।

-मेहदी अब्बास रिज़वी
  ” मेहदी हललौरी “


Monday, August 27, 2018

बैरी उर............दीपा जोशी

बीते युग
पल-पल, गिन-गिन,
शिथिल हुई हर श्‍वास
धड़क उठा बैरी उर फिर
सुनकर किसकी पदचाप?

बह गया
रिम-झिम, रिम-झिम,
गहन घन-संताप
सजल हुआ बैरी उर फिर
सुनकर क्‍यूँ मेघ मल्‍लार?

बुझ गए
झिल-मिल, झिल-मिल,
कामनाओं के दीप
धधक उठा बैरी उर फिर
सुनकर क्‍यूँ मिलन गीत?

-दीपा जोशी

Sunday, August 26, 2018

माँ का दुलार....जी. एस. परमार

नीम की छाँव सा 
प्यार के गाँव सा 
मधु के स्वाद सा 
आत्मा की नाद सा 
माँ का दुलार था वो 
कितना अलौकिक प्यार था वो |

कोयल की गुनगुन सा 
पायल की रूनझुन सा 
नदी की कलकल सा 
झरने की छलछल सा 
प्रकृति माँ का सत्कार था वो 

माँ का दुलार था वो 
कितना अलौकिक प्यार था वो। 
ग्रीष्म भोर की बयार सा, 
सजीले सावन की फुहार सा
सर्दी की सुहानी धुप सा 
मंडराते बसंती मधुप सा, 
माँ की ममता की बौछार था वो 

माँ का दुलार था वो 
कितना अलौकिक प्यार था वो 
- जी. एस. परमार 
नीमच, मध्यप्रदेश

Saturday, August 25, 2018

सावन बरसे हैं.....प्रदीप अर्श

घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं,
नैना तेरे दीद को फिर से तरसे हैं !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं......

मन को कैसी लगन ये लगी है
कैसे प्यास जिया में जागी है,
कैसे हो गया मन अनुरागी है, 
कैसे हो के बेचैन अब रहते हैं !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं........

अजब ग़ज़ब है रंग-ए इश्के,
रंग डाले बे रंग को रंग में,
कैसी प्रीत है ओ रे ख़ुदा, 
कर डाले बेखुद ये क्षण में !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं.......

इस दुनिया के रंग निराले,
झूंठ फ़रेब के हैं रखवाले,
कैसे बचाएं ख़ुद को हम मतवाले,
लागी मन की दाबे रहते हैं !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं.......
-प्रदीप अर्श

Friday, August 24, 2018

पार्श स्वर...पूजा प्रियंवदा


वहाँ कहीं बहुत दूर 
उसका मुश्किल नाम वाला 
जर्मन गाँव रहता है

मैं अक्सर बैठी मिलती हूँ 
उस तालाब के किनारे 
जो जाड़ों में 
बर्फ हो जाता है
और याद करती हूँ 
दिल्ली की धूप

मेरी भाषा नहीं जानते उसके लोग 
मेरा भूरा रंग 
उनके लिए अनमना है 
जैसे किसी तस्कर ने 
हिंदुस्तानी इतिहास की रेत 
की एक मुट्ठी 
चुपचाप बिखेर दी 
उनके श्वेत किनारों पर

कहानियाँ रंग बिरंगे धागों जैसी 
देखो तो बस उलझी हैं 
समझो तो जैसे कोई 
नक्श उभरने वाला है

गाँठें बांधती तो हैं 
दो सिरे 
लेकिन याद के रेश्मी धागे 
कब खींच ले 
गिरह खोलकर सारी 
कौन जाने

यहीं कहीं 
बर्फ में ढका 
कब्रिस्तान इनका 
न जाने कौन सी भाषा में 
लिखें ये मेरा नाम 
मेरी कब्र पर !
-पूजा प्रियंवदा

Thursday, August 23, 2018

आँसू बोलते हैं......संजीव कुमार बब्बर

आँसू बोलते हैं ये जाना 
आँसुओं को तेरे देख कर
जब......
लब को तूने दबा लिया
साँसों को तूने थाम लिया
आँखों को तूने झुका लिया
तब......
आँखों से आँसू बहने लगे
उन पर तेरा वश न चला
ये आँसू सब कुछ कहने लगे

