शब्द को कुछ इस तरह तुमने चुना है।
स्तुति भी बन गयी आलोचना है।।
आजकल के आदमी को क्या हुआ है।
देखकर जिसको परेशां आईना है।।
दोस्तों इन रास्तों को छोड़ भी दो।
आम लोगों को यहाँ चलना मना है।।
जिसके भाषण आज सडकों पर बहुत हैं।
लोग कहते हैं कि वो थोथा चना है।।
जिस कुएँ में आज डूबे जा रहे हम।
वो हमारे ही पसीने से बना है।।
ठोकरों से सरक सकता है हिमालय।
जो अपाहिज हैं यह उनकी कल्पना है।।
खोल दो पिंजर मगर उड़ ना सकेगा।
कई वर्षों से ये पंछी अनमना है।।
-सजीवन मयंक
सुप्रभात सुंदर रचना आपके परिश्रम को नमन है
ReplyDeleteशानदार रचना।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (11-08-2018) को "धार्मिक आस्था के नाम पर अराजकता" (चर्चा अंक-3060) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह बहुत उम्दा गजल।
ReplyDeleteतंज भी सीख भी और लय बद्धता भी
Sachmuch aapki ghazalon mein bahut wazan hai… har sher par rukna padta hai..!
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