घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं,
नैना तेरे दीद को फिर से तरसे हैं !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं......
मन को कैसी लगन ये लगी है
कैसे प्यास जिया में जागी है,
कैसे हो गया मन अनुरागी है,
कैसे हो के बेचैन अब रहते हैं !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं........
अजब ग़ज़ब है रंग-ए इश्के,
रंग डाले बे रंग को रंग में,
कैसी प्रीत है ओ रे ख़ुदा,
कर डाले बेखुद ये क्षण में !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं.......
इस दुनिया के रंग निराले,
झूंठ फ़रेब के हैं रखवाले,
कैसे बचाएं ख़ुद को हम मतवाले,
लागी मन की दाबे रहते हैं !
घिर के आयीं घटायें सावन बरसे हैं.......
-प्रदीप अर्श
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना ।
ReplyDeleteवाह 👌👌👌
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