नीता चार साल बाद एम.बी.ए. कर के, अच्छी नौकरी पाकर न्यूयार्क से वापस हाथरस अपने घर पहुँची थी। उसे देख कर पूरा घर उमड़ आया। बड़े भैया, भाभी, और छोटी गुडिया सबसे आगे थे, पीछे से दोनों छोटी बहनें खिली पड़ रहीं थीं। मम्मी और दादी, चाची और उनके दोनों बेटे....सारा घर दरवाज़े पर से ही उसे बाँहों में भरने को तैयार था। भाभी ने आरती उतार कर ही उसे घर के अंदर आने दिया। वह हँस रही थी और शर्मा भी रही थी.."ऐसी कौन सी मेहमान है वो!!"
भाई-बहनों से दस बार लिपटने, गाल नोंचने और बाल खींचने के बाद भी किसी को तृप्ति नहीं हो रही थी। अटैची खुलने के साथ तो समां और बदल गया। किसी को वह कुछ देती तो दूसरा उसके पीछॆ भागता..कमरों के बीच बने, अंदर वाले आँगन में सबकी ख़ूब दौड़ भाग हो रही थी। वह भी सब के साथ बच्ची बन गई, चार साल का विदेशीपन, ऊँची पढ़ाई, ऑफ़िस का अच्छा पद, उस सब से जुड़ी सारी गंभीरता..चार पलों में उड़न-छू! भागा-दौड़ी के बीच ही उसे दादी के वो शब्द सुनाई दिये थे, जो वो माँ से कह रही थीं, "बहू! नीता को ज़रा नब (झुक) के चलने को कहो, पहाड़ सी यहाँ से वहाँ डोल रही है, लड़की की जात, उस पर से भारी पढ़ाई! ऐसे छाती निकाल के चलेगी तो लोग क्या कहेंगे? शादी के टोटे पड़ेंगे सो अलग, आजकल की लड़कियाँ भी बस....!!" दादी इसके बाद भी उसकी चिंता में बुदबुदाती रहीं।
नीता ने सुना! उसे लगा,घर की दीवारों ने सुना, आँगन ने सुना, भाई-बहनों ने भी सुना,रसोई ने सुना...वह हतप्रभ रह गई। फिर वह भाई-बहनों के खेल में भाग नहीं ले सकी। यह बात वो बचपन से सुनती आ रही है दादी से.. "ज़रा नब के चलो"!
पर पिछले सालों से वह अमरीका में दूसरी बात सुनती आ रही थी, "सीधे चलो"!
उसकी बॉस अक्सर उसे कहती, "क्या तुम से कोई ग़लती हुई है?"
वह हैरान होकर कहती, "नहीं!!"
"तो झुक कर क्यों बैठती हो?"
वह शर्मिंदा हो कर और सिकुड़ आती। उसकी अफ़सर उसकी "मैन्टोर" (गुरु) भी थीं। कोर्स समाप्त करने के बाद वह "इन्टर्नशिप" के लिये इसी कम्पनी में आई थी और उसका काम इतना अच्छा था कि उसकी अफ़सर ने उसे एक साल बाद जाने नहीं दिया और नौकरी दे दी। काम के साथ काम की प्रस्तुति के बारे में उसने बहुत कुछ "लॉरा", अपनी इस गुरू और अफ़सर से सीखा था। वो अकसर उसे कहतीं,
"तुम्हारे शरीर की भाषा, तुम्हारे बोले हुये शब्दों से अधिक महत्वपूर्ण होती है। अगर तुम झुक कर बैठोगी, खड़ी होगी तो आत्मविश्वास की कमी दिखाई देगी और तुम अच्छा काम करके भी सफल नहीं हो पाओगी। क्या तुम यह बर्दाश्त कर पाओगी कि तुम्हारा "इम्प्रेशन"(प्रभाव) अच्छा न पड़े?
नहीं! असफलता का कोई विकल्प नहीं है उसके लिये। नीता ने बहुत मेहनत करी है इस पड़ाव तक आने के लिए, अब इस एक छोटी सी बात के लिये वह अपनी सफलता के सपनों को दाँव पर नहीं लगा सकती!
