रो रहा था मैं करूँगा क्या अंधेरा हो गया,
ज्यों छिपाया माँ ने आँचल में सवेरा हो गया।
मिल्कियत सारे जहाँ की छान ली कुछ न मिला,
गोद में जाकर गिरे माँ की, बसेरा हो गया।
इस फ़रेब-ओ-झूठ की दुनिया की नज़र न लगे,
माँ की बाँहों में गया, ममता का घेरा हो गया।
दिल कहे क्यों हिचकियाँ आतीं तुझे इतनी बता,
इस नज़र के सामने अम्मा का चेहरा हो गया।
माँ वही, अंगना वही, चूल्हा वही, मिट्टी वही,
याद आई तो शहर भी गाँव-खेड़ा हो गया।
तू ख़ज़ाने की दुआ करता रहा सारी उमर,
ले ख़ज़ाना दुआ का 'पीयूष' तेरा हो गया।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29-07-2017) को "तरीक़े तलाश रहा हूँ" (चर्चा अंक 2681) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही उम्दा ! लेखन ,सधी व सुन्दर भाव आभार "एकलव्य"
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
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