नदी जब बहती है
तो घुला लेती है अपने में,
राह की भाषा-
कुछ मन की, कुछ तन की
और कुछ जो परे हैं इनसे,
उद्गम का वह बाल जल-बिन्दु,
मुहाने तक आते-आते,
ज्ञान और अनुभव से झुक गया है थोड़ा,
एक बार बाढ़ के समय,
मेरे गाँव के तालाब से मिला था,
तब से उसमें प्रेम का छाया-दोष है,
कई बार अकबका जाता है,
आस्मां को ताकता है शून्यता भर अंदर-
जबकि नज़र होनी थी ज़मीन पर,
सागर में विलीन होकर भी,
आंय-बांय-सांय बकता है,
पीछे घूमकर देखता है,
अंधी आँखों से छूटे राह को,
निबद्ध और दीवाना!
-शेष अमित
सुन्दर
ReplyDeleteअद्भुत ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-04-2019) को "तुरुप का पत्ता" (चर्चा अंक-3307) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'