मन आँगन
भाव गौरैय्या
कैसा ये उदगम है
दाना चुगना
कलरव करना
नित्य प्रति चिंतन है !
द्विगणित भाव
सजे निर्मल से
कृति समान चिन्हित है
प्रसुन सरीखे
पल्लवित -पुष्पित
अमि कलश पावन है !
तृप्त भावना -तृप्त साधना
तृप्ति ही
वैभव है
प्रणव -ओम प्रभु
निराकार सा
उदय और विलय है !
भावों की
सम्पूर्ण अवस्था
सहज और सरल है
हिय मै बहती
चिर अभिलाषा
शाँत चित्त मनन है ! !
-डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍
सुन्दर
ReplyDeleteआभार 🙏
Deleteउम्दा....बहुत सुंदर रचना
ReplyDelete🙏अति आभार
Deleteअति आभार सखी यशोदा जी धरोहर मैं स्थान देने के लिये और लेखनके प्रवाह को सतता प्रदान करने के लिये !
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (31-03-2017) को "दर्पण में तसबीर" (चर्चा अंक-2926) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह!!!
ReplyDeleteशुक्रिया विश्व मोहन जी
Delete🙏अति आभार रूपचन्द्र जी
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