आखातीज.......
एक ऐसी तिथि, जो अब अबूझ मुहूर्त के नाम से नहीं, बल्कि बाल-विवाहों के कारण अधिक खबरों में रहती है। आम धारणा है कि इस तिथि को विवाह के लिए मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता नहीं होती। यही एक बड़ा कारण है कि राजस्थान-मध्यप्रदेश ही नहीं, देशभर में इस दिन बाल विवाह भी संपन्न करा दिए जाते हैं। जिन जातियों में इस तिथि को बाल विवाह कराए जाते हैं, वे तो सालभर इस दिन की बाट जोहती हैं और तय कार्यक्रम के अनुसार बच्चों का विवाह रचा दिया जाता है। उनका भी, जो पोतड़ों में होते हैं। बाल विवाह निषेध कानून होने के बाद भी आखिर ऐसा क्यों?
आइए। इसके कारण ढूंढ़ते हैं। पहला कारण है सामाजिक सुरक्षा। हमारे देश का मुगलकालीन इतिहास उठाकर देखें तो इसके पीछे का बड़ा कारण यही है कि उस वक्त टुकड़ों में बंटे देश में महिला सुरक्षा को लेकर जिस तरह के हालात बने, उनमें महिला सुरक्षा का सबसे बड़ा कवच बाल विवाह को ही माना गया। यही कारण है कि तब से शुरू हुआ बाल विवाहों का सिलसिला अभी भी जारी है। तब भी, जब इसे अपराध मानकर देश में कड़े दंड की व्यवस्था की गई है।
दूसरा है शिक्षा का अभाव। दरअसल बाल विवाहों का बोलबाला राजस्थान ही नहीं, देश के हर उस राज्य में अधिक है, जहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम है। इसके अभाव में रूढिय़ों में बंधे लोग जानते ही नहीं कि इसके दुष्परिणाम क्या होते हैं। शिक्षा के अभाव में होने वाले बाल विवाहों का दुष्परिणाम यह होता है कि माता-पिता और बुजुर्गों द्वारा की गई इस गलती का खमियाजा वे युवा भुगतते हैं, जिन्हें बचपन में इस बेहद जिम्मेदार बंधन में बांध दिया जाता है।
बाल-विवाहों के पीछे तीसरा बड़ा कारण है दहेज प्रथा। यूं तो सदियों से विवाह के बाद विदाई के वक्त माता-पिता द्वारा बेटी को गृहस्थी के काम आने वाला सामान देने का रिवाज रहा है। उसे सामाजिक मान्यता भी मिली है। लेकिन इस अवसर पर जिस तरह से भारी-भरकम दहेज की मांग की जाती है, उसे देखते हुए भी बाल विवाह करा दिए जाते हैं।
समाज में स्त्री-पुरुष के साथ रहने की पहली अनिवार्य शर्त होती है विवाह। सामाजिक मान्यताओं को मानें। कोई ऐसा कार्य नहीं करें कि एक सभ्य समाज की व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न हों। लोक-लिहाज और मर्यादाओं के लिए यह जरूरी भी है। इसी समाज में बाल विवाह को अपराध माना गया है। इसलिए कि इसके बाद जिस उमर में विवाहित जोड़े का गौणा किया जाता है, वह उमर उनके साथ रहने की नहीं होती। माता-पिता द्वारा की गई गलती का दुष्परिणाम यह होता है कि अपरिपक्व उम्र में युवतियां मां बनती हैं। इससे उनका स्वास्थ्य तो खराब होता ही है, मातृ-शिशु मृत्यु दर में भी इजाफा होता है। अज्ञानतावश ही सही, इस स्थिति के लिए वे माता-पिता और समाज जिम्मेदार हैं, जो एक रूढि़ को ढोते हुए अक्षय तृतीया को बाल विवाह संपन्न कराते हैं। रोक के बावजूद बाल विवाह होने के लिए वे लोग भी उत्तरदायी हैं, जो हर साल बाल विवाहों पर मौन साधे रहते हैं।
समय की मांग है कि हम सभी 'छोटी-सी उमर परणायी रे बाबोसा, कियो थारो कांई रे कसूर' के मर्म को समझें। अपनी जिम्मेदारी निभाएं कि कुछ भी हो जाए, हम अपने आसपास किसी सूरत में बाल विवाह नहीं होने देंगे। यह संकल्प जब हम ले लेंगे तो कोई बाल विवाह राजस्थान-मध्यप्रदेश तो क्या, किसी भी राज्य में नहीं होगा। सही मायनों में देखें तो ऐसे संकल्पों से ही हम उन बच्चों को बाल विवाह के उस अभिशाप से बचा पाएंगे, जिसमें किसी और की करनी का फल किसी और को भुगतना पड़ता है। जिम्मदारों को भी न केवल बाल विवाह रोकने चाहिए, बल्कि इसके दुष्परिणामों के प्रति लोगों को जागरूक भी करना चाहिए।
यशोदा दिग्विजय अग्रवाल द्वारा संकलित.....
24 अप्रेल 2012 को फेसबुक में नोट्स के रूप में प्रकाशित
अप्रेल 2012 में दैनिक भास्कर में प्रकाशित ब्लाग
"कांईं थारो कीयो मैं कसूर?" प्रश्न अंदर तक हिला देता है. समस्या पर निष्कर्ष युक्त सजग पोस्ट!!
ReplyDeleteसहमत
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
इस त्यौहार में गुड्डा गुड़िया का ब्याह रचाने की रीति होती है,यह केवल खेल है
ReplyDeleteपर इसकी आड़ में "बाल विवाह"भी रचा दिया जाता है
आपने सार्थक पहल की है बाल विवाह को बचाने की
बहुत खूब आलेख
सादर
आग्रह है पढ़ें "अम्मा"
http://jyoti-khare.blogspot.in
पहले की बदौलत कुछ कमी जरूर आई है ऐसी प्रथाओं मे, लेकिन फिर भी इनकी समूल खतम करना जरूरी है , सुंदर रचना
ReplyDeletesatik nd sarthak soch halanki isthiti me kuchh pariwartan hua hai par abhi bhi jagrookta jaruri hai ....
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