सुबह खोल रही है,
अपना लिफ़ाफ़ा हौले से।
गली से निकल रहे हैं लोग,
वही कल के काम पर।
उड़ते हुए परिंदों की चोंचों में,
वही तिनके हैं कल से।
फूलों ने पंखुड़ी बिछाई है आसमां तलक़
रोज़ की तरह।
मुट्ठी में जितने हो सकें
समेट लो लम्हें आज,
कि ज़िन्दगी शांत खड़ी है देहलीज़ पे
अपनी बाहें फैलाये,
बस तुम्हारे लिए।
-सुचेतना मुखोपाध्याय
वाह सुंदर और सत्य सहज रचना।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्द चित्र...
ReplyDeleteवाह!!बहुत सुंदर।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-06-2018) को "सारे नम्बरदार" (चर्चा अंक-3009) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत अच्छी प्रस्तुति
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