-संजीव कुमार बब्बर

Wednesday, August 22, 2018

रोमानियत भरी किताब है आँखों में...श्वेता सिन्हा

मुस्कुराता हुआ ख़्वाब है आँखों में
महकता हुआ गुलाब है आँखों में

बूँद-बूँद उतर रहा है मन आँगन
एक कतरा माहताब  है आँखों में

उनकी बातें,उनका ही ख़्याल बस
रोमानियत भरी किताब है आँखों में

जिसे पीकर भी समन्दर प्यासा है
छलकता दरिया-ए-आब है आँखों में

लम्हा-लम्हा बढ़ती बेताबी दिल की
ख़ुमारियों का सैलाब है आँखों में

लफ़्जों की सीढ़ी से दिल में दाख़िल
अनकहे सवालों के जवाब है आँखों में

#श्वेता

Tuesday, August 21, 2018

आँखें....दिव्या माथुर

लो आसमान सी फैल उठीं नीली आँखें
लो उमड़ पड़ीं सागर सी वे भीगी आँखें

मेघश्याम सी घनी घनी कारी आँखें
मधुशाला सी भरी भरी भारी आँखें

एक भरे पैमाने सी छलकीं आँखें 
दिल मानो थम गया किंतु धड़कीं आँखें

ओस में डूबी झील सरीखी नम आँखें
जग का समेटे बैठी हैं ये ग़म आँखें

आँसू का पी एक घूँट, दीं मुस्का आँखें
ये इलाज कई मर्ज़ों का नुस्खा आँखें

शब भर पढ़ती रहीं किसी के ख़त आँखें
धंस बेज़ारी से गालों में गईं झट आँखें

ठिठक गईं जीवन का लगा ग्रहण आँखें
पलक हुआ मन और बनी धड़कन आँखें

जहाँ का दर्द समेटे थीं बोझिल आँखें
दूज के चाँद सी सिमट हुईं ओझल आँखें।
-दिव्या माथुर

Monday, August 20, 2018

मैं नीर भरी दुख की बदली!,,,,,महादेवी वर्मा

स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!

मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।

मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!

पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!

विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
-महादेवी वर्मा

Sunday, August 19, 2018

इसीलिए तो नगर -नगर..............गोपालदास नीरज


इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम हो गये मेरे आँसू 
मैं उनका हो गया कि जिनका कोई पहरेदार नहीं था|

जिनका दुःख लिखने की ख़ातिर 
मिली न इतिहासों को स्याही,
क़ानूनों को नाखुश करके 
मैंने उनकी भरी गवाही 

जले उमर-भर फिर भी जिनकी 
अर्थी उठी अँधेरे में ही,
खुशियों की नौकरी छोड़कर 
मैं उनका बन गया सिपाही 

पदलोभी आलोचक कैसे करता दर्द पुरस्कृत मेरा 
मैंने जो कुछ गाया उसमें करुणा थी श्रृंगार नहीं था|

मैंने चाहा नहीं कि कोई 
आकर मेरा दर्द बंटाये,
बस यह ख़्वाहिश रही कि-
मेरी उमर ज़माने को लग जाये,

चमचम चूनर-चोली पर तो 
लाखों ही थे लिखने वाले,
मेरी मगर ढिठाई मैंने 
फटी कमीज़ों के गुन गाये,

इसका ही यह फल है शायद कल जब मैं निकला दुनिया में 
तिल भर ठौर मुझे देने को मरघट तक तैयार नहीं था|

कोशिश भी कि किन्तु हो सका 
मुझसे यह न कभी जीवन में,
इसका साथी बनूँ जेठ में 
उससे प्यार करूँ सावन में,

जिसको भी अपनाया उसकी 
याद संजोई मन में ऐसे 
कोई साँझ सुहागिन दिया 
बाले ज्यों तुलसी पूजन में,

फिर भी मेरे स्वप्न मर गये अविवाहित केवल इस कारण 
मेरे पास सिर्फ़ कुंकुम था, कंगन पानीदार नहीं था|

दोषी है तो बस इतनी ही 
दोषी है मेरी तरुणाई,
अपनी उमर घटाकर मैंने 
हर आँसू की उमर बढ़ाई,

और गुनाह किया है कुछ तो 
इतना सिर्फ़ गुनाह किया है 
लोग चले जब राजभवन को 
मुझको याद कुटी की आई

आज भले कुछ भी कह लो तुम, पर कल विश्व कहेगा सारा 
नीरज से पहले गीतों में सब कुछ था पर प्यार नहीं था|

-गोपालदास नीरज

Saturday, August 18, 2018

शेरो-सुख़न तक ले चलो...अदम गोंडवी


भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो 
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ़ हो गई 
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्‍त की तालीम देना बाद में 
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है 
तिश्नगी को वोदका के आचरन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग 
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो
-अदम गोंडवी 

Friday, August 17, 2018

स्वतंत्रता दिवस की पुकार....अटल बिहारी वाजपेयी


पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥

कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥

हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥

भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥

- अटल बिहारी वाजपेयी

Thursday, August 16, 2018

परिचय की वो गांठ....त्रिलोचन

1917-2007

यूं ही कुछ मुस्काकर तुमने
परिचय की वो गांठ लगा दी!