पर तब भी बहुत कोशिशों के बाद भी वह आदतन झुक जाती। बहुत लम्बा समय लगा उसे और "लॉरा" उसे बराबर समझाती, टोकती रही, बिल्कुल दादी की तरह मगर बिल्कुल उल्टी बात के लिये।
और बाद में दोबारा शर्मिंदा हुई थी वह यह जान कर कि उसकी गर्दन और पीठ का तेज़ दर्द केवल इसलिये था क्योंकि वह सीधे नहीं चलती, सीधी नहीं बैठती।
माँ जानती हैं कि उसे किस दर्द और परेशानी से गुज़रना पड़ा था, कितनी रातें हीटिंग पैड पर गुज़ारनी पड़ी थीं! माँ जानती थी कि ऑफ़िस में भी उसे इस बात के लिये टोका जाता है। फोन पर अक्सर वो नीता की बातें सुनकर रुआँसी हो जातीं कि तू इतनी दूर है कि मैं वहाँ आकर तेरी कुछ मदद भी नहीं कर पा रही हूँ। पापा भी यह सब जानते थे..शायद सभी थोड़ा बहुत उसके दर्द के बारे में जानते थे..शायद दादी भी! पर दादी तो दादी हैं..घर की प्रमुख नियंत्रक..कड़क महिला...आज तक किसी ने उनसे पलट कर कुछ नहीं कहा पर उनकी डाँट से सब घबराते थे। बहुत ज़ोर से डाँटती थीं वो।
माँ ने भी उनकी यह बात सुनी, वो कुछ कहने जा रही थीं, कि उन्होंने नीता को हतप्रभ सा खड़ा देखा तो पहले उसके पास आ गईं! नीता के आँखों में एक भाव आता था, एक जाता था! इतनी छोटी सी बात लगती है, सीधे खड़े रहना, सीधे बैठना पर जिसे हमेशा झुक कर चलने को कहा गया हो, उसके लिये सीधे चलने की आदत डालना कितना कठिन होता है, वह जानती है! लॉरा हमेशा कहती.. "इट वोंट हैपन अंटिल यू डू इट (यह तभी होगा जब तुम करोगी)।"
इतनी कोशिशों के बाद उसे अभ्यास हुआ था सीधे बैठने, खडे होने का! और अब...
माँ ने उसे कंधे से घेर लिया, और दादी के पास आते हुए सधी आवाज़ में कहा, "माता जी, नीता को सीधे ही चलना है, सीधा खड़ा रहना है, सीधे ही बैठना है। किसी को अगर इस कारण हमारी लड़की पसन्द नहीं आती तो यह उनकी समस्या है, अब यह कभी झुक कर नहीं चलेगी!"
भाई-बहनों से दस बार लिपटने, गाल नोंचने और बाल खींचने के बाद भी किसी को तृप्ति नहीं हो रही थी। अटैची खुलने के साथ तो समां और बदल गया। किसी को वह कुछ देती तो दूसरा उसके पीछॆ भागता..कमरों के बीच बने, अंदर वाले आँगन में सबकी ख़ूब दौड़ भाग हो रही थी। वह भी सब के साथ बच्ची बन गई, चार साल का विदेशीपन, ऊँची पढ़ाई, ऑफ़िस का अच्छा पद, उस सब से जुड़ी सारी गंभीरता..चार पलों में उड़न-छू! भागा-दौड़ी के बीच ही उसे दादी के वो शब्द सुनाई दिये थे, जो वो माँ से कह रही थीं, "बहू! नीता को ज़रा नब (झुक) के चलने को कहो, पहाड़ सी यहाँ से वहाँ डोल रही है, लड़की की जात, उस पर से भारी पढ़ाई! ऐसे छाती निकाल के चलेगी तो लोग क्या कहेंगे? शादी के टोटे पड़ेंगे सो अलग, आजकल की लड़कियाँ भी बस....!!" दादी इसके बाद भी उसकी चिंता में बुदबुदाती रहीं।
नीता ने सुना! उसे लगा,घर की दीवारों ने सुना, आँगन ने सुना, भाई-बहनों ने भी सुना,रसोई ने सुना...वह हतप्रभ रह गई। फिर वह भाई-बहनों के खेल में भाग नहीं ले सकी। यह बात वो बचपन से सुनती आ रही है दादी से.. "ज़रा नब के चलो"!
पर पिछले सालों से वह अमरीका में दूसरी बात सुनती आ रही थी, "सीधे चलो"!
उसकी बॉस अक्सर उसे कहती, "क्या तुम से कोई ग़लती हुई है?"
वह हैरान होकर कहती, "नहीं!!"
"तो झुक कर क्यों बैठती हो?"
