" कैनवास की उकेरी रेखाऐं,
बड़ी नादान हो तुम,
मुस्कुराती भी हो, मचलती भी हो,
इंद्रधनुष के सतरंगी बुँदो की तरह ।
तुम एक नज़रिया हो,
किसी चित्रकार की.... बस,
कोई नियती नहीं,
सुनहरी धूप में खिली गुलाबी पात की तरह ।
हम इत्तेफाक़ नहीं रखते किसी की आहट से,
यूँ ही गली में झाक कर ....... ,
थिड़कती भी हो, सँवरती भी हो,
किसी आँखो के साकार हुए सपने की तरह ।"
पता नहीं क्या आस बिछाय,
अपनी चौखट से बार-बार,
एकटक से क्षितिज निहार रहीं हो...,
स्वाती बुँद की आस लगाये चातक की तरह ।
पीली सरसों पे तितँली को मचलते देख,
तुम भी मिलन की आस लगा लिये,
तेज तुफाँ में भी दीये की लौ जला लिये,
मृगतृष्णा में दौडती रेत की हिरण की तरह ।
बड़ी नादान हो तुम ।
©रामबन्धु वत्स
सुन्दर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (26-03-2018) को ) "सुख वैभव माँ तुमसे आता" (चर्चा अंक-2921) पर होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी