सियासी आग के करतब, दिखा रहे हैं यहाँ...
नाखुदा मुझको भंवर में, फँसा रहे हैं यहाँ...
कोई क्लाइमैक्स सिनेमाई चल रहा है अभी...
मौत के बाद मेरी जाँ बचा रहे हैं यहाँ...
मैने कमरों में भर लिए हैं नुकीले पत्थर...
चुनाव आने की खबर दिखा रहे हैं यहाँ...
न मयस्सर हुई है आग जहाँ लाशों को..
सियासी आग का हवन करा रहे हैं वहाँ...
सऊर है नहीं जिनको सड़क पे चलने का...
गाड़ियाँ वो मुल्क़ की चला रहे हैं यहाँ...
जवान भूख ने माँगा जो उनसे काम ज़रा...
उसे चकले का रास्ता दिखा रहे हैं यहाँ...
आज लाशें चला रही हैं रथ सियासत का...
कई परतों में ज़िंदगी, दबा रहे हैं यहाँ...
एक शायर ने तब लिखी थी इन्क़लाबी ग़ज़ल...
चुनावी भाषणों में अब, भुना रहे हैं यहाँ...
-दिलीप जी
बहत्त उम्दा
ReplyDeleteसटीक सत्य सृजन
ReplyDeleteवाह
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