प्रश्न चिन्हों की नदी में
डूबता मैं जा रहा,
सब चले पतवार लेकर,
मैं भँवर में नहा रहा।
है ये हिम्मत या हिमाक़त,
वक़्त ही बताएगा,
अपनी धुन हम ख़ुद रटेंगे,
या ज़माना गायेगा।
सब चले पक्की सड़क पर,
पगडण्डी मैं बना रहा,
प्रश्न चिन्हों की नदी में
डूबता मैं जा रहा।
अपने ख़्वाबों को सँजोए,
दिल ही दिल में जो गदगदा रहा,
कल के बदले में कहीं मैं,
आज तो ना गँवा रहा?
मैं किनारे रुक कर तनिक
सोच तो लूँ, पर कैसे!
आकांक्षाओं का प्रवाह मुझे
प्रतिपल बहाता जा रहा।
क्यूँ न जाकर वापस मैं भी,
पकड़ लूँ वही पक्की डगर?
महफ़िलों की भीड़ में मैं,
ख़ुद को खो न लूँ मगर!
पीछे पड़े अपने निशां पर,
मैं जो यूँ इठला रहा,
प्रश्न चिन्हों को मैं
अपने प्रश्नों में ही डूबा रहा।
जो भी संशय था,
अब ना रहा.....अब ना रहा!
-सतीश राय
सब चले पतवार लेकर,
ReplyDeleteमैं भँवर में नहा रहा.......,
बहुत सुन्दर सृजन ।
सुन्दर
ReplyDeleteपीछे बड़े अपने निशां पर मैं इठला रहा ।बाह भाई बहुत ही सुंदर पंक्ति।
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