Tuesday, November 26, 2019

वक़्त ..ब्रजेश कानूनगो

व्यंजना है बेअसर, 
कविता से कागज भर गया
नष्ट हो गए पेड़ सारे, 
एक जंगल मर गया.

पीछे पड़े जो कुछ लफंगे, 
बुद्धि ओ उस्ताद के,
द्रोही कलम घोषित हुई, 
विचार निहत्था झर गया.

बांसुरी के वक़्त पर 
शंख का उन्माद है,
आलाप गुम जाने कहां, 
चीखों से गुम्बद भर गया.

महामना के पदों पर 
रास्ते बनते नहीं,
तोड़ निर्बल का घरौंदा 
राजपथ ये बन गया.

कल मैं था तख़्त पर, 
आज जो है यहां
वक़्त रुकता नहीं
वह बहुत घबरा गया.

-ब्रजेश कानूनगो

3 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 27 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. वाह कविता का प्रखर स्वर , कवि कीअंतर्वेदना का दरपन है सशक्त रचना 🙏🙏

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  3. बांसुरी के वक़्त पर
    शंख का उन्माद है,
    आलाप गुम जाने कहां,
    चीखों से गुम्बद भर गया

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