भूल से जा गिरी थी मिट्टी में
मद्धिम सी अरुणिमा तुम्हारी।
बचा के उसको उठा लिया मैंने।
उठा कर माथे पर सजा लिया मैंने।
सिंदूरी आँच को ओढ़े इसकी
बर्फ़ के टुकड़ों पर चल पड़ी हूँ मैं।
सर्द सन्नाटों में घूमती हुई
हाथों को अपने ढूँढती रह गई हूँ मैं।
वही हाथ
जिनकी मुट्ठी में बन्द लकीरें
तक़दीरों को अपनी खोजती हुई
आसमानों में उड़ गईं थी।
बादलों में बिजली की तरह
कौंधती हैं अब तक।
शून्य की कोख से जन्मी ये लकीरें
वक़्त की बारिश में घुलकर
मेरे सर से पाओं तक बह चुकी हैं।
पी चुकी हैं मुझे क़तरा क़तरा।
पैर ज़मीं पर कुछ ऐसे अटक गए हैं
वे उखड़ते ही नहीं।
ये सनसनाहटे हैं कि छोड़ती ही नहीं मुझको
सुर और सुर्खियों के बीच
अपरिचित सी रह गई हूँ मैं।
स्वयं से स्वयं का परिचय?
कभी मिलता ही नहीं।
-मीना चोपड़ा
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!
थोड़े से शब्दों में गहरा चिंतन
ReplyDeleteखुद को जानने की चाहत है लेकिन धरती पर एक कफ़स से निकल नहीं पाना बड़ी बेकरारी है।
मेरी जो लेटेस्ट कविता है वो इसी विषय पर आधारित है उस पर आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत रहेगा
बहुत सुंदर हम खुद से बिछडते गये ।
ReplyDeleteस्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16.08.18. को चर्चा मंच पर चर्चा - 3065 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद