घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं,
नैना तेरे दीद को फिर से तरसे हैं !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं......
मन को कैसी लगन ये लगी है
कैसे प्यास जिया में जागी है,
कैसे हो गया मन अनुरागी है,
कैसे हो के बेचैन अब रहते हैं !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं........
अजब ग़ज़ब है रंग-ए इश्के,
रंग डाले बे रंग को रंग में,
कैसी प्रीत है ओ रे ख़ुदा,
कर डाले बेखुद ये क्षण में !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं.......
इस दुनिया के रंग निराले,
झूंठ फ़रेब के हैं रखवाले,
कैसे बचाएं ख़ुद को हम मतवाले,
लागी मन की दाबे रहते हैं !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं.......
-प्रदीप अर्श
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-08-2018) को "आया फिर से रक्षा-बंधन" (चर्चा अंक-3075) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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रक्षाबन्धन की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूबसूरत रचना ।
ReplyDeleteवाह 👌👌👌
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