अब भी रचे-बसे होंगें उस छोटे से गाँव में ।।
जिसने ओढ़ रखी है बांस के झुरमुटों की चादर ।
और सिमटा हुआ है ब्रह्मपुत्र की बाहों में ।।
आमों की बौर से लदे सघन कुंजों से ।
पौ फटते ही कोयल की कुहूक गूँजा करती थी ।।
गर्मी की लूँ सी हवाएँ बांस के झुण्डों से ।
सीटी सी सरगोशी लिए बहा करती थी ।।
हरीतिमा से ढका एक छोटा सा घर ।
मोगरे , चमेली और गुलाबों सा महकता था ।।
अमरूद , आम और घने पेड़ों के बीच ।
हर दम सोया सोया सा रहता था ।।
बारिशों के मौसम में उसकी फिक्र सी रहने लगी है ।
नाराजगी में नदियाँ गुस्से का इजहार करने लगी हैं ।।
लेखक परिचय - मीना भारद्वाज
बहुत सुन्दर सृजन आदरणीया
ReplyDeleteसादर
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-07-2019) को "चिट्ठों की किताब" (चर्चा अंक- 3390) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत सुंदर प्रस्तुति सखी मीनाजी।सादर
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteमीना जी आप की ये प्यारी रचना तो बचपन की अल्हड़ यादे और गांव की छाँव में ले जा रही हैं, सादर
ReplyDeleteबहुत सुंदर सरस प्रस्तुति मीना जी मन में कहीं अनुराग सा जगाती।
ReplyDeleteबहुत सुंदर एहसास पिरोए हैं आपने।
सादर आभार आप सभी का... मेरे सृजन को मान देने हेतु ।
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तूति, मीना दी।
ReplyDeleteबढिया।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह!!मीना जी ,बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteबहुत सुंदर शब्द चित्र।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्यरी सी कविता
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