वीर रस, जन गण सुहाने गा रहे हैं
पंक्तियों में गुनगुनाते जा रहे हैं,
तारकों की नींद को विघ्नित करे जो
गीत, वे कोरे नयन दो गा रहे हैं।
ज़िंदगी की राह में रौशन रही वो
माँग में सिंदूर, सर चूनर बनी थी,
रात के अंधेर में बेबस हुई अब
जिंदगी की नींव है उजड़ी हुई सी।
जोग, ना परितज्य वो भी जानती है,
पर निरा मंगल हृदय से साजती है
रिस भरा है जीव में उसके तभी तो,
साँस में हरदम कसक सुलगा रही है।
साँस रुकनी थी, मगर तन था पराया
लाश देखी नाथ की, तब भी रही थी,
चीख भी सकती नहीं कमजोर बनकर
हार उसके प्राण की, नाज़ुक घड़ी थी।
अंत्य साँसें भी अभी कोसों खड़ी हैं,
जागती, जगकर निहारे, देखती है
कर, निहोरे जोड़कर, वंदन सहज कर,
अंत में अंतस तिरोहित ढूँढ़ती है।
दीन सी आँखें अभी सूखी नहीं हैं,
औ' उधर बदमाश चंदा झाँकता है
हाथ की लाली अभी धूमिल नहीं है,
ताक कर तिरछे, ठठाकर, खाँसता है।
दुर्दिनों पर डालकर मुस्कान कलुषित,
हेय नज़रों से ज़रा उपहास करता
क्या पता उस रात के राकेश को भी,
यातना से त्रस्त भी कुछ माँग करता।
सर उठाकर आँख को मींचे कठिन सी,
माँगती अंगार, उल्का पिंड से जो
गिर रहे गोले धरा पर अग्नि दह सम,
अंब के अंबार से बुझ जा रहे वो।
वह बहुत सहमी खड़ी है ठोस बनकर,
धूल की परछाइयों सी पोच बनकर
दूर है अर्धांग उसका जो सदा को,
देश पर कुरबान है दस्तूर बनकर।
गीत गाते जा रहे हैं जो सभी ये,
दो दिनों के बाद सब भूला हुआ कल
मर मिटेंगे देश पर गर कल सभी तो,
कब कहेगा, कौन यह दस्तूर प्रति पल।
-“निश्छल”
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteज़िंदगी की राह में रौशन रही वो
माँग में सिंदूर, सर चूनर बनी थी,
रात के अंधेर में बेबस हुई अब
जिंदगी की नींव है उजड़ी हुई सी
कर सम्मान शहीद की वीरांगना का ,
ReplyDeleteआकाश को छू गया तू ।।
नमन है कलम कार तुझे ,
मुझ से बड़ा है तू ।।