"दहलीज़"
संस्कारों की भाषा
सभ्यता की दहलीज़ लांघने से पहले
हर शब्द के आगे
एक लक्ष्मण रेखा खींच देती है
...
संवाद मन का मन से
कभी मौन रहकर,
कभी आंखों की भाषा पढ़ती आँखे
बिना कुछ कहे
कितनी ही बातों को पहुँचाते
ये मन के तार इक दूजे तक
दूरियाँ ऐसे क्षणों में बेमानी हो जाती
...
स्मृतियों के आँगन में
जब भी ख्यालों की छुपन-छुपाई होती
कोई अपना पकड़ा जाता
लेते हुये हिचकी :)
बेसबब सबका ध्यान अपनी ओर खींचता
वहाँ भी शब्दों का कोई काम नहीं होता
बस क्षण भर का अल्पविराम होता,
सारी स्मृतियाँ तितर-बितर हो
अपनी मैं का दायरा बनाती
साथ हँसती मुस्कराती
कभी गुनगुनाते हुए कोई गीत
एक दूजे का लिये हाथ में हाथ
चलती जाती साथ - साथ
सभ्यता की दहलीज़ लांघने से पहले !!!!
-सीमा "सदा" सिंघल
Waah...bahut khoob 👌👌👌
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-05-2018) को "वृक्ष लगाओ मित्र" (चर्चा अंक-2993) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
पर्यावरण दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
अति सुन्दर ।
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 7 जून 2018 को प्रकाशनार्थ 1056 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
बहुत सुन्दर सीमा जी , सदा नाम ही सदैव याद रहता है कोमल अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत सुंदर ...
ReplyDeleteदहलीज़ किस किस बात में होती है ... दिर संस्कार भी तो दहलीज़ ही हैं ... सही कहा है ...
आभार आप सभी के प्रोत्साहन का .....
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