सौंप कर अपने दिल का
टुकड़ा तुम्हें, मैं निश्चिंत हो गई,
पर कैसे?
उग गये मेरे हृदय पटल पर
एक की जगह दो पौधे
जिन्हें साथ-साथ बढ़ता, लहराता
देखना चाहती।
छुपा लेती अपने हृदय की वेदना,
जब लू या ठंड का झोंका तुम्हें
हिला जाता।
शायद कभी एहसास हो तुम्हें, कि
कितना कठिन होता, अपने जिगर
का टुकड़ा किसी को सौंपना
व अपनी अमानत उसकी
झोली में डालना।
-शबनम शर्मा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (21-03-2018) को ) पीने का पानी बचाओ" (चर्चा अंक-2916) (चर्चा अंक-2914) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
सुंदर एहसासों से परिपूर्ण रचना।
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