क्या दिया था तुम्हारी एक चितवन ने उस एक रात
जो फिर इतनी रातों ने मुझे सही-सही समझाया नहीं?
क्या कह गयी थी बहकी अलक की ओट,
तुम्हारी मुस्कान एक बात
जिस का अर्थ फिर किसी प्रात की
किसी भी खुली हँसी ने बताया नहीं?
इधर मैं निःस्व हुआ, पर अभी चुभन यह सालती है
कि मैं ने तुम्हें कुछ दिया नहीं,
बार-बार हम मिले, हँसे, हम ने बातें कीं,
फिर भी यह सच है कि हम ने कुछ किया नहीं।
उधर तुम से अजस्र जो मिला, सब बटोरता रहा,
पर इसी लुब्ध भाव से कि मैं ने कुछ पाया नहीं!
दुहरा दो, दुहरा दो, तुम्हीं बता दो
उस चितवन ने क्या कहा था
जिस में तुम ही तुम थे, संसार भी डूब गया था
और मैं भी नहीं रहा था...
-सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
वाह
ReplyDeleteवाह ! बेहतरीन रचना, लगा मैं जिंदगी से बात कर रही हूँ
ReplyDeleteसादर
सुंदर!
ReplyDeleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति 540वीं जयंती - गुरु अमरदास और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteSundar 👌👌👌
ReplyDeleteवाह.....
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण रचना