नीम की छाँव सा
प्यार के गाँव सा
मधु के स्वाद सा
आत्मा की नाद सा
माँ का दुलार था वो
कितना अलौकिक प्यार था वो |
कोयल की गुनगुन सा
पायल की रूनझुन सा
नदी की कलकल सा
झरने की छलछल सा
प्रकृति माँ का सत्कार था वो
माँ का दुलार था वो
कितना अलौकिक प्यार था वो।
ग्रीष्म भोर की बयार सा,
सजीले सावन की फुहार सा
सर्दी की सुहानी धुप सा
मंडराते बसंती मधुप सा,
माँ की ममता की बौछार था वो
माँ का दुलार था वो
कितना अलौकिक प्यार था वो
- जी. एस. परमार
नीमच, मध्यप्रदेश
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteआपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (27-08-2018) को "प्रीत का व्याकरण" (चर्चा अंक-3076) पर भी होगी!
ReplyDelete--
रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया लिखा । लाजवाब!!!
ReplyDeleteSach mein... alaukik bhi hota hai, aur avismarniya bhi.
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