अनजाने ही मिले अचानक
एक दोपहरी जेठ मास में
खड़े रहे हम बरगद नीचे
तपती गरमी जेठ मास में-----
प्यास प्यार की लगी हुई
होंठ मांगते पीना
सरकी चुनरी ने पोंछा
बहता हुआ पसीना
रूप सांवला हवा छू रही
बेला महकी जेठ मास में-----
बोली अनबोली आंखें
पता मांगती घर का
लिखा धूप में उंगली से
ह्रदय देर तक धड़का
कोलतार की सड़क ढूँढ़ती
भटकी पिघली जेठ मास में-----
स्मृतियों के उजले वादे
सुबह-सुबह ही आते
भरे जलाशय शाम तलक
मन के सूखे जाते
आशाओं के बाग़ खिले जब
बूंद टपकती जेठ मास में------
"ज्योति खरे"
http://jyoti-khare.blogspot.in/2013/05/blog-post_27.html
आदरणीया,प्रणाम
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका, मुझे "मेरी धरोहर" में सम्मलित
करने का
सादर
Waah waah . Khubsurat peshkash
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बृहस्पतिवार(30-05-2013) हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं ( चर्चा - 1260 ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
sundar prastuti
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुति और अभिव्यक्ति |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
बहुत सुन्दर प्रस्तुति,आशाओं के बाग़ खिले जब
ReplyDeleteबूंद टपकती जेठ मास में-----
आशाओं के बाग़ खिले जब
ReplyDeleteबूंद टपकती जेठ मास में------
मदमस्त करती पोस्ट... बढ़िया
सुन्दर प्रस्तुति
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