इस ज़मीं के बागवाँ भी, क्या करें?
बिन बुलाये ख़ामख़ां भी, क्या करें?
अब ये जूता और थप्पड़ ही सही!
इस वतन के नौजवां भी, क्या करें?
भौंकने पर इस कदर नाराज़ हो
ये बेचारे, बेजुबां भी, क्या करें?
हाले धरती, देख कर ही रो पड़े,
दूर से ये आस्मां भी, क्या करें?
लगता इस घर में कोई बूढा नहीं
अब हमारे मेज़बाँ भी, क्या करें?
झाँकने ही झाँकने, में फट गए,
ये हमारे गिरेबां भी, क्या करें?
तालियाँ, वे माँग कर बजवा रहे
ये ग़ज़ल के कद्रदां भी, क्या करें?
-सतीश सक्सेना
आभार आपका रचना पसंद करने के लिए !
ReplyDeleteवाह !!! बहुत खूब .... शानदार रचना
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-03-2017) को "नवसम्वतसर, मन में चाह जगाता है" (चर्चा अंक-2913) नव सम्वतसर की हार्दिक शुभकामनाएँ पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब
ReplyDeletewaah bahut khoob
ReplyDelete