रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता;
इस निदाघ के मानस में करुणा के स्रोत बहा जाता !
उसमें मर्म छिपा जीवन का,
एक तार अगणित कंपन का,
एक सूत्र सबके बंधन का,
संसृति के सूने पृष्ठों में करुणकाव्य वह लिख जाता !
वह उर में आता बन पाहुन,
कहता मन से, अब न कृपण बन,
मानस की निधियाँ लेता गिन,
दृग-द्वारों को खोल विश्वभिक्षुक पर, हँस बरसा आता !
यह जग है विस्मय से निर्मित,
मूक पथिक आते जाते नित,
नहीं प्राण प्राणों से परिचित,
यह उनका संकेत नहीं जिसके बिन विनिमय हो पाता !
मृगमरीचिका के चिर पथ पर,
सुख आता प्यासों के पग धर,
रुद्ध हृदय के पट लेता कर,
गर्वित कहता ‘मैं मधु हूँ मुझसे क्या पतझर का नाता’ !
दुख के पद छू बहते झर झर,
कण कण से आँसू के निर्झर,
हो उठता जीवन मृदु उर्वर,
लघु मानस में वह असीम जग को आमंत्रित कर लाता !
-महादेवी वर्मा
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteअत्यन्त सुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत खूब .... ,सादर नमस्कार दी
ReplyDeleteवाह ! तहे दिल से आभार दी, सुन्दर प्रस्तुति के लिए, सुन कर मन मुग्ध हो गया
ReplyDeleteसादर
बेहतरीन रचना
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