जब तन्हाई छा जाती है
नींद कहीं दूर उड़ जाती है
वक्त की धुरी लगातार बदलती जाती है
सज जाती है यादों की महफ़िल
जो सुख दुःख, धुप छाँव सी
मन को सहलाती है
याद कभी बादल बन बरसती है
कभी धुप बन होठों पर खिल आती है
खुद से ही हँसना, रोना, गाना और बतियाना
यादों की लम्बी सैर पर निकल जाना
रात का सन्नाटा भीतर भर जाता है
जब तन्हाई आती है
यह बहुत सताती, रुलाती और तड़पाती है!!
-सीमा ‘असीम’ सक्सेना
सुन्दर
ReplyDeleteवाह !!! बहुत खूब सुंदर
ReplyDeleteवाह!!लाजवाब!!
ReplyDeleteबेहतरीन बेहतरीन बेहतरीन !!!
ReplyDeleteहर एक पंक्ति लाजवाब है।
मानों अनुभवों की लड़ी बना दी है आपने । मैने इसको अनुभव किया है।
बहुत ही प्रासंगिक रचना ।
जी शुक्रिया
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.3.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2924 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद