मैं स्याही की बूंद हूं जिसने जैसा चाहा लिखा मुझे
मैं क्या हूं कोई ना जाने अपने मन सा गढा़ मुझे।
भटक रही हूं अक्षर बनकर महफिल से वीराने में
कोई मन की बात न समझा जैसा चाहा पढ़ा मुझे।
ना समझे वो प्यार की कीमत बोली खूब लगाई है
जैसे हो जागीर किसीकी दांव पे दिलके धरा मुझे।
बह जाए जज़्बात ना कैसे आज यू कोरे पन्नों पर
अरमानों की स्याही देकर कतरा कतरा भरा मुझे।
पढ़ना है तो कुछ ऐसा पढ़ रूह को राहत आ जाए
मैं तेरी ख्वाब ए ग़ज़ल हूं मत कर खुदसे जुदा मुझे।
तुम चाहो तो शब्द सुरों सी शहनाई में गूंज उठूं
जब दिल तेरा याद करे जानिब देना सदा मुझे।
-पावनी जानिब
सीतापुर
वाह
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteगज़ब... बेहद ख़ूबसूरत पंक्तियां
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 26 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeletegreat work on this post
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