बिना किसी पूर्व-सूचना के
एक दिन आ गया प्रलय,
भौंचक्के रह गए सारे भविष्यवेत्ता,
सन्न रह गया समूचा मौसम-विभाग,
हहराता समुद्र लील गया सारा आकाश,
सूर्य डूब गया उसमें,
जिसकी फूली हुई लाश
बहती मिली दूर कहीं
कुछ समय बाद
चाँद और सितारे,
न जाने कहाँ बह गए
नामो-निशान तक नहीं मिला उनका।
वह तो मैं ही था कि
बच गया किसी तरह
तुम्हारे प्रेम-पत्रों की नाव बना कर;
वह तो तुम ही थी कि
बच गई किसी तरह
मेरे प्रेम-पत्रों के चप्पू चला कर।
समस्या यह है कि अब हम
अर्घ्य किसे देंगे
प्रतिदिन?
-सुशान्त प्रिय
जय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 07/08/2018
को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह कुछ हट के,
ReplyDeleteउम्दा रचना ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-08-2018) को "पड़ गये झूले पुराने नीम के उस पेड़ पर" (चर्चा अंक-3056) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'