वह शर्मिंदा हो कर और सिकुड़ आती। उसकी अफ़सर उसकी "मैन्टोर" (गुरु) भी थीं। कोर्स समाप्त करने के बाद वह "इन्टर्नशिप" के लिये इसी कम्पनी में आई थी और उसका काम इतना अच्छा था कि उसकी अफ़सर ने उसे एक साल बाद जाने नहीं दिया और नौकरी दे दी। काम के साथ काम की प्रस्तुति के बारे में उसने बहुत कुछ "लॉरा", अपनी इस गुरू और अफ़सर से सीखा था। वो अकसर उसे कहतीं,
"तुम्हारे शरीर की भाषा, तुम्हारे बोले हुये शब्दों से अधिक महत्वपूर्ण होती है। अगर तुम झुक कर बैठोगी, खड़ी होगी तो आत्मविश्वास की कमी दिखाई देगी और तुम अच्छा काम करके भी सफल नहीं हो पाओगी। क्या तुम यह बर्दाश्त कर पाओगी कि तुम्हारा "इम्प्रेशन"(प्रभाव) अच्छा न पड़े?
नहीं! असफलता का कोई विकल्प नहीं है उसके लिये। नीता ने बहुत मेहनत करी है इस पड़ाव तक आने के लिए, अब इस एक छोटी सी बात के लिये वह अपनी सफलता के सपनों को दाँव पर नहीं लगा सकती!
पर तब भी बहुत कोशिशों के बाद भी वह आदतन झुक जाती। बहुत लम्बा समय लगा उसे और "लॉरा" उसे बराबर समझाती, टोकती रही, बिल्कुल दादी की तरह मगर बिल्कुल उल्टी बात के लिये।
और बाद में दोबारा शर्मिंदा हुई थी वह यह जान कर कि उसकी गर्दन और पीठ का तेज़ दर्द केवल इसलिये था क्योंकि वह सीधे नहीं चलती, सीधी नहीं बैठती।
माँ जानती हैं कि उसे किस दर्द और परेशानी से गुज़रना पड़ा था, कितनी रातें हीटिंग पैड पर गुज़ारनी पड़ी थीं! माँ जानती थी कि ऑफ़िस में भी उसे इस बात के लिये टोका जाता है। फोन पर अक्सर वो नीता की बातें सुनकर रुआँसी हो जातीं कि तू इतनी दूर है कि मैं वहाँ आकर तेरी कुछ मदद भी नहीं कर पा रही हूँ। पापा भी यह सब जानते थे..शायद सभी थोड़ा बहुत उसके दर्द के बारे में जानते थे..शायद दादी भी! पर दादी तो दादी हैं..घर की प्रमुख नियंत्रक..कड़क महिला...आज तक किसी ने उनसे पलट कर कुछ नहीं कहा पर उनकी डाँट से सब घबराते थे। बहुत ज़ोर से डाँटती थीं वो।
माँ ने भी उनकी यह बात सुनी, वो कुछ कहने जा रही थीं, कि उन्होंने नीता को हतप्रभ सा खड़ा देखा तो पहले उसके पास आ गईं! नीता के आँखों में एक भाव आता था, एक जाता था! इतनी छोटी सी बात लगती है, सीधे खड़े रहना, सीधे बैठना पर जिसे हमेशा झुक कर चलने को कहा गया हो, उसके लिये सीधे चलने की आदत डालना कितना कठिन होता है, वह जानती है! लॉरा हमेशा कहती.. "इट वोंट हैपन अंटिल यू डू इट (यह तभी होगा जब तुम करोगी)।"
इतनी कोशिशों के बाद उसे अभ्यास हुआ था सीधे बैठने, खडे होने का! और अब...
माँ ने उसे कंधे से घेर लिया, और दादी के पास आते हुए सधी आवाज़ में कहा, "माता जी, नीता को सीधे ही चलना है, सीधा खड़ा रहना है, सीधे ही बैठना है। किसी को अगर इस कारण हमारी लड़की पसन्द नहीं आती तो यह उनकी समस्या है, अब यह कभी झुक कर नहीं चलेगी!"
ड्यौढ़ी पार कर भीतर आते हुये पापा और चाचा ने माँ की बात सुनी, दादी ने भी हैरानी से सुना। आँगन ने सुना, घर की दीवारों ने सुना, बच्चों ने सुना, चौके में चाय बनाती चाची ने सुना..पहली बार नीता ने सुना ..और पाया कि उसकी माँ उस से भी कहीं ज़्यादा सीधी खड़ी है!
-डॉ. शैलजा सक्सेना
सुन्दर।
ReplyDeletewaah !
ReplyDeletesundar rachna .........badhai
ReplyDeletehttp://hindikavitamanch.blogspot.in/
बहुत बढ़िया पोस्ट खासतौर पर लड़कियों के लिये
ReplyDeleteसही है कि अब हर माँ को अपनी बेटी में आत्मविश्वास भरने आगे आना ही होगा। सुंदर प्रस्तुति।
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