इश्क़ गर बेनक़ाब होता तो।
हिज्र की ये सज़ा नहीं मिलती ।।
ज़ीस्त है जश्न की तरह यारो ।
ज़िन्दगी बारहा नहीं मिलती ।।
कितनी बदली है आज की दुनिया ।
आंखों में अब हया नहीं मिलती ।।
नेकियाँ डाल दे तू दरिया में ।
बेवफ़ा से वफ़ा नहीं मिलती ।।
कुछ तो महफ़िल का रंग बदला है ।
घुँघरुओं की सदा नहीं मिलती ।।
मैं ख़तावार तुझको कह देता ।
क्या करूँ जब ख़ता नहीं मिलती ।।
छोड़ हर काम बस इबादत हो ।
यूँ ख़ुदा की दया नहीं मिलती ।।
वक्ते रुख़सत जहाँ हो तय साहब ।
माँगने पर क़ज़ा नहीं मिलती ।।
कब से क़तिल हुआ ज़माना ये ।
जुल्म की इब्तिदा नहीं मिलती ।।
वो तो नाज़ुक मिज़ाज थी शायद ।
आजकल जो खफ़ा नहीं मिलती ।।
- डॉ.नवीनमणि त्रिपाठी
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वाह
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना।
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति।
सादर।
👌बहुत ही सुन्दर रचना।
ReplyDeleteसुंदर रचना
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