1704 में 21, 22, और 23 दिसम्बर को गुरु गोविंद सिंह और मुगलों की सेना के बीच पंजाब के चमकौर में लड़ा गया था। गुरु गोबिंद सिंह जी 20 दिसम्बर की रात आनंद पुर साहिब छोड़ कर 21 दिसम्बर की शाम को चमकौर पहुंचे थे, और उनके पीछे मुगलों की एक विशाल सेना जिसका नेतृत्व वजीर खां कर रहा था, भी 22 दिसम्बर की सुबह तक चमकौर पहुँच गयी थी। वजीर खां गुरु गोबिंद सिंह को जीवित या मृत पकड़ना चाहता था। चमकौर के इस युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह की सेना में केवल उनके दो बड़े साहिबजादे अजीत सिंह एवं जुझार सिंह और 40 अन्य सिंह थे। इन 43 लोगों ने मिलकर ही वजीर खां की आधी से ज्यादा सेना का विनाश कर दिया था।
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मैं एक हारे हुए युद्ध की
सिपहसालार हूँ
रोज़ अपने चीथड़े संभाले
देखती हूँ अपलक
किसी नए फायरिंग स्क्वाड की
बर्फ आँखों में
उनकी मृत अंतरात्मा
मुझसे आख़िरी बोटी
मांगती है
चमकौर में सुना था
पुर्ज़ा- पुर्ज़ा कट मरे थे
कोई पुरखे
आन की लड़ाईयाँ
ऐसे ही होती हैं
जान तक
बीजी कहीं बुदबुदा रही हैं-
"जब आव की आउध निदान बनै
अति ही रण में तब जूझ मरौ"
लड़ते रहने का जज़्बा
सुनने में जितना सुन्दर लगता है
वीर रस की बातें
दूसरों से कहने में
जो स्वाद आता है
वो अपने ज़ख्म चाटने में
नहीं आता
मैं योद्धा हूँ
पर थक गयी हूँ
इंसान होते होते
रुक गयी हूँ
मैं फिर भी
रोज़ लड़ रही हूँ
चमकौर की दुखद लड़ाई
-पूजा प्रियंवदा
वाह
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 03 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteचमकौर के शहीदों को सादर नमन। सुंदर कविता।
ReplyDeleteबहुत सार्थक संकलन।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ,हाँ ,हर रोज जिंदगी से एक लड़ाई जारी हैं ,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteWah!!! Just.. wow!
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