मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ..;
इसलिए नहीं कि-
मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ..!
मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ..;
इसलिए कि-
मेरी साँसों में
घुलती रहती है-माटी की सोंधी गन्ध..!
मैं तुम्हें
इसलिए प्रेम करता हूँ..;
क्योंकि
मैं जंगल से प्रेम करता हूँ..!
मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ..;
इसलिए नहीं कि-
मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ..!
मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ..;
इसलिए कि
मुझे भाती है-
फुदकती हुई
नन्हें पंखों वाली गौरैया..!
उसकी मोहक,उन्मुक्त उड़ान..!
मैं तुम्हें
इसलिए प्रेम करता हूँ..;
क्योंकि
मुझे अच्छा लगता है-
हल्की चाँदनी रात में
किसी
सतत् प्रवाहिनी नदी के किनारे
बैठकर...
उसकी शान्त निश्छलता को निहारना..!
उसके चहकते हुए सौन्दर्य को
आत्मसात करना..!
मैं तुम्हें
इसलिए प्रेम नहीं करता हूँ कि-
मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ..!
मैं तुम्हें
इसलिए प्रेम करता हूँ..;
क्योंकि मुझे पता है-
कपास के उजलेपन का
सात्त्विक रहस्य..!
भ्रमरों एवं तितलियों की
रससिक्तता का
सुगन्धकामी मनोविज्ञान..!
मुझे पता है-
समर्पित प्रकृति का
अगाध,मोहक महत्त्व..!
सच कहूँ-
अब इतना औपचारिक हो गया है..;
यह कहना-
"मैं तुमसे प्रेम करता हूँ..!"
कभी-कभी
एक गहन उदासी से
भर जाता है-कोरा मन..!
"मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ"-
यह कहने से बेहतर है..;
मैं तुम्हें प्रेम करता रहूँगा..!
©अकिञ्चन धर्मेन्द्र
मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ क्य़ोंकि....
ReplyDeleteकारण देना होगा!!
बोरिंग है ये वाक्य...तो क्या प्रेम किसी कारणवश होता है...विचारणीय....?
लाजवाब ...
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार 9 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
मधुर रचना।
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