था पथ पर मैं भूला भूला 
फूल उपेक्षित कोई फूला 
जाने कौन लहर ती उस दिन 
तुमने अपनी याद जगा दी। 


कभी कभी यूं हो जाता है 
गीत कहीं कोई गाता है 
गूंज किसी उर में उठती है 
तुमने वही धार उमगा दी। 


जड़ता है जीवन की पीड़ा 
निस्-तरंग पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अन्जाने वह पीड़ा 
छवि के शर से दूर भगा दी।
-त्रिलोचन

Wednesday, August 15, 2018

परिचय ?....मीना चोपड़ा


भूल से जा गिरी थी मिट्टी में
मद्धिम सी अरुणिमा तुम्हारी।
बचा के उसको उठा लिया मैंने।
उठा कर माथे पर सजा लिया मैंने।

सिंदूरी आँच को ओढ़े इसकी
बर्फ़ के टुकड़ों पर चल पड़ी हूँ मैं।
सर्द सन्नाटों में घूमती हुई
हाथों को अपने ढूँढती रह गई हूँ मैं।

वही हाथ
जिनकी मुट्ठी में बन्द लकीरें
तक़दीरों को अपनी खोजती हुई
आसमानों में उड़ गईं थी।

बादलों में बिजली की तरह
कौंधती हैं अब तक।

शून्य की कोख से जन्मी ये लकीरें
वक़्त की बारिश में घुलकर
मेरे सर से पाओं तक बह चुकी हैं।
पी चुकी हैं मुझे क़तरा क़तरा।

पैर ज़मीं पर कुछ ऐसे अटक गए हैं
वे उखड़ते ही नहीं।

ये सनसनाहटे हैं कि छोड़ती ही नहीं मुझको
सुर और सुर्खियों के बीच
अपरिचित सी रह गई हूँ मैं।

स्वयं से स्वयं का परिचय?
कभी मिलता ही नहीं।

-मीना चोपड़ा

Tuesday, August 14, 2018

लगते थे ज्यों चिर-परिचित हों.....दुष्यन्त कुमार

वह चपल बालिका भोली थी
कर रही लाज का भार वहन
झीने घूँघट पट से चमके
दो लाज भरे सुरमई नयन
निर्माल्य अछूता अधरों पर
गंगा यमुना सा बहता था
सुंदर वन का कौमार्य
सुघर यौवन की घातें सहता था
परिचय विहीन हो कर भी हम
लगते थे ज्यों चिर-परिचित हों।
-दुष्यन्त कुमार

Monday, August 13, 2018

कौन जो दूध का धुला होगा.....सजीवन मयंक

आज कोई तो फैसला होगा।
कौन जो दूध का धुला होगा।।

एक पगडंडी अलग से दिखती है।
कोई इस पर कभी चला होगा।।

होगी मशाल जिसके हाथों में।
पीछे उसके एक काफ़िला होगा।।

जो आदमी को गले लगाता था।
वो पागल आपको मिला होगा।।

झूठ बनकर गवाह आया है।
सांच की आंच में जला होगा।।

ठूँठ सा जो आज उपेक्षित है।
कभी इस पर भी घोंसला होगा।।

रोशनी का स्याह चेहरा है।
अंधेरे नें कहीं छला होगा।।

ये लावारिस पड़ा हुआ मुर्दा।
किसी की गोद में पला होगा।।
-सजीवन मयंक

Sunday, August 12, 2018

इश्क़...निर्मल सिद्धू


इश्क़ का शौक़ जिनको होता है
मौत का न ख़ौफ़ उनको होता है

घूमते फिरते हैं फ़क़त दर बदर
ये मर्ज़ न हर किसी को होता है

ली होती है मंज़ूरी तड़पने की
मिला ख़ुदा से यही उनको होता है

चुनता है वो भी ख़ास बन्दों को ही
इसलिये न जिसको तिसको होता है

सहरा की रेत हो या फ़ाँसी का फंदा
गिला कुछ भी न उनको होता है

अख़्तियार में कुछ रह नहीं जाता
ये इशारा जब दिल को होता है

ख़्याल निर्मल को ये सता रहा है
ख़ुदाया, क्यों नहीं सबको होता है
-निर्मल सिद्धू

Saturday, August 11, 2018

शून्य से शिखर हो गए........सजीवन मयंक

शून्य से शिखर हो गए।
और तीखा ज़हर हो गए।।

कल तलक जो मेरे साथ थे।
आज जाने किधर हो गए।।

बाप-बेटों की पटती नहीं।
अब अलग उनके घर हो गए।।

है ये कैसी जम्हूरी यहाँ।
हुक्मरां वंशधर हो गए।।

क्यो परिन्दे अमन चैन के।
ख़ून से तरबतर हो गए।।

भूल गए हम शहीदों को पर।
देश द्रोही अमर हो गए।।
-सजीवन मयंक