Tuesday, August 14, 2018

लगते थे ज्यों चिर-परिचित हों.....दुष्यन्त कुमार

वह चपल बालिका भोली थी
कर रही लाज का भार वहन
झीने घूँघट पट से चमके
दो लाज भरे सुरमई नयन
निर्माल्य अछूता अधरों पर
गंगा यमुना सा बहता था
सुंदर वन का कौमार्य
सुघर यौवन की घातें सहता था
परिचय विहीन हो कर भी हम
लगते थे ज्यों चिर-परिचित हों।
-दुष्यन्त कुमार

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