वैराग्य छोड़ बांहों की विभा सम्भालो,
चट्टानों की छाती से दूध निकालो,
है रुकी जहां भी धार, शिलाएं तोड़ो,
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो।
चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे!
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है,
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है,
सौन्दर्य बोध बन नई आग जलता है,
ऊंचा उठकर कामार्त्त राग जलता है।
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे!
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!
जिनकी बांहें बलमयी ललाट अरुण है,
भामिनी वही तरुणी, नर वही तरुण है,
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है,
वारुणी धार में मिश्रित जहां गरल है।
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है,
तलवार प्रेम से और तेज होती है !
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाए,
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है,
मरता है जो एक ही बार मरता है।
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे!
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे !
स्वातन्त्रय जाति की लगन व्यक्ति की धुन है,
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है !
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है,
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है,
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है,
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है ।
चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे!
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है,
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है,
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिन्तन है,
जीवन का अन्तिम ध्येय स्वयं जीवन है।
सबसे स्वतन्त्र रस जो भी अनघ पिएगा!
पूरा जीवन केवल वह वीर जिएगा!
-रामधारी सिंह दिनकर