आजीवन पराश्रित
कहने को तो घर की लक्ष्मी
हक़ीक़त में
लाचार और विवश।
जन्मने से पहले
जन्मने के बाद न जाने
कब दबा दिया जाय
इसका गला।
तरेरती आँखें नोचने को तत्पर
न घर, न बाहर रही अब सुरक्षित,
जीवन की रटना
जीवनभर खटना
दूसरों की खातिर
खुद को होम करना।
-दिनेश ध्यानी
बहुत सुंदर
ReplyDeleteयथार्थ ।
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी।
भावुक कर देने वाली बेहद खूबसूरत रचना...
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